अशान्ति के क्षणों में शान्ति का आह्वान

November 1989

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मस्तिष्क समूचे काय तंत्र का संचालक है। विचारणाओं का उद्गम केन्द्र भी यही है। शाँत और प्रसन्न मन जहाँ प्रगति का अभ्युदय का द्वार खोलता है, वहीं चिंतित, अशान्त और उद्विग्न मस्तिष्क अनेकानेक विपदायें खड़ी करता है। मनोमालिन्य बढ़ाने से लेकर विनाश के पथ पर चल पड़ने तक को विवश करता है। विचार तंत्र के लड़खड़ा जाने पर कभी-कभी गलती नाम मात्र की होने पर या भ्रमवश कुछ का कुछ समझ बैठने पर भी ऐसी उत्तेजना नशे की तरह आ दबोचती है और जब तक शान्त नहीं होती जब तक कि अपने आपको पूरी तरह थका कर निढाल नहीं कर देती है। इतना ही नहीं यदि मस्तिष्क सतत् उत्तेजित एवं तनावग्रस्त बना रहे तो आँतों के अल्सर से लेकर पक्षाघात, हृदयाघात जैसी प्राण संकट की स्थितियाँ भी सम्मुख आ धमकती है। अतः हर विचारशील को उत्तेजना उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से बचना और वास्तविक कारणों को समझते हुए अपना मानसोपचार संकल्प शक्ति के सहारे स्वयं ही करना चाहिए।

उद्विग्न मस्तिष्क का शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत ही घातक प्रभाव पड़ता है। मनोचिकित्सा विज्ञानियों ने भी अब इसकी पुष्टि कर दी है। अतः यदि ऐसी स्थिति का सामना करना पड़े तो विचारों से विचारों को काटना चाहिए। खीज के स्थान पर शान्ति और समस्वरता उत्पन्न करने वाले विचारों को आमंत्रित करना चाहिए जो ध्यान बटा सकें, उत्साह बढ़ा सकें। मस्तिष्क एक कार्यकारी यंत्र के रूप में कार्य करता है। उसमें जो भरा जायगा-परिणति भी तदनुरूप ही परिलक्षित होगी। उसमें उत्पन्न हुई कोई भी योजना प्रभावकारी तभी बनती है जब वह शारीरिक क्रियाओं द्वारा कार्य रूप में परिणत की जावे। सर्वप्रथम किसी वस्तुतः को देखकर मन में विचारों की तरंगें उत्पन्न होती हैं, तदुपरान्त शरीर को क्रिया करने का निर्देश मिलता है। स्नायुतंत्र एवं माँसपेशियाँ सक्रिय हो उठती है। विवेक को जीवंत बनाये रखने और बरतने पर अनुपयुक्तता से बचा जा सकता है। इसके लिए जिन विचारों के कारण आशंका, निराशा, या उद्विग्नता उत्पन्न हुई तो, ठीक उसके प्रतिकूल विचारों को उत्पन्न किया जाय। सोचा जाय कि विपत्ति टल गई या टलने जा रही है। बादल साफ होने पर जिस प्रकार आकाश स्वच्छ होता है, समझना चाहिए कि उसी प्रकार अपने को दबोच हुए खिन्नता- विपन्नता का वातावरण बदल जायगा। सृजनात्मक सुखद उज्ज्वल भविष्य के अनुकूलता से भरे मानस चित्र बनाया अर्थात् “माइण्ड पिक्चरिंग” “इमेजिंग” एक ऐसी कला है जिसका अभ्यास होने पर वास्तविक कठिनाइयों के बीच भी मनुष्य अपना धैर्य-साहस बनाये रह सकता है। वह उपाय ढूँढ़ सकता है जो ऐसी दशा में सहायता कर सकें, सहायक सिद्ध हो सकें।

वस्तुतः मानसिक उद्विग्नता, तनाव आधि−व्याधियां और कुछ नहीं चिन्तन की दिशाधारा गड़बड़ा जाना भर है। कभी-कभी काम की अधिकता तथा चिन्तन के पटरी से उतर जाने से यह विपत्ति आ सवार होती है। प्रतिकूलताएँ तथा अनचाही घटनाएँ भी इसका कारण हो सकती है, किन्तु असन्तोषजनक को सर्वथा रोक सकना किसी के बस की बात नहीं है पर मानसिक लचीलेपन से हम हर परिस्थिति में तनाव मुक्त रह सकते है। इसके लिए मन को प्रशिक्षित करना पड़ता है। शिथिलीकरण मुद्रा का शवासन का अभ्यास ऐसा है जिसे आसानी से सीखा जा सकता है।

सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विल्फ्रिड नार्थफील्ड ने अपनी कृति-”क्योरिंग नर्वस टेन्शन” में मस्तिष्कीय उद्विग्नता को शान्त करने तनाव रहित बनाने के लिए रिलैक्सेशन अर्थात् शिथिलीकरण पर जोर दिया है। उनका कहना है कि मानवी काया की प्रकृति सदैव अपने सामान्य स्थिति में रहने की है। यही कारण है कि अपने अन्दर होने वाली छोटी-मोटी गड़बड़ियों की मरम्मत वह स्वतः करती रहती है। विश्रान्ति काल का निर्धारण इसीलिए किया गया है जिसमें मनुष्य अपनी खोई हुई शक्ति की पुनर्स्थापना कर ले।

