करता है हमसे महाकाल आशाएँ। हम स्वयं जागें, औरों को आज जगाएँ॥
बुझने से पहले अन्तिम कुछ निमिषों में, दीपक की लौ की चमक बहुत बढ़ जाती,
इस सहस्रब्दि की यह अन्तिम वेला है, इसलिये भयंकर अपनी दिखलाती,
ऐसे संकट के समय न धैर्य गंवाएं, बस तभी नष्ट हो पाएँगी जड़ताएँ।
हम आ पहुंचे हैं आज मोड़ पर ऐसे, हर राह हमारी हुई तिमिर से मैली,
सामने कुहासे के पीछे प्राची में, लेकिन हल्की लालिमा व्योम में फैली,
ऐसे में हम सब सत्साहस दिखलाएँ, फिर घना कुहासा चीर, उजाला लाएँ।
- रविंद्र भटनागर
“प्रतिमा की निमंत्रण”