अपनों से अपनी बात - अगले वर्ष मिशन तीन गुना विस्तृत हो

November 1987

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अखण्ड ज्योति मनोरंजन के लिए चित्र विचित्र लेखों का लदस्ता बनाकर पाठकों का मन बहलाने वाली पत्रिका नहीं है। उसके पीछे एक उच्चस्तरीय लक्ष्य है, वह है लोक चिन्तन में उत्कृष्टता का समावेश एवं चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के बहुमुखी पक्षों में आदर्शवादिता का प्रवेश। यह कार्य अति कठिन है। अन्तराल का कायाकल्प करने एवं सर्जरी के समान है। इसमें भावनाओं मान्यताओं, संवेदनाओं, आकांक्षाओं के अनेकानेक पक्षों स्तरों में नव चेतना का संचार एवं इसी हेतु उसमें कितने ही तर्कों, प्रमाणों और उदाहरणों का समावेश करना होता है। इस संग्रह के लिए मनन और अध्ययन-अवगाहन के मानसरोवर में उतर कर हंसों की तरह मोती बीनने पड़ते हैं। हंस तो अपना-अपना ही पेटी भरते हैं, पर यहाँ उससे बढ़ बढ़ कर काम करना पड़ता है। यह मणि मुक्तक वितरण करने जैसे प्रक्रिया है, जिससे अनेकों को सुसज्जित समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाया जा सके। यही है वह प्रयत्न जिसमें राजहंस की तरह अखण्ड ज्योति के प्रयास पिछले 51 साल से अनवरत तत्परता के साथ चले आ रहे हैं। इसका परिणाम भी आशातीत हुआ है। प्रायः ढाई लाख ग्राहक और हर पत्रिका को कम से कम दस को पढ़ाये जाने का अनुबन्ध पच्चीस लाख को और पढ़ाने है। इस प्रकार सत्ताईस लाख के करीब पाठक उसे नियमित रूप से आद्योपान्त स्वाध्याय संदर्भ की तरह पढ़ते हैं जो पढ़ा है, उसका मनन चिन्तन करते है। और जो पढ़ा समझा है, उसे जीवनचर्या में उतारने का सामर्थ्य भर प्रयत्न करते हैं।

इसी की परिणति है कि व्यक्तित्व परिष्कार की दिशा में सहचरों के कदम तेजी से बढ़े हैं। उनने पेट प्रजनन तक सीमित न रहकर पुण्य परमार्थ की दिशा में प्रगतिशीलता से भरे पूरे कदम उठाये हैं। अपना आदर्श भले ही इतिहास के पृष्ठो में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने जैसा न बन पड़ा हो पर इतना निश्चित कि वे अपने परिवार को संपर्क क्षेत्र को सर्वसाधारण की अपेक्षा कहीं अधिक विचारशील चरित्रवान, एवं प्रगतिशील बनाने में समर्थ हुए हैं वे भी अपने परिकर को उत्कृष्टता की दिशाधारा के साथ जोड़ सकने में बहुत अंशों तक सफल हुए हैं। यह प्रक्रिया ऐसी है, जिससे व्यक्तियों को प्रामाणिक प्रतिभावान बनने में असाधारण योगदान मिलता है। अनेकानेक युगशिल्पियों का सृजन हुआ है। इनकी गतिविधियाँ देश धर्म ओर समाज संस्कृति की असाधारण सेवा कर सकने में सुफल हुई हैं।

वर्तमान पीढ़ी में भी बुद्धिवादियों का एक सबल पक्ष है। अगली पीढ़ी तो इस प्रयोजन में ओर भी अधिक बढ़ी चढ़ी होगी। तब हर बात तर्क तथ्य और प्रमाण की कसौटी पर कसी जायेगी और जो इस अग्नि परीक्षा में खरा सिद्ध होगा, वह अपनाया जायेगा, वही मान्यता प्राप्त करेगा। ऐसी दशा में यह आवश्यक था कि लोक चिन्तन के लिए प्रामाणिक समाधान प्रस्तुत किये जायँ, अन्यथा नास्तिकता, अनैतिकता के क्षेत्र में अराजकता उत्पन्न होने का भय है। यदि इतना न बन पड़ा तो नैतिक मूल्यों का तेजी से ह्रास होगा। मानवी मर्यादाओं का निर्बाध उल्लंघन होगा। वह अनुशासन बुरी तरह टूट रहा है। उच्छृंखलता, पतन पराभव के शिखर पर चढ़ दौड़ने के लिए आतुर हो रही है फिर जब उसे कोई तत्वदर्शन अनुशासन में बाँधने के लिए सुधारने के लिए विद्यमान न रहेगा, तो जो स्थिति उत्पन्न होगी उससे ईश्वर ही रक्षा कर सकता है।

समय की महती आवश्यकता थी, जिसे पूरी करने में अपना मिशन मूर्धन्य भूमिका निभाता रहा है। उसका प्रतिफल इतना महान बन पड़ा है कि अगले दिनों उससे भी अधिक उसका प्रभाव होने वाला है। यह चक्रवृद्धि क्रम है। एक से दस दस से सौ सौ से हजार होने जैसा। यह दिवास्वप्न नहीं है। उसे ऐसी सफलता के रूप में देखा जा सकता है, जिसकी यथार्थता को जाँचने परखने के लिए हर किसी को आमंत्रित किया जाता है।

