वर्ष की सुव्यवस्थित समय सारिणी बनाना अति कठिन कार्य है। कारण है कि पृथ्वी एक सूर्य परिक्रमा 365 दि, 5 घंटा, 48 मिनट, 48 सेकेंड में पूरी करती है। उसका हमारी घड़ियों से, कलेंडरों से कोई सीधा संबंध नहीं है। पूरे दिनों की बात होती तो यह कठिनाई न पड़ती, जो प्रस्तुत पंचांग कर्त्ताओं को पड़ती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में घूम जाती है। इसमें मात्र इतना ही व्यतिक्रम पड़ता है कि कभी दिन छोटा होता है तो कभी रात छोटी, पर इसका कोई प्रभाव वर्ष में सम्पन्न होने वाली सूर्य परिक्रमा पर नहीं पड़ता।
वार्षिक कलेंडर को चित्र-विचित्र तरीकों से काट छाँट कर पूरा किया जाता है। बारह महीनों में से किसी को 30 दिन का, किसी को 31 दिन का मानकर उस व्यवधान को पूरा किया जाता है। फिर भी जो कमी रह जाती है। उसे हर चौथे वर्ष फरवरी में एक दिन चढ़ा करके पूरा किया जाता है। बात इतने से भी नहीं बनती तो भारतीय पंचांगों में तिथियों की क्षय वृद्धि, महीनों की क्षय वृद्धि का नया हिसाब जोड़ गाँठकर पूरा किया जाता है।
जो बात पृथ्वी के संबंध में है वही सौर मण्डल के अन्य ग्रहों के संबंध में भी है। वे भी पूरे घंटों में अपनी परिक्रमाएं पूरी नहीं करते इसलिए उनकी सही स्थिति जानने के लिए ऐसी ही कमीवेशी करनी पड़ती है।
पंचाँग और कलेंडर बनाने की कितनी ही .....धियाँ-सारिणियाँ इन दिनों प्रचलित है। पर उन में अन्तर पड़ता और बढ़ता जाता है। इसलिए प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने की नीति अपना कर दृश्य गणित का आश्रय लेना पड़ता है। जो भूल-चूक हो जाती है उसे प्रायः पाँच हजार वर्ष बाद नई गणना और नई सारणी बनाकर इस .... बनाया जाता है कि उसे विश्वस्त कहा जा सके।
कलेंडर विधियों में पिछले सौ वर्षों में भारी अन्तर होते आयें हैं कभी दस महीनों का भी वर्ष रहा है। उसे बारह महीनों का तो बहुत बाद में किया गया। दिनों की संख्या तो सप्ताह में सात ही रही, पर उनका आरम्भ कहाँ से किया गया इस विषय में सम्प्रदाय विशेष के द्वारा काफी खींचतान की जाती रही है। मुसलमान शुक्र को, ईसाई रविवार को, हिंदू गुरुवार को, मिश्र के लोग शनिवार को प्रथम दिन मानते हैं।
कोई समय ऐसा भी रहा है, जब 304 दिन का वर्ष माना जाता था और वर्ष मार्च से आरम्भ होता था पर इन मान्यताओं के कारण जो ग्रह मण्डल में अन्तर पड़ता था उसे देखते हुए वर्तमान अंग्रेजी खगोल विद्या को अधिक प्रामाणिक माना जाने लगा है। सीजर (रोम) के जमाने में ज्योतिष का वार्षिक स्वरूप निर्धारण करने में कितनी ही उलट-पुलट और उथल-पुथल होती रहीं है। पर अन्त में दूरदर्शी वैज्ञानिकों ने उन भूलों को सुधार कर ही दम लिया।
किसी साल का कलेंडर बीस वर्ष बाद उलट कर उसी स्थिति में आ जाता है। किसी के पास बीस वर्ष के कलेंडर हों तो वह उन्हीं के सहारे सदा अपनी गाड़ी चलाता रह सकता है।
21 मार्च और 22 सितम्बर को दिन और रात की लम्बाई बराबर होती है। 22 दिसम्बर सबसे छोटा दिन माना जाता है। तारीखें रात के बारह बजे बदलती हैं और दिन का परिवर्तन सूर्योदय से होता है।
