मन की निर्द्वन्द और निश्चिन्त स्थिति

November 1989

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आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में एक ही सबसे बड़ी भूल होती है कि हम अपने आप को भूल जाते हैं और पराये को अपना समझने गलते हैं। ऐसी गलती कभी-कभी भूत पलीतों के आवेश में होती है। जिस पर वह आदेश आता है वह अपने मुँह से कुछ कहता और कुछ बताता है। ऐसी अटपटी बातें कहता, है जो उस व्यक्ति के काम की तनिक भी नहीं होतीं, भूत के काम की भले ही हों। इसी प्रकार ज्वर की तीव्रता में जब मनुष्य बेचैन विकल हो जाता है तब ऐसी बातें कहता है जिसे बकवास ही कहा जा सकता है। क्रोध के आवेश में भी लोग ऐसे ही गाली गलौज देते हैं जिन्हें बज्रमूर्खता की संज्ञा दी जा सकती है। शराब पीकर उन्मादी व्यक्ति ही ऐसे वचन बोलता और ऐसे ही कृत्य करता है।

माया को भी एक प्रकार का उन्माद माना गया है। उसकी छाया जिस पर जितनी गहरी पड़ती है। उसकी छाया जिस पर जितनी गहरी पड़ती है, वह उतना ही असंगत अव्यावहारिक और अवास्तविक बन जाता है। सबसे बड़ी भूल यह होती है कि आत्मा को शरीर और शरीर को आत्मा माने लगता है। फलस्वरूप सारा चिन्तन और क्रिया-कलाप गड़बड़ा जाता है।

शरीर वाहन अथवा उपकरण है। आत्मा स्वामी, ईश्वर का पुत्र या प्रतिनिधि। आत्मा को कुछ महत्वपूर्ण कार्य सौंपे गए हैं और विश्वास दिलाया गया है कि इन प्रयासों को यदि ठीक तरह किया जा सके तो इनके परिणाम स्वरूप अगले दिनों उच्चस्तरीय पदोन्नति होगी। इसके अतिरिक्त शरीर ऐसा दिया गया है जैसा कि किसी और प्राणी के पास नहीं है। यह अनुकम्पा इसलिए की गई है कि जो कार्य उच्च श्रेणी के सौंपे गए हैं उन सब को ठीक प्रकार किया जा सके। शरीर और मस्तिष्क तथा उपलब्ध सुविधा, साधन यदि इस स्तर के न मिले होते तो शायद मनुष्य इतना कुछ कर नहीं पाता जितना कि करना चाहिए। अपना अंश आत्मा के रूप में और अद्भुत संरचना वाले शरीर तथा मस्तिष्क को देकर भगवान ने कम अनुग्रह नहीं किया है।

भूल यह हो जाती है कि शरीर की वासना और मन की तृष्णा इतना बलवती हो उठती है कि उन्हें पूरा करने के लिए पूरा समय, श्रम, मनोयोग खप जाता है। लगता है हम शरीर ही हैं। जो शारीरिक स्वार्थ हैं वे ही हमारे स्वार्थ हैं। शरीर में भूख भौतिक आवश्यकता अन्न, वस्त्र और आच्छादन हैं। मन का प्रवाह जब ज्ञानेन्द्रियों की ओर बहने लगता है तो उनकी स्थिति भी यही होती है कि अनेक तरह के दृश्य, स्वाद, स्पर्श माँगने लगती है। उनकी पूर्ति के लिए व्याकुलता होती है तो उसे वासना कहते हैं। शरीर के ही एक भाग मन की उमंगे लोभ, मोह और अहंकार के रूप में उफनती रहती हैं। जब सब मिलकर इतना बड़ा जाल जंजाल खड़ा जो जाता है कि शरीर और मन की इच्छायें पूरी करने में ही जीवन का समूचा सारतत्त्व खप जाता है।

वह मूल प्रयोजन उपेक्षित विस्मृत ही पड़ा रहता है जिसके लिए असाधारण अनुग्रह के रूप में भगवान ने अपनी सर्वोपरि कलाकृति किसी महान प्रयोजन की पूर्ति के लिए प्रदान की हैं। इतना ही नहीं मद्यप की तरह प्रायः आत्मा की, आत्मा के लक्ष्य और जीवन प्रयोजन की बात ही विस्मृत होती है। धीमी आवाज से वह अपनी सत्ता, महत्ता और आवश्यकता को बताती तो है फिर ऐसा हो जाता है कि उसे ठुकराने, कुचलने, अनसुनी करने की ही खुमारी चढ़ी रहती हैं।

