अनन्तपारा दुष्पूरा तृष्णादोष-शता-वहा

November 1987

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सम्पत्ति मात्र एक सीमित मात्रा में अपने पास रखी जा सकती है। उससे अधिक रखने के लिए गोदाम अपने पास है ही नहीं। फिर तृष्णाजन्य उपार्जन से संकट यह खड़ा हो जाता है कि जो चाहा गया है, यदि उतना मिलता भी जाए तो वह संचित न रखा जा सकेगा। चीज चाही हुई हो, प्रिय भी हो और मूल्यवान भी, पर उसे रखने का प्रबन्ध किये बिना उसे जहाँ-तहाँ कैसे फेंक दिया जाए? स्थान बनाये बिना संग्रह कर लेना मुसीबत मोल लेने के समान है।

पेट में चार रोटी का स्थान है। मिष्ठान सामने अधिक मात्रा में उपस्थित हो उन्हें छोड़ देने का मन न हो, रखने की जगह नहीं, ऐसी दशा में खाये जाने पर पेट में दर्द उठेगा ही। बाहर कहीं रखेंगे तो चोरी होने या सड़ जाने का संकट खड़ा होगा। यह है सांसारिक मुसीबतों की जड़ उत्पन्न करती है।

संसार में असीम वैभव भरा पड़ा है। पर वह पात्रता के अनुरूप ही उपलब्ध है। भगवान सुख इतना देता है, जितना हजम हो सके। बिना पचे भी दर्द होता है। यही है तृष्णाजन्य दुःख अन्यथा इस वैभव से भरे संसार में हमें अकारण दुःख क्यों उठाना पड़े?


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