दूसरा कारण है श्वास का आधा अधूरा उथला प्रयोग। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति श्वास-प्रश्वास के प्रति लापरवाह होता है और हल्की एवं आधी साँसों से ही काम चलता है। परिणाम स्वरूप न तो फेफड़े सम्पूर्ण क्षमता एवं दक्षता से कार्य कर पाते हैं और नहीं स्नायु मण्डल को प्राणवायु की परिपूर्ण मात्रा मिल पाती है। पर्याप्त आक्सीजन न मिल पाने के कारण उनमें जमी विषाक्तता दूर नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में मस्तिष्क का गड़बड़ा जाना स्वाभाविक है। छोटी से प्रतिकूलता .... उपस्थित होने पर भी वह अशान्त हो उठता हैं न सोचने योग्य चिंतन करते तथा न करने योग्य कदम उठाते हुए प्रायः इन्हीं दशाओं में लोगों को देखा जाता है। मनोवैज्ञानिक इसका निवारण उपचार गहरे एवं नियन्त्रित श्वसन में खोजते है। उनका कहना है कि श्वास लेना और मस्तिष्क का कार्यरत रहना एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इनमें से एक को प्रशिक्षणपूर्वक नियंत्रित .... पर दूसरे को सही दिशा में चलने के लिए अभ्यस्त किया जा सकता है।

किन्तु गहरी साँस लेना “डीप ब्रीदिंग” की प्रक्रिया ऐसी है जिसे हर कोई कभी भी कर सकता है। सुबह व्यायाम करते या टहलते समय दफ्तरों में विश्राम के क्षणों में शरीर और मन को शिथिलता कर गहरी साँस खींचने और छोड़ने का अभ्यास ऐसा है जिससे शरीर और मन दोनों ही तरोताजा हो जाते है। इससे न केवल शारीरिक थकान मिटती है वरन् मानसिक स्फूर्ति और सक्रियता का लाभ भी मिलता है।

“हाउ टू रिलैक्स” नामक पुस्तक में मनोविज्ञानी विल्फ्रिड नार्थ फील्ड तनाव शैथिल्य की एक अन्य सरल विधि का वर्णन करते हुए लिखते है कि कुर्सी पर बैठकर अथवा किसी आरामदायक स्थान पर लेटकर धीरे-धीरे साँस खींचें और भावनापूर्वक सम्पूर्ण काया को प्राण ऊर्जा से भरा हुआ अनुभव करें। पैरों के अग्रभाग से लेकर प्रत्येक माँसपेशियों पर प्राण प्रवाह बिखरते हुए मस्तिष्क मध्य तक उसे प्रसारित करना चाहिए और तब प्रत्येक अवयव का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करते हुए उसे विश्राम दें ताकि तनावग्रस्त माँसपेशियाँ ढीली पड़ जायँ। पूरे शरीर को इस तरह तनाव रहित करने के उपरान्त उलटे क्रम से नीचे तक पुनः संकल्प पूर्वक खींची गई प्राण ऊर्जा का प्रवाह बहने देने का विश्वास किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में एक मिनट का समय लगता है। आरंभ पाँच मिनट से करके इसे 15 मिनट तक क्रमशः पहुँचाया जा सकता हैं इस तरह सम्पूर्ण कायातंत्र विश्राम की स्थिति में पहुँच जायगा।

नियमित रूप से प्रतिदिन उपरोक्त विश्रान्ति व्यायाम करते रहने से आध्यात्मिक मानसिक रूप से स्वस्थ बनने की संकल्पना निश्चित रूप से सफल होती है। मानवी मस्तिष्क एक क्रम चाहता है। उसे आदत अच्छी लगती है, उचित अथवा अनुचित चाहे कोई क्यों न हो?

अपना अस्तित्व और भविष्य ईश्वर के हाथों सुरक्षित मानने की भावना ऐसी है जिसे अपनाये रहने और बढ़ाते चलने में हर कोई निश्चिंतता प्राप्त कर सकता है। उल्लसित रहने के लिए छोटे उपायों का अवलम्बन भी बहुमूल्य औषधियों-उपचारों की तुलना में अधिक सन्तोषप्रद परिणाम उपस्थित कर सकता हे। अमेरिका के मूर्धन्य मनोवेत्ता विलियम जेम्स भी अपनी कृति “द गास्पिल आफ रिलैक्सेशन” में यही बात दुहराते हैं कि मानसिक चिन्ताओं- अशान्तियों से मुक्ति पाने में इससे बड़ी कोई औषधि नहीं कि अपने को नियन्ता के हाथों सौंपकर निश्चिन्त हो जाया जाय।


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