परमात्मा की प्राप्ति सच्चे प्रेम से

November 1987

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पूजा पाठ, जप, ध्यान अनुष्ठान आदि जो भी क्रियायें की जाती हैं, उनका मूल उद्देश्य परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा को गहरा करना होता है। ज्यों-ज्यों निष्ठा गहरी होती जाती है,त्यों-त्यों परमात्मा के प्रति प्रेमभाव बढ़ता जाता है। यही प्रेम-भाव धीरे-धीरे परिपक्व होकर भक्ति का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार उपासना का मूल तात्पर्य ईश्वर के प्रति प्रेम का विकास करना ही है।

परमात्मा के प्रति विकसित प्रेम जब अपनी चरम सीमा में पहुँचता है, तब वह केवल परमात्मा तक ही सीमित नहीं रहता। वह विश्वरूप परमात्मा तक फैल जाता है। सच्चे भक्त और परमात्मा के सच्चे प्रेमी की पहचान यही है कि उसका प्रेम-भाव संसार के सारे जीवों के प्रति प्रवाहित होता रहता है। कोई व्यक्ति कितनी ही पूजा और ध्यान,जप आदि क्यों न करता हो, पर उसका प्रेम-भाव संकुचित हो, उसका प्रसार प्राणिमात्र तक न हुआ हो तो उसे भक्त नहीं माना जा सकता।

भगवान का भक्त, परमात्मा को प्रेम करने वाला अपनी आत्म और समाज के नैतिक नियमों को भी प्यार करता है। कारण यह होता है कि नैतिक नियमों में आदर्शवाद का समन्वय होता है। अध्यात्म का सम्बन्ध आत्म से और आत्मा का परमात्मा से होता है। संसार से परमात्मा की ओर उन्मुख होने का यह एक क्रम है। भगवान का भक्त इस पावन क्रम से विमुख नहीं हो सकता। जो परमात्मा को प्रेम करेगा वह उससे सम्बन्धित इस क्रम में भी प्रेम-भाव रखेगा।

जिसने आदर्शवाद को प्रेम करना सीख लिया उसने मानो परमात्मा को पाने का सूत्र पकड़ लिया। परमात्मा के मिलन में अपार आनन्द होता है, लेकिन उसकी ओर ले जाने वाले इस क्रम में भी कम आनन्द नहीं होता, जो आत्म द्वारा स्वीकृत समाज के नैतिक नियमों का पालन करता रहता है। आदर्शवाद का व्यवहार करता है, वह समाज की दृष्टि से ऊँचा उठा जाता है। समाज उससे प्रेम करने लगता है। ऐसे भाग्यवान व्यक्ति जहाँ रहते हैं, उनके आस-पास का वातावरण स्वर्गोपम भावों से भरा रहता है। कटुता और कलुष का उसके समीप कोई स्थान नहीं होता। जिस प्रकार का निर्विघ्न और निर्विरोध आनन्द परमात्मा के मिलन से मिलता है, उसी प्रकार का आनन्द आदर्शवाद के निर्वाह से प्राप्त होता है।

स्वर्गलोक की उपलब्धि किसी लोक विशेष की उपलब्धि नहीं है। वह अनुकूल और पावन परिस्थितियों का एक धार्मिक नाम है। जहाँ सुन्दर, सुखदायक और कर्त्तव्यपूर्ण परिस्थितियाँ होंगी, वह स्वर्ग ही माना जायेगा। ईश्वर के सच्चे भक्त में प्रेम की जो पावन-धारा की परिस्थितियाँ भी प्रेमपूर्ण बनी रहती हैं। इसलिए भक्तजन हर समय स्वर्ग में ही निवास किया करते हैं।

साधना से मन्तव्य ईश्वरीय प्रेम की उपलब्धि से ही माना जाता है। यदि साधना सच्ची है तो उसका परिणाम प्रेम के रूप में ही मिलना चाहिए। सच्चे साधक का हृदय-प्रेम की धारा से अभिपूरित हो जाता है। वह प्राणिमात्र में अपनी आत्मा के दर्शन करने लगता है। आत्मीयता और उदारता प्रेम का ही तो रूप होता है। आत्मीयता का भाव मिलते ही संसार का सुख-दुःख साधक को अपना दुःख-सुख मालूम होने लगता है।

जिस प्रकार कुएँ में मुख डालकर आवाज करने से उसी प्रकार की प्रतिध्वनि कुएँ से निकलकर कानों में गूँजने लगती है, उसी प्रकार साधक के हृदय का प्रेम परमात्मा अथवा उसके व्यक्ति रूप प्राणियों को प्राप्त होकर पुनः प्रेमी के पास ही वापस आकर उसे आत्म विभोर कर देता है। इस प्रकार का प्रेम ही सच्चा प्रेम कहलाता है। इसी में वह सामर्थ्य है जो ईश्वर को साधक अपने समीप खींच बुलाता है।


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