धर्म धारणा का पंचम सोपान है शौच। शौच का सामान्य अर्थ है स्वच्छता यों शौच का मोटा अर्थ मल त्याग से भी लिया जाता है। पर अध्यात्मिक तत्वज्ञान की दृष्टि से इसका अभिप्राय है सर्वतोमुखी पवित्रता से। साँसारिक, शारीरिक ही नहीं, मन और आत्म की भी स्वच्छता। शारीरिक ही नहीं, मन और आत्मा की भी स्वच्छता।
मोटेतौर पर ग्राम, शहरों की स्वच्छता उस आधार पर होनी चाहिए जिसे अपनाकर नगरपालिकाएँ, टाउन एरिया यथा सम्भव नाली-नाले, सड़क, गली, मुहल्ले पाखाने, कुएँ, तालाब आदि की सफाई सम्बन्धी योजना बनाती है। घरों में रहने वालों को अपने वस्त्र, बरतन दीवारें, आँगन, छत, पुस्तक फर्नीचर, अनाज, पानी रसोई घर, शौचालय आदि की स्वच्छता रखनी पड़ती है। अन्यथा अस्वस्थता जन्य गन्दगी से जो विषाणु उत्पन्न होंगे वे नाना प्रकार के रोग उत्पन्न करने के लिए बाधित करेंगे।
शरीरगत स्वच्छता में विसर्जन छिद्रों की त्वचा की दाँत, जीव आदि की सफाई अपना महत्व रखती है। कपड़े सादा धुले हुए रहने चाहिए। उनसे पसीना चूता है और न केवल दुर्गंध आती है वरन् जुओं खटमलों की फसल उग खड़ी होती है। उसके क्या परिणाम होते हैं? इसे भोगी ही जानते हैं।
पेट की भीतरी सफाई यह है कि अपच न होने दिया जाय। दस्त तो एनीमा या, जुलाब से भी हो सकता है, पर मुख्य बात यह है कि अखाद्य खाने से अधिक मात्रा में ठूँसने से पेट के पाचक रस कम पड़ने लगते हैं और आँतों में पड़ा हुआ मल सड़ने लगता है। यह सड़न रक्त के साथ जहाँ भी पहुँचती है, वहीं जमती और रुग्णता के रूप में फूटती है। इस कथन में रत्ती भर भी संदेह नहीं कि कब्ज हर बीमारी की जड़ है। पाचक औषधियाँ खाने भर से उससे पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। सही तरीका यह है कि हल्के उबले शाकाहार से काम चलाया और आधा पेट खाया जाय। इतना भर नियम पालने से जब तब एनीमा लेते रहने से सप्ताह में एक दिन खाली पेट रहे जाने पर समझना चाहिए कि कब्ज से छुटकारा मिला और आधी बिमारियों के प्रकोप का संकट टला।
लेने देने की सफाई “नौ नकद न तेरह उधार” की नीति अपनाने पर निभती है। जिसका देना उसका जल्दी से जल्दी वापस करना। जिससे अपने को लेता समझना चाहिए वह बट्टे खाते चला गया। वापस लौटने वाला नहीं है। समय का कुछ ऐसा प्रभाव है कि कर्ज लेने की भूमिका बनाने वाला वर्ग यही सोचकर आता है कि किसी चतुरता से ले तो आया जाय पर वापस करने का नाम न लिया जाय। जिन्हें मित्र को शत्रु बनाना और उधार डूब जाने पर पश्चाताप होता हो, अभावग्रस्त की कोई सहायता करनी हो तो कर दी जाय, पर फिर उसके वापस लौटने का इन्तजार न किया जाय। कर्ज माँगने वालों में 10 प्रतिशत अपव्ययी लोग होते हैं। आकस्मिक संकटग्रस्त ईमानदारों की संख्या तो मुश्किल से पाँच प्रतिशत होती है। कर्ज देकर वापस लौटा लेना, असाधारण स्तर का कौशल है। जिनके लम्बे चौड़े व्यापार होते हैं, वे पहले से ही उधार डूबने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए मुनाफा बना लेते हैं। मध्यवर्ती जीवनचर्या का औचित्य इसी में है कि अपनी आय के अनुरूप खर्च का क्रम बनाकर गरीब वर्ग के लोगों की तरह रहा जाय और चैन से दिन काटा और रात को सुख की नींद सोया जाय।
