क्षुद्रता अपनाने से हानि ही हानि!

November 1989

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपने पन को छोटा करते-करते क्षुद्रता इतनी बढ़ जाती है कि मात्र विलास तक ही मनुष्य की सत्ता सीमाबद्ध होकर रह जाती है। इतने भर के लिए वह अपने पेट को, इन्द्रियों को स्वास्थ्य तथा दीर्घजीवन तक को तोड़कर रख देता है। क्षुद्रताग्रस्त विचारों की भरमार से मस्तिष्क श्मशान की तरह मनोविकारों की चिंता में जलता रहता है। आनन्द और उल्लास के भाव भरे सुमन जिस उद्यान में खिले रह सकते हैं और सम्बद्ध वातावरण को सुरम्य बनाये रह सकते हैं, उस नन्दनवन में पतझड़ की स्थिति उत्पन्न करने में क्षुद्रता का हिमपात ही प्रधान कारण होता है।

क्षुद्रता न पत्नी को विकसित होने देती है, न बच्चों को सुसंस्कृत बनने देती है। वयोवृद्धों को सम्मान देने में और उनका दुलार पाने में न तो वस्तुएँ कम पड़ती हैं, न अवकाश की ही कमी रहती है। ओछेपन और उपेक्षा भरे बरताव के कारण ही छोटों और बड़ों के बीच खाई बनी रहती है। वयस्कों में पारस्परिक सद्भाव और सहयोग न बन पाता है, न बढ़ पाता है। परिवार की इस विपन्न स्थिति में क्षुद्रता का बढ़ा हुआ स्वरूप ही प्रधान कारण पाया जाता है।

हर व्यक्ति अपने संपर्क क्षेत्र में सम्मान और विश्वास का पात्र बनकर भावभरा सहयोग प्राप्त कर सकता है। उदारमना लोगों के लिए यह सारा संसार उदार है। सज्जनता की प्रतिक्रिया सज्जनोचित सहायता के रूप में वापस लौट आती है। सहृदय व्यक्ति सेवा की नीति अपनाकर जो खोते हैं, उससे अनेक गुना प्राप्त कर लेते हैं। क्षुद्रता देखने भर में लाभदायक प्रतीत होती है और उससे स्वार्थ सधता लगता है, पर वस्तुतः उसकी हानि अपार है। उसे अपनाकर मनुष्य न केवल छोटा और बौना रह जाता है वरन् हानि, विपत्ति तथा प्रताड़ना का भी भाजन बनता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles