मेहतर अंगरक्षक (Kahani)

November 1987

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बोधिसत्व एक जन्म में काशी नरेश के घर में जन्में थे। छत पर बैठे हुए देख रहे थे कि सड़क पर झाडू लगाने वाले मेहतर को एक सोने का टुकड़ा मिला, उसे उठाकर दीवार के छेद में छिपा दिया और काम करता रहा।

दोपहर को घर पहुँचा तो पत्नी ने कहा, आज दिवाली का उत्सव है। कुछ तुम्हारे पास रहा होता तो घर में पकवान बनते ओर सजावट होती।

मेहतर को सोना मिलने की बात याद आई। उसने कहा थोड़ी प्रतीक्षा करो, सभी सोना लाता हूँ वह बेतहाशा भागा और कड़ी धूम धूप में खुशी से विह्वल होकर नाचता जा रहा था।

राजा को दोनों घटनाओं से आश्चर्य हुआ। सिपाही भेजकर उसे बुलाया और कहा कि क्या मिला है? जो इतने खुश हो? उसने बात बता दी।

राजा को उसकी मनः स्थिति देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और दस माशे सोना इनाम में देने का प्रस्ताव किया। मेहतर ने मना कर दिया और कहा जो भगवान ने दिया है, वही पर्याप्त है। वह एक माशे था।

मेहतर चला गया और उसी डेली को बेचकर दिवाली का उत्सव मनाया। राजा के मन से वह निस्पृहता उतरी नहीं। उसने दूतों को भेजकर उसके घर का समाचार मँगाया। पाया कि वे सब उन थोड़े साधनों से ही अतिशय प्रसन्न थे।

दूसरे दिन राजा ने मेहतर को बुलाया और अपना अंगरक्षक नियुक्त कर दिया।

कई दिन बीत गये थे। राजा के कोष में ढेरों सोना आता था। वह सोया हुआ था। अंगरक्षक पहरा दे रहा था। उसके मन में आया कि पास रखी तलवार से राजा का सिर उड़ा दूँ और सारा धन हथिया लूँ यह कैसा अवसर है?

इन्हीं विचारों में डूबा रहा कि राजा की आँख खुल गई। उसने नौकरी छोड़ दी। कारण पूछने पर मन का भेद बता दिया और कहा इस सम्पन्नता के वातावरण में थोड़े दिन रह कर ही मेरा मन इतना भ्रष्ट हो गया, अधिक दिन रहने पर तो न जाने कितना गिरुँगा और न जाने क्या-क्या करूंगा?

राजा ने बहुत रोका पर वह रुका नहीं। पड़ा सोना उठाने और राजा के प्रति कुविचार लाने के प्रायश्चित में उसने विरक्ति धारण कर ली मेहतर का काम करते हुए सन्त जीवन जीने लगा। राजा ने उससे दीक्षा ली और वे भी साधुता अपनाते हुए निस्पृह जीवन जीने लगे।


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