समय का सबसे पहले दिन-रात्रि या चार पहर में बाँटा जाता था पर अब उसे 24 घंटों में विभाजित किया गया है। एक घंटे में 60 मिनट और हर मिनट में 60 सेकेंड होते हैं। अब इससे भी छोटे विभागों की गणना कर सकने वाले यंत्र बन गये है।
एक दिन में संसार में बड़ी-बड़ी घटनाएँ हो जाती हैं, पर हमारी दृष्टि और जानकारी सीमित होने से उन बातों का पता नहीं चल पाता। एक दिन में 5440 बच्चे पैदा होते हैं। 4630 आदमी मरते हैं। साढ़े आठ लाख प्याले लोग चाय या काफी पी जाते हैं। 1270 टन तम्बाकू की हर घंटे खपत होती है। डाकखाना एक दिन में प्रायः 22 लाख पत्र और दो लाख तार भेजता है।
शरीर के भीतरी क्षेत्र में जो गतिविधियाँ चलती रहती हैं, वे इतनी द्रुतगामिनी होती हैं कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। एक मिनट में हृदय द्वारा पूरे शरीर में प्रायः 75 बार रक्त भेजा जाता है। परिश्रम के समय वह गति बढ़कर 200 बार तक पहुँच जाती है। एक बार के रक्त परिभ्रमण में प्रायः 60 हजार मील लम्बाई में रक्तकण ढोये जाते हैं। साँस प्रायः इतनी ही देर में 18 बार चल जाती है।
एक मिनट का साधारणतया कोई मूल्य नहीं होता, पर उतनी ही अवधि में पृथ्वी 1109 मील की यात्रा कर लेती है। सूर्य की गर्मी पृथ्वी में एक मिनट में 37 अरब टन पानी भाप के रूप में ऊपर उड़ाती है पर साथ ही थोड़े समय उपरान्त बादलों के रूप में बरसाकर वापस भी कर देती है।
शरीर आमतौर से बचपन, जवानी, प्रौढ़ता, वृद्धावस्था में ही अपनी आकृति बदलता है। पर सच बात यह है कि उसके 98 प्रतिशत जीव कोष एक वर्ष में मरते और नया जन्म ग्रहण करते रहते हैं। इस प्रकार शरीर हर वर्ष नया बन जाता है।
पूरी जिन्दगी यों ऐसे ही खाते, सोते, बीत जाती है पर जीवन काल में एक औसत मनुष्य 65 हजार मील पैदल चल लेता है। इतना ही नहीं घर गृहस्थी के कामों में लगी हुई महिलाएँ भी अपनी छोटी परिधि में तीन हजार मील वर्ष प्रतिवर्ष अर्थात् पचास साल में 15 लाख मील चल लेती हैं। इसे पूरी पृथ्वी की 6 बार परिक्रमा करने जितना समझा जा सकता है। सत्तर साल जीवित रहने वाला मनुष्य औसतन 330 मन रोटी, 138 मन आलू और 100 मन चीनी खा जाता है। पानी तो वह एक छोटे सरोवर जितना खर्च कर लेता है।
साठ वर्ष जीने वाला मनुष्य 18 वर्ष सोने में, 14 साल काम करने में, 5 साल मटर गश्ती करने में, 4 साल पढ़ने में, 5 साल नित्य कर्मों में और 3 वर्ष बीमारी से कराहने में लगाता है। समय गवाने का अर्थ जीवन गंवाना है। 1 घंटा नित्य बरबाद करने का अर्थ होता है 50 साल की जिन्दगी में से ढाई वर्ष चौपट कर देना। 10 मिनट पुस्तक पढ़ने में लगायें जायें तो साठ वर्ष में वे 154 दिन होते हैं। इतने समय में 1 लाख 22 हजार पृष्ठों, का ज्ञान भण्डार मस्तिष्क में उतारा जा सकता है। कुछ ने करने वालों के लिए तो जिन्दगी इतनी भारी पड़ती है कि काटे से नहीं कटती।
अच्छा हो हम समय का मूल्य एवं महत्व समझें और उसका सदुपयोग करने की तत्परता प्रदर्शित करें। क्षण-क्षण बहूमूल्य है। हर क्षण का यथासंभव पूरा उपयोग मानवी दायित्वों के निर्वाह एवं स्वयं को ऊँचा उठाने के निमित्त करें।