दो प्रचण्ड शक्तियों का समन्वय

November 1989

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विज्ञान को शक्तिपुँज कहा जा सकता है, पर वह जड़ पदार्थों से विनिर्मित होने के कारण विवेक शून्य स्तर का है। स्वच्छन्दता मिलन पर वह ऐसा भी कर बैठ सकता है, जिससे भारी हानि उठानी पड़ और पछताते हुए शिर धुनना पड़े। चूल्हे की चिनगारी को उचटने का अवसर मिल जाय तो वह अपने घर का छप्पर ही नहीं जलायेगी वरन् पास पड़ोस को चपेट में लेते हुए पूरे गाँव को भस्मसात करके रहेगी। इसलिए आग को सतर्कतापूर्वक ढक कर रखा जाता है।

समर्थता अच्छी बात है पर उसके साथ सदुपयोग करने और सुरक्षा बनाए रखने की शर्त अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है, अन्यथा खतरा ही खतरा मँडराता रहेगा। धन दौलत को जहाँ तहाँ पड़ी रहने देने पर चोर डाकुओं का आक्रमण हुए बिना नहीं रह सकता। अस्त्र शस्त्रों को लूट ले जाने की घात में भी लुटेरे रहते है इसलिए उनकी सुरक्षा की व्यवस्था की जाती है। बिक्री पर लाइसेन्स रहता है। मादक पदार्थों के सेवन की भी खुली छूट नहीं रहती। कारण कि ये सब असाधारण शक्तिशाली होते हैं और बारूद के भड़क उठने पर उत्पन्न होने वाले विनाश की तरह संकट खड़े करते हैं।

भौतिक विज्ञान और उनके सशक्त उत्पादनों का लाभ तभी है जब उनके ऊपर दूरदर्शी प्रयोक्ता का समुचित अंकुश-नियंत्रण हो। अन्यथा असुरक्षित छोड़ देने पर लाभ के स्थान पर हानि सहने का संकट ही सहन करना होगा। भूल यहीं हुई है और हो रही है। समर्थ होने के अहंकार ने अपने आप को सर्वत्र स्वतन्त्र मान लिया है। उसके ऊपर नियन्त्रण की भी आवश्यकता है, यह किसी ने अनुभव नहीं किया। फलस्वरूप स्वच्छन्दता इस कदर बढ़ गयी कि विज्ञान ने पदार्थ सम्पदा की उधेड़-बुन करते रहने तक सीमित न रहकर तत्वदर्शन को भी अपने ढाँचे में ढालना आरंभ कर दिया।

दर्शन के क्षेत्र में विज्ञान का हस्तक्षेप बढ़ने का प्रतिफल लगभग नास्तिकता जैसा हुआ है। प्राणी को जब पदार्थ मात्र मान लिया गया तो उस पर भी जड़ नियम लागू करने की बात सोचना स्वाभाविक है। ऐसी दशा में चेतना की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती तो उस पर उन कर्तव्यों और दायित्वों का आरोपण कैसे किया जाय जो भाव संवेदना, उदारता, परमार्थ परायणता, सेवा, सद्भावना, शालीनता, संयम जैसी दिव्य विभूतियों से सम्बन्धित हैं यदि इन्हें अनावश्यक ठहरा दिया जाय तो मानवी मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं का अनुशासन मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। ऐसी दशा में समाजनिष्ठ और परस्पर आदान प्रदान पर निर्भर मानवी सत्ता की चारित्रिक उत्कृष्टता को मान्यता मिलना कठिन हो जायगा।

सम्प्रति संव्याप्त विपत्तियों, समस्याओं, विडम्बनाओं और अनिष्ट आशंकाओं के मूल में एक ही कारण है मनुष्य के स्तर में निकृष्टता का समावेश। उसकी कृतियाँ संसार में स्वर्ग भी उतार सकती है और देखते देखते नरक का माहौल भी बन सकती हैं। यदि संसार को सुखी समुन्नत बनाना है तो प्रधानतया एक ही उपाय अपनाना होगा- उसे सुसंस्कृत बनाना, शालीनता अपनाने के लिए भावना स्तर पर तैयार करना। यह कैसे बन पड़े? इसके उत्तर में एक ही बात कही जा सकती है कि उसके दृष्टिकोण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश कर सकने वाले तत्वदर्शन को अपनाने के लिए उसके अन्तराल को सहमत किया जाय। अन्तराल की गहराई में अनाचार का पक्षधर अविवेक पहले से ही जड़ जमाये बैठा होता है। उखाड़ना इसी क्षेत्र में जमी हुई जड़ों को है। परिवर्तन उस दृष्टिकोण का किया जाना है, जिसका स्थायित्व आस्थाओं और भावनाओं से सम्बन्धित है।

