भूल को सुधारने का ठीक यही समय!

November 1989

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समय की गति आमतौर से धीमी पवन की तरह मंद गति से चलती है। पर कभी-कभी आवेश की स्थिति में वह आँधी तूफान, चक्रवात की तरह अतिशय तीव्र होती हुई भी देखी गयी है। उस तीव्रता में न जाने कितना कितना उलट−पुलट हो जाता है। नदियों के प्रवाह की सामान्य गति रहने पर उन्हें तैर कर पार किया जा सकता है, पर जब वे उफान पर होती हैं तो भयंकर भँवर पड़ते हैं और वे नावों जहाजों को अपने कुचक्र में फँसाकर डुबा देते है। आदमी साधारणतया एक घंटे में चार मील की चाल से चलता है पर वायुयान जैसे वाहन मिल जाने पर घंटे में छः सौ मील की दूरी पार कर लेता है। आवेश में साधारण स्थिति का मनुष्य भी कई गुनी तेजी अपना लेता है और आश्चर्यजनक दौड़ लगाता है। इसी को यदि चाहे तो समय की चाल चलना बढ़ना भी कह सकते हैं। औसत क्रम से बीज को पेड़ बनने में समय लगता है पर यदि गहराई तक खोदकर अन्यत्र गड्ढे में लगा दिया जाय तो दूसरे ही दिन नये स्थान पर नया पेड़ इस प्रकार खड़ा हो जाता है, मानो वह कई वर्ष पुराना हो। इसे भी समय की चाल में गिना जा सकता है।

पिछले दो सहस्राब्दियों ने इतनी गति पकड़ी है जितनी कि लाखों वर्षों में नहीं बन पड़ी थी। विज्ञान के आविष्कारों को देखकर लगता है किसी बाजीगर ने अपना भानुमती का पिटारा खोलकर उसमें भरी सारी करामातों को कुछ ही क्षणों में सर्वत्र बिखेर दिया हो। आदिमकाल से लेकर लाखों वर्षों में मनुष्य जो कुछ हस्तगत कर सका था उसकी तुलना में इन दो शताब्दियों में उसने कम नहीं अधिक ही कर दिखाया है। ज्ञान के इतने क्षेत्रों में इतनी शाखाएँ अभी अभी विकसित हुई हैं जिन्हें देखकर लगता है कि जानकारियों के क्षेत्र में मनुष्य ने सारे संसार को, प्रकृति के रहस्यों को और दर्शन के गूढ़ तथ्यों को कुछ ही दिनों में अविज्ञात से ज्ञात बना दिया है।

पारसी, यहूदी, बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम धर्मों ने अपना विस्तार इतनी तेजी से किया है जितना कि पुरानी धार्मिकता लाखों वर्षों में यत्किंचित ही प्रगति कर सकी हो। बारूद का आविष्कार होने पर युद्धों का धरातल ही बदल गया। अब बिजली, रोशनी, गर्मी, ठंडक कुछ भी देने में समर्थ है। वह पंखा झलाती है। रेडियो के माध्यम से धरती के एक कोने का संवाद दूसरे कोने तक पहुँचाने में कुछ ही सेकेंड लगते है। उसे कुओं से पानी खींचते और भारी भरकम कारखाने चलाते हुए देखा जाता है। पूर्वकाल में इसकी किसी को कल्पना तक न थी।

रीति-रिवाजों में परम्पराओं में असाधारण परिवर्तन हुआ है। पुरातन वेशभूषा का स्थान पश्चिमी फैशन ने ले लिया है। राजतन्त्र की जड़े उखड़ गयीं और उसे स्थान पर प्रजातन्त्र आ खड़ा हुआ। सामंत, जमींदार, साहूकारों की कभी तूती बोलती थी, पर वे अब ऐतिहासिक प्राणी मात्र बनकर रह गये है। पर्दाप्रथा अब अपना अस्तित्व समेटती जाती है। जाति-पाति, ऊँच नीच, नर और नारी के बीच चलने वाले अन्तर अब अपनी आखिरी साँस गिन रहा है। साम्यवादी विचारधारा ने संसार के दो तिहाई लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है। अणु आविष्कार ने प्रकृति की महत्वपूर्ण शक्ति को हस्तगत कर लिया है। ग्रह उपग्रहों पर मनुष्य को भेजकर राकेट महत्वपूर्ण जानकारियाँ संग्रह करने में लगे है। रोबोट मनुष्य की प्रतिद्वन्द्विता कर रहे है। कम्प्यूटरों ने मानवी मस्तिष्क के अधिकाँश कार्य अपनी मुट्ठी में ले लिये है। परिवार नियोजन, शल्य चिकित्सा आदि के क्षेत्र में न जाने स्थिति कहाँ जा पहुँची है और भी न जाने कहाँ क्या-क्या हो रहा है जिन्हें देखकर हतप्रभ रह जाते है। प्राणियों की संकर प्रजातियों, वनस्पतियों के वर्णसंकर, स्वरूपों को देखकर लगता है कि पदार्थ की भाँति मनुष्य प्राणिजगत का भी भाग्य-विधाता बनकर रहेगा। यह सब काम इतनी तेजी से हुए हैं, जिन्हें देखते हुए लगता है कि अपना समय अत्यन्त द्रुतगामिता की चाल अपना रहा है।

जाने अनजाने ज्ञान को मनुष्य आमतौर से भूलता नहीं। द्रुतगामिता जब अपनी नियति बन गयी है। वाहनों की दौड़ को देखते हुए इसका सहज अनुभव लगाया जा सकता है। तथ्यों को देखते हुए निष्कर्ष पर पहुँचना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए कि अगले समय में भी ऐसा ही कुछ चलता रहेगा जो पिछले प्रचलन के स्थान पर नवीनता को स्थानापन्न करते हुए अपनी गतिशीलता को धीमी न पड़ने दें वरन् उसे और भी अधिक आगे बढ़ा दें।

घड़ी का पेण्डुलम एक सीमा तक ही आगे बढ़ता है। प्रकृति के नियम इसके बाद उसे वापस लौटने के लिए बाधित कर देते हैं। बचपन में मनुष्य की लम्बाई तेजी से बढ़ती है, पर वह कुछ ही समय पर ठहर जाती है और वह बढ़ोत्तरी समाप्त हो जाती है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि दूध का जला छाछ को भी फूँक कर पीता है। आग, साँप, बिजली आदि से क्या दुर्घटनाएं हो सकती है, इसे जान लेने के बाद फिर कोई उस गलती को नहीं दुहराता। ठोकर खाकर भी आदमी बहुत कुछ सीखता है।

पिछले दिनों की द्रुतगामिता ने अनेकों उपलब्धियाँ भी अर्जित की है। साथ ही ऐसी भूलें भी कम नहीं हुई हैं जिनके कारण सदा सर्वदा पछताना पड़ेगा और उन्हें सुधारने के लिए उससे अधिक प्रयत्न करना पड़ेगा जितना कि अत्याधिक पाने की दौड़ में समेटने बटोरने में अत्युत्साह दिखाया गया है। कारखानों द्वारा अत्यधिक उत्पादन करने की दौड़ में चिमनियों से निकलने वाला प्रदूषण इतना अधिक संचित हो गया है कि दम घुटने की बारी आ गयी है। कारखानों और शहरों का बेशुमार कचरा पड़ते रहने से नदियों का जल विषैला, अपेय होता जा रहा है। ऊर्जा के अधिक प्रयोग से वातावरण इतना गरम हो जाता है जिसे देखते हुए ध्रुवों की बर्फ पिघल जाने और समुद्रों में बाढ़ आने की विभीषिका दिल दहलाने लगती है। आकाश की ओजोन परत फटने पर पृथ्वी पर ब्रह्माण्डीय किरणें बेधड़क बरस सकती है और धरती के पदार्थों को चना-चबाने की तरह भूनकर रख सकती है। अणु शक्ति का प्रयोग परीक्षण तेजी से चल रहा है, पर यह सूझ नहीं पड़ता कि इन भट्टियों से निकली खतरनाक राख को कहाँ रखकर विकिरण से प्राण छुड़ाये जा सकेंगे।

जनसंख्या खेल-खेल में बढ़ती जा रही है पर उसके लिए निर्वाह के साधन जुटाना दूभर हो रहा है। वह विज्ञान का अभिशाप है जिसके कारण मनुष्य की जीवनीशक्ति बेतरह क्षीण होती जा रही है और वह अशक्त अपंग स्तर का बनकर रहने लगा है। कमजोरी और बीमारी सहज स्वभाव में सम्मिलित हो गयी है। शरीर में काम करने की और मस्तिष्क में सोचने की दूरदर्शिता दिन-दिन क्षीण होती जाती है लगता है कि कुछ समय उपरान्त मनुष्य अपनी मौलिक क्षमताएँ गँवाकर परावलम्बी स्तर का जीवन यापन करने लगेगा।

वैज्ञानिक दुरुपयोग से भी बढ़कर एक अनर्थ यह हुआ है कि मनुष्य ने अपनी मस्तिष्क गरिमा शालीनता से बुरी तरह मुँह मोड़ना आरंभ कर दिया है। मर्यादाओं के पालन और वर्जनाओं को मानने में आस्था घटती जाती है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में घुसता जा रहा प्रदूषण इतना भयावह है कि उनके कारण उत्पन्न होने वाली विकृतियों और समस्याओं का कोई अन्त ही नहीं है। पारस्परिक विश्वास उठता जा रहा है। मित्र द्वारा अपनाये गये शत्रुवत् व्यवहार की भरमार को देखते हुए प्रतीत होता है कि स्नेह सौजन्य, सहयोग का उदार व्यवहार कहीं कथा-कहानियों की तरह पोथी-पत्राओं में पढ़ी जाने वाली विडम्बनाओं की तरह मन बहलाने की चीजें बनकर तो नहीं रह रही है। इस दूसरे के प्रति बरते गये दुर्व्यवहार को देखते हुए आशंका होती है कि मैत्री पूरी तरह खतरे से भरी हुई है। दूसरी एक आफत यह भी है कि नितान्त एकाकी बनकर रहना भी तो कम असुविधाओं से भरा हुआ नहीं है। बेमौत मरना निश्चित ही कठिन है, पर आदर्शों से सर्वथा विहीन होकर जी सकना भी तो कम दुष्कर नहीं है। अर्धमृतक की तरह जी सकना भी शान्तिपूर्वक कहाँ बन पड़ता है?

आदर्शों का आच्छादन टूट जाने से सब और से विभीषिकाएँ ही टिड्डी दल की तरह दौड़ पड़ी है। अशान्त, अविश्वास और आशंकाग्रस्त मनुष्य सोते आक्रमण पल-पल पर होता रहता है। इस बेचैनी की हालत में स्थिति ऐसी नहीं रह जाती कि अपने समग्र चिन्तन, अपनी रीति-नीति, दिशाधारा के संबंध में कोई सुनिश्चित निर्णय किया जा सके। अनिश्चय की स्थिति में नीरसता और निष्ठुरता की मनोभूमि बनती है, जो मरघट में रहने वाले प्रेत-पिशाचों की तरह डराने और व्यथित कर देने के लिए बाधित करती है।

औसत मनुष्य की ऐसी ही विपन्न परिस्थिति है, जिसमें जीना और मरना दोनों ही कठिन हो रहा है। आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, अनुशासन की अवमानना, नीरसता, निरुद्देश्य जीवनयापन का सम्मिलित माहौल ऐसा बनता जा रहा है, जिसमें किसी प्रकार घुटन भरा जीवन ही जिया जा सकता है। गम गलत करने के लिए नशेबाजी, आवारागर्दी जैसे दुर्व्यसन अपनाने पड़ते है। उपलब्धियों का दुरुपयोग न केवल पदार्थों का अपहरण कर वरन् गुण, कर्म, स्वभाव जैसी प्रवृत्तियाँ भी सीधी राह छोड़कर उलटे कदम पीछे की ओर ही लौट आती है। मानवी स्तर का पराक्रम और पशु-पिशाच स्तर की अवधारणा ही व्यवहार में उतरती जाती है। एक दूसरे को ठगने के लिए सज्जनता का लिबास तो बहुत लोग ओढ़ते हैं पर जिनकी कथनी और करनी मानवी मर्यादाओं के अनुरूप हो ऐसे कहीं कोई .... ही दीख पड़ते है।

इन परिस्थितियों में वैयक्तिक और सामाजिक जीवन कैसा गया गुजरा हो गया है, इसका अनुमान लगाने की आवश्यकता नहीं है। अपने चारों ओर बिखरे वातावरण में यही सब आसानी से छाया हुआ देखा जा सकता है।

मनःस्थिति में विषाक्तता भर जाने पर परिस्थितियाँ विभीषिकाओं से भरी पूरी होना नितान्त स्वाभाविक है। अपराधों और छद्मों की बाढ़ इसी कारण आती है। विषैले तालाब में मछली किस प्रकार जियें? घुटन भरे वातावरण में मनुष्य किस प्रकार शान्तिपूर्वक जिये?

पदार्थ विज्ञान और प्रत्यक्षवादी बुद्धिवाद ने एक हाथ से जो कुछ दिया है उसे दूसरे हाथ से दुष्प्रवृत्ति ने बढ़कर छीन भी तो लिया है। ऐसी दशा में अपनी स्थिति पर सोचने वाले मनुष्य यही निष्कर्ष निकालते हैं कि उनने प्रगति के नाम पर अनीति को ही अपनाया। बुद्धिमानी के अहंकार में उसने झाड़ झंखाड़ भरी भूल भुलैया का विस्तार ही अपनाया है। ऐसी स्थिति में चैन कहाँ? शान्ति कैसी?

गिनती गिनना भूल जाने पर फिर दुबारा से उसे गिनना पड़ता है। रास्ता भटक जाने पर फिर वापस लौटना पड़ता है। इसके बिना और कोई चारा नहीं। जिस तेजी से हम आगे बढ़े हैं उसी तेजी से वापस भी लौटना पड़ेगा। जो परिस्थितियाँ आज सामने हैं उसे सुधारने के लिए उतनी ही तेजी अपनानी पड़ेगी। भूल को सुधारने का ठीक यही समय है, अन्यथा जिस अवाँछनीयता को पिछले दिनों अपनाया गया था, उसी पर और भी आगे चलते रहा गया तो स्थिति ऐसी आ .... कि प्रायश्चित बन पड़ना .... होगा।


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