दोनों स्थितियों में जीवन आसमान जैसा अन्तर है। शरीर को ही अपना स्वरूप और उसकी इच्छाओं को ही अपना स्वार्थ मान लेने पर फिर निरंतर यही धुन सवार रहती है कि शरीर को सुखी, सुन्दर, सुसज्जित, प्रख्यात करने के लिए जो कुछ बन पड़े वह सब कुछ कर गुजरा जाये।

शरीर की आवश्यकताऐं तो थोड़े से साधनों से ही पूरी हो जाती हैं। फिर चार मुठ्ठी अनाज, कपड़ा आच्छादन इन सब व्यवस्था बनाने में न बहुत समय की आवश्यकता होती है न श्रम की न साधनों की। छोटे परिवार को भी स्वावलंबी सुसंस्कारी बनाने में अधिक ध्यान नहीं देना पड़ता। चोरी, चालाकी के दंदफन्द सिखाने के लिए अवश्य इस प्रकार के अनेकों दाँव पेच बताने पड़ते हैं, पर सज्जनोचित सादगी का जीवन जीने के लिए परिवार को ढाल लेना भी किसी मनस्वी और आत्मवान के लिए कठिन नहीं पड़ना चाहिए। यह कार्य ऐसे हैं जो ध्यान एवं समय का छोटा भाग लगाते रहने भर से ढर्रे की तरह सारे काम चलते रह सकते हैं। इन सब का इतना दबाव नहीं पड़ता कि आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका ठीक एक क्रमबद्ध कार्यक्रम तैयार न हो सके।

आत्मिक प्रगति से ईश्वर की इच्छा और अनुकम्पा जुड़ी हुई है। उन कार्यों में मन का अधिक भाग खर्च हो जाता है तो साँसारिक प्रयोजनों के लिए समय ही नहीं बचता। ईश्वर की प्राप्ति का सीधा सा मार्ग है उसके साथ अपनी एकात्मता अनुभव करना, उसके प्रति अपना समग्र समर्पण करना, उसे सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय मानना और उन दिव्य विभूतियों को अपने अन्तराल की गहराई में धारण करना ताकि इच्छायें प्रेरणायें उसी स्तर की उभरें। कार्य पद्धति उसी ढाँचे में ढल चले। मनःस्तर इस प्रकार का बनाने के लिए ही पूजा पाठ के जप,तप के कतिपय कर्मकाण्ड करने पड़ते हैं। इन कृत्यों के सहारे एकाग्रता तो नहीं पर एक दिशा अवश्य मिलती है। उससे भी विचारों की दिशाविहीन भगदड़ पर अंकुश अवश्य लगता है। विचारविहीन दिशा वाली मनःस्थिति पर नए संस्कारों का आरोपण सरल पड़ता है। जिन प्रसंगों की ओर ध्यान ही नहीं जाता उनकी और चिन्तन मनन की सुविधा होती है पर इसके लिए मन को फुरसत तो मिलनी चाहिए। लालसा जिज्ञासाओं से उसे छुटकारा तो मिलना चाहिए। यह कार्य ईश्वर का सान्निध्य स्थापित कर लेने के उपरान्त ही बन पड़ता है।

उपासना के उपरान्त साधना का ही नम्बर आता है। साधना का तात्पर्य अपने आपके कुसंस्कारों दोष-दुर्गुणों का परिशोधन परिमार्जन और उसके स्थान पर सज्जनता सदाशयता का संस्थापन। आमतौर से अपने दोष-दुर्गुण सूझ नहीं पड़ते आँखें बाहर की वस्तुऐं ही देख पाती हैं। भीतरी क्षेत्र को देख सकने की उसमें क्षमता नहीं है। यह कार्य विवेक बुद्धि को अन्तर्मुखी होकर करना पड़ता है। आत्मनिरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास इन चार विषयों को कठोर समीक्षण परीक्षण की दृष्टि से अपने आप को हर कसौटी पर परखना चाहिए। जो दोष दीख पड़े उनके निराकरण के लिए और उनके ठीक प्रतिकूल उच्च चिन्तन, आदर्श चरित्र एवं सद्व्यवहार का स्वभाव बना लेने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने से मन की घुड़दौड़ बन्द हो जाती है। विचार विहीन उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त होती है। मन का इस स्थिति में होना उसका वास्तविक परिशोधन है। सर्वथा विचार विहीन मनःस्थिति तो समाधि स्थिति में ही बन पड़ती है। वह समय साध्य और बहुत आगे की बात है।


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