जब स्वराज्य आंदोलन का शंख बजा तो सामान्य ही नहीं विपन्न परिस्थितियों से जूझ कर समृद्धि की ओर बढ़ रहे शास्त्री जी ने भी अपनी जीवन दिशा बदली और महात्मा गाँधी के संपर्क में आये। गान्धी जी शास्त्री जी की सिद्धान्त निष्ठा और आदर्शवादिता, लोकसेवा की भावना से बड़े प्रभावित हुए। एक दिन उन्होंने शास्त्री जी को बुला कर कहा-देखो लाल बहादुर तुम में लोक सेवा की उद्दाम भावना है। परन्तु इस मार्ग पर धन सम्पत्ति ऐसी बाधा है जिसकी चमक में चौंधिया कर आदमी लोक सेवा की बात भूल जाता है और उसे परिग्रह ही परिग्रह सूझता है। इसलिए लोकसेवियों को अपरिग्रह का व्रत लेना चाहिए।
शास्त्री जी ने तत्काल प्रतिज्ञा की कि मैं गृह और सम्पत्ति अर्जित नहीं करूंगा तथा ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखते हुए जीवन बीमा भी नहीं कराऊँगा।
प्रतिज्ञा लेकर तोड़ने वाले तो अनेक हैं परन्तु शास्त्री जी ने यह प्रतिज्ञा जीवन भर निभाई यहाँ तक कि जब वे प्रधान मंत्री बने तब भी उनके पास कोई अपना निजी मकान नहीं था।
जीवन में कई अवसर आए जब परिग्रह उन्हें पथ से विचलित करने का खड़ा हो गया। ऐसा ही एक अवसर सन् 1936 ई. में आया। तब वे इलाहाबाद म्युनिसिप्ल बोर्ड के सदस्य चुने गए थे। इस बोर्ड के सदस्य होने के नाते वे इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट के सदस्य भी बने। यह ट्रस्ट जमीनों के प्लाट बनाता तथा उन्हें बेचा करता था। एक बार ट्रस्ट ने टैगोर टाउन मौहल्ले में निर्माण कार्य लिए आधा एकड़ के प्लाट बनाए ओर कम मूल्य पर बेचने का सिद्धान्त तय किया।
शास्त्री जी ने उन दिनों कुछ समय के लिए इलाहाबाद से बाहर थे। उनके एक मित्र ने इन प्लाटों में से एक प्लाट शास्त्री जी के लिए तथा एक अपने लिए खरीदना चाहा। परन्तु बोर्ड के नियमों के अनुसार ट्रस्ट का कोई सदस्य ऐसा नहीं कर सकता था। उस दस्य ने कमिश्नर साहब से संपर्क साधकर शास्त्री जी के लिए विशेष छूट माँगी ली साथ ही उनके लिए भी छूट मिल गई। उन्होंने एक-एक प्लाट दोनों के लिए खरी लिए।
कुछ दिनों के बाद शास्त्र जी प्रवास से लौटे। लौटते ही मित्र महोदय ने यह सम्वाद इस आशा से सुनाया कि शास्त्री जी प्रसन्न होंगे। परन्तु शास्त्री जी तो प्रसन्ना होने के स्थान पर मर्माहत हो उठे।
शास्त्री जी को इस प्रकार दुःखी होते देखकर उक्त सदस्य उन्हें शान्त करने का प्रयत्न करने और बताने लगे कि कमिश्नर साहब से इजाजत मिल जाने के बाद प्लाट खरीदने में कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु शास्त्री जी को यह कब सहन होने वाला था-आपत्ति हो या न हो। नियमों और सिद्धाँत को तोड़ना सर्वथा अनुचित है और इसके प्रायश्चित के रूप में तुम मेरे प्लाट सहित अपना प्लाट भी ट्रस्ट को वापस कर दो।
इन्होंने प्लाट वापस करा कर ही चैन लिया। उन्हीं दिनों ट्रस्ट की मीटिंग हुई। ट्रस्टियों ने दोनों प्लाट वापस होने की बात ज्ञात थी। इसे सराहनीय आदर्शवादिता की संज्ञा देकर सभी ट्रस्टियों ने शास्त्री जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। शास्त्री जी ने बात को मजाक में टालते हुए कहा-” भाई आप प्लाट वापस करने में कौन–सा आदर्शवाद मानते हैं। मैंने तो बापू को जो वचन दिया था उसे ही पूरा किया है और ट्रस्टी की हैसियत से ट्रस्ट द्वारा बेची जाने वाली वस्तुओं को खरीदना भी कौन–सा अच्छा काम है। सभी ने हृदय से स्वीकार किया कि अपरिग्रह को अन्तस्तल से अपनाए बगैर सही माने में लोक सेवा संभव नहीं।”