यह हेर फेर जीवन दर्शन आस्थाओं के अभ्यास और स्वभाव पर प्रचलन के प्रभाव पर निर्भर है। इसके लिए अध्यात्मक पर मान्यताओं, आस्थाओं और आदतों को स्वभाव में सम्मिलित करना होगा। यही है व्यक्तित्व के स्तर का मूलभूत आधार। इसी को परिष्कृत करने के लिए अध्यात्म का समग्र ताना बाना बुना गया है। इस भाव संवेदना में जिस आधार पर उत्कृष्टता का मानवी गरिमा के अनुरूप किया जा सके, उसी आस्था नियोजन के आधार पर व्यक्ति के गुण कर्म और स्वभाव का निर्माण होता है। यही है वह मेरुदण्ड जिसके सही सीधा होने पर कोई सीधा खड़ा होने और तनकर चलने में समर्थ हो सकता है।

इस तथ्य को इतिहास और वर्तमान के जन स्तर पर दृष्टिपात करके भली प्रकार जाना जा सकता है कि ऊँचे दृष्टिकोण एवं अच्छे स्वभाव के कारण ही लोग सर्वसाधारण की दृष्टि में अपने को प्रामाणिक एवं विश्वास सिद्ध कर पाते है। ऊँचा उठने, आगे बढ़ने और सफलताएँ अर्जित करने का यही मार्ग है। इसी विशिष्टता के आधार पर कोई महामानव स्तर के अपना और अन्यान्यों का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ स्तर के कार्य कर पाता है। इस प्रकार अध्यात्मक का अवलम्बन प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हर किसी के लिए लाभदायक ही सिद्ध होता है। नीति निष्ठा अपनाये रहने पर आत्मसंतोष का, हलके फुलके प्रसन्न चित्त बने रहने का लाभ मिलता है। उसी में वह शक्ति होती है कि अपने अनुकरण से संपर्क क्षेत्र वालों को अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बना सकने में समर्थ हो सके। संसार के हर क्षेत्र की चिरस्थायी और दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न कर सकने वाली मनःस्थिति और परिस्थिति हाथ लगती है। दूसरों को सुधारना समझाना भी ऐसे ही लोगों के लिए संभव है उसी का परामर्श विश्वस्त समझा जाता है जो अपनी कथनी और करनी को एक कर चुका हो। व्यक्तित्व को इस स्तर का बना सकना मात्र उन्हीं क लिए संभव हो सकता है, जिन ने मानवी गरिमा के साथ जुड़े हुए नीतिनिष्ठ, सामाजिक एवं आदर्शनिष्ठ तत्वज्ञान को चिन्तन और चरित्र में गहराई तक स्थापित किया है। इस प्रकार आस्था संस्थान को उत्कृष्ट बना लेना हर किसी के लिए हर प्रकार लाभदायक सिद्ध होता है। समझा जाना चाहिए कि अध्यात्म तत्वदर्शन से संबंधित अनेकानेक प्रतिपादन, अनुभव एवं कर्मकाण्ड इसी उद्देश्य को लेकर बनाये गये हैं जो लोक और परलोक को प्रत्यक्ष और परोक्ष हर कसौटी पर बहूमूल्य सिद्ध करने में समर्थ होते है। जिस आस्था संकट ने अनेकानेक समस्याओं, उलझनों, विपत्तियों, विडंबनाओं और आशंकाओं को जन्म दिया है उन्हें निरस्त करने का वास्तविक उपाय यही है कि लोकमानस को आदर्शवादी निष्ठाओं से अनुप्राणित किया जाय। हर किसी का हर प्रकार कल्याण इसी अवलम्बन को अपनाने में है।

विज्ञान ने सत्य की शोध को लक्ष्य बनाया है। जब भी भूल मालूम हुई है उसे सुधारा है। जो हस्तगत हुआ है उसे आत्यंतिक सत्य न मानकर आगे भी खोज चलते रहने की उपयोगिता को स्वीकार किया है। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर उसने इतनी प्रगति की है और भविष्य में भी और भी अधिक कर गुजरने की संभावना है। यही तथ्य यदि अध्यात्म क्षेत्र में अपनाया गया होता और सत्य के अधिक निकट पहुँचने के लिए आग्रह रहित मानस बनाकर रखा गया तो क्रमशः निखार आता चलता और अध्यात्म में भी वह विश्वास मिला होता तो विज्ञान की उपलब्धि है।

अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को भौतिक और आत्मिक प्रगति का संतुलन बिठाने, मिल-जुलकर काम करने के लिए सहमत किया जाय। वैसे ही प्रचलनों को जन्म दिया जाय। सत्य की शोध के लिए दोनों में समान रूप से उत्साह रहे संभव सत्प्रगति के मार्ग में किन्हीं भी पूर्वाग्रहों को बाधक न बनने दिया जाय। इसी में सबका सब प्रकार कल्याण है।


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