उत्साहवर्धक भूत और उत्साहवर्धक भविष्य परिलक्षित होने का एक बड़ा कारण अखण्ड ज्योति का प्रतिपादन, प्रकाशन और प्रयत्न भी रहा है। यह असंदिग्ध है। उसके द्वारा संचालित यह प्रयास आगे और भी द्रुतगति से चलता रहेगा। अखण्ड ज्योति की लौ कभी भी धूमिल होने या बुझ जाने जैसी स्थिति में पहुँचने वाली नहीं है। उसके लिए ऐसा सुनिश्चित प्रबन्ध कर दिया गया है कि कम-से-कम बीसवीं सदी के अन्त तक तो अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर अपने स्तर का प्रतिपादन अक्षुण्ण बना रहे। भले ही उसे अपने स्तर का प्रतिपादन अक्षुण्ण बना रहे। भले ही उसे इन दिनों लिखने वाले जीवित रहें या न रहें। अदृश्य चेतना ही अब तक काम करती रही है और भविष्य में भी वह अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में सतत् संलग्न रहेगी। इस प्रकार यह प्राण संचार की प्रवृत्ति अपना लक्ष्य पूरा होने तक बिना थके मोर्चे की अग्रिम पंक्ति सम्भालती और अपने जौहर दिखाती रहेगी।

जो कुछ बन पड़ा है उसके श्रेयाधिकारी संचालक प्रस्तोता कम और उसके परिजन अधिक हैं। अखण्ड ज्योति अब से 51 वर्ष पूर्व जब आरम्भ हुई थी, जब उसका पहला अंक मात्र 500 छपा था। उसकी सदस्य संख्या बढ़ाने में संचालक स्वयं कोई बड़ी योजना न बना सके। चिन्तन मनन और अध्ययन अवगाहन में संलग्न व्यक्ति बहिरंग व्यवस्था बना सकने में अवकाश उपलब्ध करते हैं और उससे प्रचार तंत्र संभाल सकना संभव ही होता है। फिर पाँच सौ से आरम्भ होने वाला तंत्र अढ़ाई लाख ग्राहकों और पच्चीस लाख पाठकों समेत लगभग सत्ताईस लाख जितना कैसे बन गया? उसकी प्रेरणाओं ने वंशवृद्धि की तरह किस प्रकार लाखों करोड़ों की विचारणा और दिशाधारा में किस प्रकार कायाकल्प जैसा चमत्कार उत्पन्न किया? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही है- इस सोमपान की रसास्वादन जिनने किया, उनने उस महाप्रसाद से अन्यान्यों को भी उपलब्ध कराने का प्राणपण से प्रयत्न किया। यही है मिशन के विकास में महती भूमिका संपन्न करने वाली प्रक्रिया। जो सफलता मिल सकी, जो प्रयास बन पड़ा। भविष्य की जो आशा बँधी उसमें अग्रणी रहे, वे परिजन जिनने स्वयं चलते रहना ही पर्याप्त न समझा वरन् अन्य अनेकानेकों को भी बिखरी कड़ियों की तरह एक सूत्र में पिरोया और लम्बी शृंखला मणिमुक्तकों की बहुमूल्य माला बना कर दिखाई। वस्तुतः लेखक मुद्रक के प्रयत्न सीमित और प्रचारकों का पुरुषार्थ अधिक सराहनीय रहा है।

यह तो हुआ अब तक की प्रगति का निरीक्षण परीक्षण। उस पर संतोष किया जा सकता है और गर्व भी। परिवार में परस्पर धन्यवाद देने और कृतज्ञता प्रकट करने की औपचारिक परिपाटी नहीं चलती। फिर संचालक और सदस्य ही क्यों उस शिष्टाचार को निबाहने के लिए बाधित हों? आन्तरिक श्रद्धा सद्भावों बनाये रहना और उसे अन्तराल में बहुमूल्य उपलब्धि की तरह छिपाये रहना भी पर्याप्त हो सकता है। वही दोनों पक्षों से बन भी पड़ा है मस्तिष्क ओर भुजाएँ दोनों ही एक दूसरे के बिना प्रकटीकरण के भी एक दूसरे के कृतज्ञ रहते हैं। रह भी रहे हैं।