लाग-लपेट की बात करने की अपेक्षा स्पष्टवादिता अपनाना अच्छा है। किसी को मतभेद बुरा लगे, तो कुछ समय रुष्ट हो लेगा। पर जब चित्त शान्त होगा तो यही अनुभव करेगा कि साफ दिल वाला और भला आदमी है। इसे लाग लपेट नहीं आती।
उपरोक्त सभी बातों से बढ़कर यह है कि विचारों को स्वच्छ, स्वच्छतम रखा जाय। ईर्ष्या द्वेष, घृणा, सन्देह आशंका के विचारों से दूर रहा जाय। न चिन्तित हुआ जाय और न आतुर आक्रोश ग्रस्त रहा जाय। शान्तचित्त, प्रसन वेदन और सन्तोष युक्त जीवनयापन करने का तरीका यह है कि मन में अनावश्यक चिन्ताओं के भार न लदने दिये जायें और अभावग्रस्त स्थिति में रहने का अवसर न आने दिया जाये।
महत्वाकाँक्षा ईर्ष्यालु स्वभाव, अपने विरुद्ध कुचक्र रचे जाने की आशंका, सन्देह, उद्वेग आदि की स्थिति में मनुष्य भयाक्राँत, शंकाशील या उद्विग्नता के आवेश से भरा रहता है। यह स्थिति मन को मलीन बनाती है और विचारों में हेय स्तर की गंदगी भर देती है। जिसके विचार अनुपयुक्त रहेंगे, उसके क्रिया कलाप कभी सज्जनोचित नहीं रह सकते। जो सोचेगा उससे अपने या दूसरों के संबंध में ऐसा ही मत बनेगा जैसा कि नहीं ही बनना चाहिए। उत्तेजित असहिष्णु दुराग्रही, अहंकारी व्यक्ति विचार क्षेत्र में गन्दे होते हैं। फलतः उनका समूचा जीवन गन्दगी से भर जाता है। वे न स्वयं सुख से रह पाते हैं और न साथ संपर्क के लोगों को चैन से बैठने देते हैं। ऐसे लोगों का कोई सच्चा मित्र नहीं रहता, जिसके प्रति श्रेष्ठता और सम्मान के भाव नहीं, उनसे लोग पीछा छुड़ाने का ही प्रयत्न करते हैं। किसी प्रकार लोक व्यवहार बना भी रहे तो आड़े समय में वे कदाचित ही साथ देते हैं। वस्तुस्थिति को दिवास्वप्न देखने वाले भी देर सबेर में समझ जाते हैं और अपने आपको को सर्वथा असहाय एकाकी, अभागा अनुभव करते हैं।
विचारों की छाया आचरण में प्रवेश किये बिना उभरे बिना रह नहीं सकती। घटिया व्यक्ति जहाँ जाता है वहीं प्रत्यक्ष या परोक्ष तिरस्कार का भाजन बनता है। उसके आने से किसी को प्रसन्नता नहीं होती। न चले जाने से दुख होता है, न आघात लगता है। उसकी निज के जीवन की समस्यायें ही इतनी उलझ जाती हैं, जिन्हें सुलझाते नहीं बनता और ऐसे ही परेशानियों में डूबता-उतराता, जिनसे मन मिला, उनके सामने अपनी विपन्नता का रोना रोने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बन पड़ता।
सड़न की दुर्गन्ध हवा के साथ मिलकर दूर-दूर तक वातावरण कुरुचिपूर्ण एवं विषाक्त करती है। सड़ी जिन्दगी अपेक्षतया और भी बुरी स्थिति उत्पन्न करती है। मुर्दा प्राण निकलने के बाद सड़ना आरम्भ करता है और गन्दगी उगलता है पर सड़े हुए विचारों एवं व्यक्तित्व वाला व्यक्ति जीवित रहते हुए भी मरो की तुलना में अधिक बुरे किस्म की गन्दगी फैलाता है।
धर्म का पाँचवाँ चरण शौच वस्तुतः सुरुचि और सौंदर्य के रूप में प्रयुक्त हुआ है। मात्र मलीनता हटा देना ही पर्याप्त नहीं, उसके स्थान पर सुरुचि, सुन्दरता और सुसंस्कारिता का भी दर्शन होना चाहिए।
यह प्रयोग धर्म के सच्चे साधकों को अपने निकटवर्ती वातावरण में परिवार में मित्र सम्बन्धियों में करना चाहिए और सर्वप्रथम अपने आपे को सुधार कर उसके साथ ही चन्दन वृक्ष की तरह अपने समीप उगे हुओं को भी आपने जैसा ही स्वच्छ एवं उत्कृष्ट बनाना चाहिए भले ही वे अनगढ़ झाड़ झंखाड़ जैसे ही क्यों न हों?