ईश प्रार्थना में निहित चुम्बकीय शक्ति

November 1989

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मनुष्य की शक्ति सामर्थ्य आकूत एवं अपरिमित है, पर है वह प्रसुप्त अवस्था में, अन्तराल की गुहा में दबी हुई। उसे उभारने विकसित करने और लोकोपयोगी बनाने की कल ज्ञात हो सके, तो हर कोई महानता की जीवित प्रतिमूर्ति बन सकता है। शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक ऊर्जा के उन्नयन में, ओजस्, तेजस्, ब्रह्मवर्चस् की अभिवृद्धि में ईश्वर-प्रार्थना, ध्यान साधना के महत्वपूर्ण योगदान की चर्चा अध्यात्म-वेताओं ने की है। प्रार्थना वह प्रचण्ड चुम्बकत्व है, जो दैवी सहायता का अपने समीप खींच बुलाती और अभीष्ट स्तर का परिणाम प्रस्तुत करती है। अमेरिका निवासी चार्ल्स फिल्मोर शारीरिक दृष्टि से अशक्त थे। बचपन में स्केटिंग खेलते समय कूल्हे की हड्डी अपने स्थान से हट गई थी। अनेक तरह की चिकित्सा के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हुए और एक पैर से लँगड़े हो गये। इस प्रकार की और भी शारीरिक अशक्तताएं थी। चिकित्सा की असफलता के बाद भी वह निराश नहीं हुए।

उनका विश्वास था कि मानव जीवन किसी महान उद्देश्य के लिए है। अतः उसका रूप अवश्य ही भव्य होना चाहिए। उन्होंने स्वयं अनुभव किया कि मानव जीवन मूलतः असुन्दर नहीं सुन्दर है ओर उसे सदा आनन्द से परिपूर्ण रहना चाहिए। यदि मनुष्य के जीवन में कोई दोष है या कोई कमी है तो वह इस सत्य को सही रूप में नहीं समझते और सत्य का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग नहीं करने के कारण है। मनुष्य जीवन में अनेक श्रेष्ठ शक्तियाँ है, योग्यताएँ है, आवश्यकता इन्हें उभारने की है।

इस आस्था के अनुरूप वह प्रतिदिन चार से छः घंटे तक प्रार्थना में बैठते और शरीर के विभिन्न अंगों को आशीर्वाद देते, ईश्वर भावों से परिपूर्ण करते। आरम्भ में तो बड़ी कठिनाई हुई, पर धीरे-धीरे शरीर के विभिन्न केन्द्रों पर उनका अधिकाधिक नियंत्रण होने लगा बढ़ते हुए विश्वास और सतत् होने वाली प्रार्थना से उनका पुराना दर्द समाप्त हो गया, कूल्हा भी रोग मुक्त हो गया और लंगड़ाना दूर हो गया।

फिल्मोर ने स्वस्थ होते ही अपने जीवन का उपयोग संकीर्ण स्वार्थों के लिए नहीं किया। उनका विचार था कि ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य का उपयोग ईश्वरीय कार्यों में ही होना चाहिए। उनको जो नया प्रकाश, नया जीवन, नया विश्वास, नया मार्ग मिला उससे वे अपने पड़ोसियों, परिचितों, अपरिचितों का, दुःखी पीड़ितों का, जो भी रोग से दुःख से अविश्वास से परेशान एवं संत्रस्त थे उन सभी का हित सम्पादन करने लगे। लोक सेवा ही चार्ल्स फिल्मोर तथा उसकी पत्नी मार्टिन फिल्मोर का एक मात्र काय हो गया। अमेरिका में वे प्रार्थना मानव के रूप में विख्यात हुए। उन्होंने “यूनिटी स्कूल ऑफ क्रिश्चिएनिटी” नामक एक संस्था की स्थापना की। जिसके द्वारा कल्याणकारी विचारों का प्रसार एवं सेवाकार्य किये जाते है। कल्याणकारी विचारों का प्रसार यूनिटी, पी विजडम, प्रोग्रेस, गुड विजनेस आदि पत्रिकाओं द्वारा होता है। जिसे संसार के कोने-कोने से लोग मँगाते और पढ़ते है।

फिल्मोर के अनुसार प्रार्थना एक रचनात्मक और सक्रिय चीज है। उनके अनुसार प्रार्थना के लिए बस तीन शर्तें हैं ईश्वर पर विश्वास, सरल प्रार्थना और विधेयात्मक पोषक विचार (पॉजेटिव थिंकिंग)। प्रार्थना का उद्देश्य है-चिन्तन पद्धति में परिवर्तन ला देना। परिवर्तन ईश्वर में नहीं होता है। वह तो सर्वदा शुभ और शिव हैं। फिर हम इससे दूर क्यों? सिर्फ इसलिए कि स्वयं के विचार जगत में शुभ के स्त्रोत और मंगलमय ईश्वर से एकात्मता नहीं है और समूचा जीवन दिव्य हो जाता है। हम भी अपने जीवन में ईश प्रार्थना का अवलम्बन लें।


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