प्रश्न अगले दिनों का है। जो काम करने को सामने पड़ा है, उसे पूरा करने का है। अभी हम लोग लाखों की सीमा का र्स्वश कर रहे हैं। अगले दिनों तो उसे करोड़ों की सीमा पार करके अरबों की अभिनव उत्कर्ष की बात सोचनी है केवल हिन्दी, गुजराती, मराठी उड़िया भाषाओं के क्षेत्र में काम करने रहना अपर्याप्त होगा। देश की संसार की अनेकानेक भाषाओं के माध्यम से गतिशीलता को सुविस्तृत करना है। अपने देश में भी 80 करोड़ की आबादी हो चुकी है। उसमें से हम लोग कुछ लाख लोगों को ही स्पर्श कर सके हैं। जो कार्य करना शेष है, वह उससे कहीं अधिक है। कई गुना है, जो कार्य करना शेष है, वह उससे कहीं अधिक है कई गुना है जो किया जा चुका। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्राँति का क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसे संसार की समस्त राजक्रांतियों के सम्मिलित योग से भी अधिक भारी भरकम महत्वपूर्ण एवं आवश्यक माना जा सकता है। जन साधारण की विचारणा, मान्यता आकाँक्षा एवं दिशा धारा में उत्कृष्टता का समावेश न रहेगा, तो उलझनों को सुलझाने की समस्याओं के समाधान की कोई आशा बँधेगी नहीं। भविष्य निर्माण के लिए युग निर्माण के लिए जो प्रधान उपाय उपचार किया जाना है, वह एक ही है जन साधारण के व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व आदर्शवादिता का अनुशासन कूट कूट कर भरा जाय उसे अभ्यास व्यवहार में उतारा जाय। यह बन पड़े तो समझना चाहिए कि संसार के सामने मुँह बाये खड़े संकटों में से तीन चौथाई का समाधान हो गया। इतना कर गुजरने पर तो मात्र उद्दण्डों को प्रताड़ना के माध्यम से सही राह पर चलने के लिए बाधित करना शेष रह जायेगा।

युग परिवर्तन के लक्ष्य की मंजिल एक छोटी सीमा तक ही पूरी हुई है। उसका बड़ा अंश तो अभी पूरा करना शेष रहा है। उसे पूरा किये बिना हममें से काई भी अपने कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व की इतिश्री न समझे, वरन् दूने चौगुने, सौगुने उत्साह से अपनी लगन गतिशीलता को तीव्र करे।

इस हेतु क्या-क्या करना पड़ेगा, उसकी योजनाएँ बनाना है। परिजनों का स्तर जैसे-जैसे उभरता आता है, वैसे-वैसे वे प्रस्तुत भी की जाती रहती हैं। वह सुधार संवर्धन का क्रम बदलती परिस्थितियों के अनुरूप आगे भी चलता रहेगा। यह प्रक्रिया अनवरत चलने वाली है और शाश्वत भी। मूल तथ्य यह है कि जिस गौमुख गंगोत्री से गंगा निकलती है, उस उद्गम को अधिक अनुदान दे सकने में समर्थ किस प्रकार बनाये रखा जाय। गंगा का प्रवाह ठीक रहा तो नहरें निकलेंगी। रजवाहे बनेंगे। कलावे लगेंगे और खेत-खेत में पानी पहुँचेगा। यदि उद्गम में प्रखरता न रह सकी, तो धीमे धारा प्रवाह को लेकर चलने वाली गंगा स्वयं का अस्तित्व तक अक्षुण्ण बनाये न रह सकेगी। फिर खेतों तक पानी कैसे पहुँचेगा और सर्वत्र धन धान्य की हरीतिमा दीख पड़ने का सुयोग कैसे बनेगा?

संकेत अखण्ड ज्योति की वर्तमान स्थिति को ओर है। उसके साथ मूलतः जुड़े हुए लोग मात्र अढ़ाई लाख हैं। यह संख्या संसार के प्रमुख पत्रों की तुलना में कहीं पीछे है। वे तो विज्ञापनों के सहारे सहायता स्रोतों के सहारे जीते और फलते-फूलते हैं। पर अखण्ड ज्योति के पास तो इन दोनों में से एक भी आधार नहीं है। उसकी स्थिरता और प्रगति तो पूरी तरह स्वजनों के प्रचार प्रयत्नों पर निर्भर है। अब तक तो बन पड़ा है, उसका श्रेय इसी एक स्रोत को है और उज्ज्वल भविष्य की आशा का अवलम्बन भी।

यदि वर्तमान ग्राहकों में से प्रत्येक को दो नये सदस्य बनाने, बढ़ाने का व्रत लेते बन पड़े तो यह बसन्त पर्व के जन्म जयन्ती पर प्रस्तुत की जाने वाली सर्वोत्तम श्रद्धाँजलि तो रहेगी ही, साथ ही उससे यह सुयोग भी बन पड़ेगा कि मिशन का प्रभाव और क्रिया कलाप भी अगले ही दिन तीन गुना हो जाय। छोटे सहयोग का इतना महान परिणाम निकलना आश्चर्यजनक तो है, किन्तु उसे देखकर प्रत्यक्ष चमत्कार की तरह ही समझा जा सकेगा। सन् 88 में वर्तमान सदस्य संख्या बढ़कर तीन गुनी हो जाय, यह बात बड़ी तो है, पर अब तक परिजनों द्वारा किये जाते रहे सहयोग को देखते हुए यह सरल भी है और सम्भव भी इसके सत्परिणामों के श्रेय उन्हीं को मिलेगा जो ऐसा कुछ कर गुजरने का बड़ा मन बना लेंगे।


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