न सोचो अकेली किरण क्या करेगी?

November 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भूख से तड़पता एक बालक केन्या की सड़कों पर घूम रहा था। उसकी आँखों में छलकते हुए आँसू व्यथा-पीड़ा की कथा कह रहे थे। कहीं से एक बूढ़ा पादरी गुजरा। ज्यों ही उसकी दृष्टि बालक के चेहरे पर पड़ी-विचारा उभरा कि यदि इस कोमल फूल को सँजोया न गया तो इसे असमय मुरझाना पड़ेगा। उसके ममत्व भरे हाथों की सार-सँभाल से वह बढ़ा और प्रखर बुद्धिमता व लगनशीलता के बल पर उसकी गणना सुयोग्यों में होने लगी।

लोग उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को सराहते। उनकी बुद्धिमत्ता और विचारशीलता से प्रभावित होते। अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव भी आए, परन्तु उसके अन्तर में तो अपना दुःख भरा बचपन तैर रहा था। ऐसा ही तड़पता बचपन उन्हें बाहर भी दिखा। यही क्यों-डूबती-उतरती जिन्दगियाँ दिखाई पड़ी। मनुष्यों के साथ पशुओं का सा व्यवहार होता देख उसका हृदय रा पड़ा। अँग्रेज और अफ्रीकियों से सिर्फ रंग-रूप भर का अन्तर दिखाई देता है। इसी के कारण उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में आसमान-पाताल का अन्तर है। एक घृणा का पा. है-दूसरा सम्मान का। एक का काम पिटना-दूसरे का पीटना। मनुष्य अपने जैसे ही मनुष्य के साथ पशु से गया गुजरा व्यवहार करे, इससे बड़ी और क्या विडंबना हो सकती है?

जिस समाज में हम उत्पन्न हुए हैं, जिस जाति का हममें खून बह रहा है। उस समाज और जाति के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य हैं। क्या इन्हें झुठलाया जा सकता है? वह भी मात्र सुविधा सम्पन्न जीवन जीने के लिए। नहीं कदापि नहीं। अन्तराल की इसी कसक ने, मानसिक पीड़ा को हरने की छटपटाहट ने एक अनूठे व्यक्तित्व को जन्म दिया। इस व्यक्तित्व को स्वामी जोमो के न्याता के नाम से समूचे विश्व में जाना गया।

सर्वप्रथम पढ़े-लिखे और शिक्षित व्यक्तियों को यह तथ्य अवगत कराना आवश्यक था। सो उन्होंने सन् 1928 में किकयू भाषा का पहला पत्र निकाला। इस पत्र के सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक सभी कुछ वही थे। पत्र का उद्देश्य था-स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जन-जागरण। विचार इतने सशक्त और विश्लेषण थे कि अंग्रेज नागरिक भी उसे नियमित पढ़ने लगे।

सन् 1929 में वे लन्दन गये। वहाँ के सूत्र संचालकों को औचित्य को समझाने का प्रयत्न किया पर धन, मद, अहंकार से बंद हुए कानों में मानवीय संवेदना कहाँ प्रवेश करती है? फिर भी प्रयास तो करना ही था। सन् 1938 में उन्होंने ‘फेसिंग माउण्ट केन्या’ नामक पुस्तक लिखी। विचार और संवेदना दोनों ही दृष्टियों से ग्रन्थ उत्तम था। इस पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध मानव विज्ञानी प्रो मैलिनोस्की ने लिखी। इसका प्रचार व्यापक हुआ। विभिन्न देशों के शासन प्रमुखों व निवासियों तक उद्देश्यों के औचित्य को समझाने का यह प्रयास काफी कारगर हुआ।

दूसरों में सहानुभूति तो जगी, परन्तु स्वयं पीड़ितों में जाग्रति नहीं आई। इस महत कार्य को पूरा करने के लिए विभिन्न सृजनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से जनक्षेत्र में उतरे। कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सचेष्टता करने के लिए घर-घर गए। प्रत्येक को समझाने की कोशिश की, तुम मनुष्य हो मनुष्य की तरह से रहो। मानवी जीवन की रीति-नीति से अवगत कराया। उनके सहयोगी भी उभरे। अवरोध भी आए। 9 वर्षों का कारावास, तरह-तरह के दण्ड दिए गए। पर जाग्रत मनःचेतना भला अवांछनियताओं को कहाँ स्वीकार करती है। हुआ भी यही। 12 दिसम्बर 1963 को राष्ट्र ने पीड़को उठाकर फेंक दिया। इतना ही नहीं सामाजिक स्थिति बदली। पहले पशु समझे जाने वाले मानव शरीरधारी मनुष्य समझे गए। सारी उलटी स्थिति उलटकर सीधी हो गई। यह एक व्यक्ति के अन्तर में उठी कसक का परिणाम था।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles