‘प्रतिभा’ ही तो युग की आवाजें सुन पाती है। ‘प्रतिभा’ ही तो युग-पीड़ा आवाज लगाती है।1।
उसको स्वयं प्रजापति ने आह्वान सुनाया था॥ ऋषि-दधीचि की प्रतिभा का द्वारा खटकाया था॥
ऋषि-दधीचि की प्रतिभा ने ने आवाज सुनी युग की। ‘प्रतिभा’ बज्र बन गई, तोड़ी रीढ़ वृत्रासुर की॥
‘प्रतिभा’ ही तो जनहिताय, सर्वस्य चढ़ाती है॥ ‘प्रतिभा’ को ही युग-पीड़ा आवाज लगाती है।2।
त्रेता ने भी उसको ही, आवाज लगाई थी। प्राणवान-प्रतिभा, सुनकर के दौड़ी आई थी॥
रामभक्त, हनुमान, उछलकर आगे आये थे। वानर, रीछ, जटायु सभी ने हाथ बँटाये थे॥
‘प्रतिभा’ तो हो कहीं, उभर कर आगे आती है। ‘प्रतिभा’ को ही युग-पीड़ा, आवाज लगाती है।3।
वर्तमान-युग भीषण-विपदाओं को मारा है। ‘प्रतिभाओं’ को युग-पीड़ा ने फिर ललकारा है॥
जो आगे आयेंगे, वे इतिहास बनायेंगे। और मनुज संस्कृति के संरक्षक कहलायेंगे॥
अरे! ध्वंस की दृष्टि, सृजन पर घात लगाती है। ‘प्रतिभा’ को ही युग-पीड़ा इन क्षणों बुलाती है।4।
-मंगल विजय
यदि चले नहीं तो