छत्रपति शिवाजी अपने गुरु की मस्ती, उमंग और आनन्द को देखकर सोचने लगे- इस सब का कारण क्या है? उत्तर में मन में आया-”अरे! उनके पास कोई जिम्मेदारी दायित्व नहीं है इसी कारण मस्त रहते होंगे।” बस चिन्तन की धारा इसी दिशा में चल पड़ी क्यों ने राज्य, शासन, युद्ध तथा अन्याय परेशान करने वाले दायित्व से छुटकारा पा लिया जाय?
मन इन्हीं विचारों में चक्कर काट रहा था कि एक दिन समर्थ गुरु रामदास आ पहुँचे। शिवाजी का उल्लास उन्हें देखकर अनेकों गुना बढ़ गया अवसर पाकर छत्रपति ने उनसे निवेदन किया! “गुरुदेव! मैं राज्य के इन झंझटों से उकता गया हूँ। इसलिए सोच रहा हूँ कि मैं भी अब संन्यास ग्रहण कर लूँ।”
“संन्यास ले लो”-गुरुदेव ने बहुत ही सहज भाव से कहा-”इससे अच्छी ओर क्या बात हो सकती है”?
शिवाजी पुलकित हो उठे। वे तो सोच रहे थे कि पता नहीं इसके लिए गुरुदेव अनुमति देंगे या नहीं? शायद उन्हें बहुत मनाना पड़ेगा। लेकिन बात आसानी से बन गई। उन्होंने कहा-”तो फिर आप अपनी दृष्टि में का कोई ऐसा व्यक्ति बताइए जिसे राज काज सौंपकर में आत्मकल्याण की साधना करूं और आपके सान्निध्य में रह सकूँ।”
गुरुदेव ने कहा-”मुझे राज्य दे दे और चला जा निश्चित होकर वन में। मैं चलाऊँगा राज का काम काज।” और शिवाजी ने हाथ में जल लेकर राज्यदान का संकल्प कर लिया। उसी वेश में जाने को उद्यत हुए। वहाँ से निकलने और भविष्य के प्रबन्ध के लिए उन्होंने कुछ मुद्राएँ साथ लेना चाहीं। परन्तु समर्थ ने यह कहकर मुद्राएँ ले जाने से मना कर दिया कि “अब तो तुम राज्य का दान कर चुके हो। राज कोष पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं रहा।”
शिवाजी उसी स्थिति में बाहर चल दिए।
जब शिवाजी चलने लगे तो स्वामी जी ने रोक कर पूछा-”सुनो! तुम जा तो रहे हो परन्तु भविष्य में निर्वाह की व्यवस्था क्या होगी?”
“जो भी हो जाए” शिवाजी बोले।
“फिर भी? कुछ तो सोचा होगा?”
“सोचा क्या? कहीं मेहनत मजदूरी तो मिलेगी। किसी की नौकरी कर ही अपना गुजारा चला लूँगा।” विरक्त स्वर में शिवाजी बोले।
अच्छा तो नौकरी ही करनी है। मैं समझता हूँ कि तुम्हारे लिए मैं बढ़िया नौकरी की व्यवस्था कर सकता हूँ।
“बड़ी कृपा होगी” शिवाजी का उत्तर था।
तुम यह राज्य तो मुझे दे चुके हो। अब मैं जिसे चाहूँ, उसे इसकी देख रेख और व्यवस्था के लिए नियुक्त कर सकता हूँ। अब मुझे किसी योग्य व्यक्ति की तलाश भी करनी पड़ेगी सो सोचता हूँ कि तुम ही इसके लिए सबसे ज्यादा योग्य हो सकते हो। इस भाव से राज्य का संचालन दायित्व संभालना कि तुम केवल सेवक मात्र हो। “यह राज्य मेरा है।” शिवा स्तंभित रह गए।
बस उसी क्षण से मराठों के झण्डे का रंग भगवा हो गया। शिवाजी भी जब हर स्थिति में मस्त रहने लगे। एक बार युद्ध क्षेत्र में शिवाजी प्रसन्न भाव से दास बोध पढ़ रहे थे। उन्हें इस प्रकार प्रसन्न देखकर मोरोपन्त ने पूछा-”आप इस विकट स्थिति में इस प्रकार मस्त कैसे है।” शिवाजी का जवाब था-”सारी प्रसन्नता आसक्ति की आड़ में छुपी है। यदि आसक्ति को उखाड़ फेंका जाय तो समूची सृष्टि को भगवान का उद्यान तथा अपने को एक सेवक समझ लिया जाय तो फिर कोई परेशानी नहीं है। उन्होंने ऐसा किया भी। हम सबके लिए भी यही रास्ता खुला है।”