कानपुर जिले में खाँडेराव नामक एक सिद्ध संत हुए हैं। विठूर में पटकापुर गाँव में उनका आश्रम था। आश्रम के निकट ही एक विशाल वट वृक्ष था, जिसमें वर्षा और गरमी से बचने के लिए हजारों लोग आश्रय ले सकते थे।
श्री खाँडेराव ने वहाँ रह कर लम्बे समय तक गायत्री साधना की थी। एक बार गुरु पर्व के अवसर पर विशाल स्तर पर ब्रह्मभोज का आयोजन किया गया। तैयारियाँ एक सप्ताह से चल रही थीं। सभी आवश्यक सामग्री इकट्ठी की जा रही थीं। समीपवर्ती क्षेत्र में महात्मा खंडेराव जी ने एक भोज का आयोजन किया है। प्रचार को देखते हुए प्रबन्ध भी बड़े स्तर पर किया गया। निश्चित दिन आया, तो सबेरे से ही लोगों का ताँता लगना आरम्भ हो गया। देखते-ही-देखते चारों ओर से भारी भीड़ आश्रम की ओर उमड़ पड़ी। भीड़ की विशालता और स्थान की कमी को देखते हुए सुबह से ही भोज की पंगतें भी आरम्भ कर दी गई। बड़ी धूमधाम से दिन भर भोज चलता रहा; किन्तु लोग अभी भी आते ही चले जा रहे थे। व्यवस्था मंडली उन्हें खिला-खिला कर उसी क्रम में विदा भी करती जा रही थी।
शाम से रात को चली; पर लोगों का आना अभी भी जारी रहा। अतः भोजन भी चलता रहा। यद्यपि व्यवस्था बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति के अनुमान के आधार पर की गई थी; मगर अनुमानित संख्या से भी बड़ी तादाद में लोग उपस्थित हुए। ऐसी स्थिति में सामानों की कमी पड़ जाना स्वाभाविक ही था। उस रात भी यही हुआ। अनेक आवश्यक सामग्री घट गई। औरों की तो जहाँ-तहाँ से पूर्ति कर ली गई; किन्तु घी कहीं उपलब्ध नहीं हो सका। आस-पास की दुकानों में भी तलाश की गई; पर कहीं भी व्यवस्था नहीं बन सकी। सभी चिन्तातुर हो उठे; मगर करते क्या? जितना कुछ हो सका, सामर्थ्य भर प्रयत्न किया। इससे अधिक वे कुछ कर भी नहीं सकते थे। उधर भीड़ बाहर इस आशा में बैठी थी कि भोजन अभी बन रहा है, तैयार होते ही परोसा जायेगा। बड़ी असमंजस की स्थिति थी। व्यवस्थापक परेशान हो रहे थे। इन्तजार कर रहे लोगों को न तो वस्तुस्थिति से अवगत कराया जा सकता था, न व्यवस्थापकगण उन्हें भोजन कराने की स्थिति में थे। स्थिति बोध कराने में अपमानित होने का भय था; पर ऐसे और कब तक लोगों को टाला जा सकता था? कुछ न कुछ तो प्रबन्ध करना ही था। अन्ततः बड़ा सोच-विचार कर व्यवस्था-मंडली ने समस्या को खाँडेराव जी के समक्ष रखने का विचार किया, यह समझ कर कि शायद वे कोई उपाय निकाल सकें। महात्मा जी ने जब यह सुना कि चार डिब्बे घी की कमी पड़ गई है और इसके बिना अभीष्ट परिणाम में भोजन नहीं पकाया जा सकता कि सभी उपस्थित जन संतुष्ट हो सकें, तो फिर, शान्त चित्त से ध्यान में बैठते हुए व्यवस्थापकों से वे बोले - “जाओ, गंगा जी से गंगा-जल भर लाओ और घी की जगह उसका ही प्रयोग करो।” लोगों ने इसे परिहास माना; पर जब बार-बार उनका आग्रह हुआ, तो वे उसे टाल न सके। चार व्यक्ति गये और चार डिब्बों में गंगा-जल भर लाये। उसी में पूड़ियाँ तली गयीं और अन्य व्यंजन बनाये गये तथा सभी को परोस गया। उस रात जिन-जिन लोगों ने भोजन किया, उनका कहना था कि ऐसा स्वादिष्ट भोजन उनने इससे पहले कभी नहीं किया था।
दूसरा दिन चार डिब्बा घी उनके निर्देश पर गंगा जी में डाल दिया गया। लोगों ने जब इसका कारण पूछा तो उनने बताया कि कल हमने चार डिब्बा घी गंगा जी से उधार माँगे थे, जो लौटाने जरूरी हैं। गायत्री साधना की शक्ति अपरम्पार है। सुपात्रों को वह मिलती है एवं वे प्रकृति की व्यवस्था से सामयिक तालमेल बिठाकर उसका चमत्कारी स्वरूप यदा कदा दिखला देते हैं किन्तु परब्रह्म की व्यवस्था में कभी व्यतिक्रम नहीं आने देते।