विकास संवाद का आधार सहयोग-सहकार

November 1987

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परमात्मा की इस सृष्टि के विकास सौंदर्य का कारण पारस्परिक सहयोग और सहकार की सद्भावना ही है संघर्ष नहीं। संघर्ष की क्रियाशीलता से तो अव्यवस्था अराजकता ही फैलती है और भरी पूरी सम्पन्न प्रजातियाँ विकास के स्थान पर विनाश के गर्त में चली जाती हैं। इस तथ्य को प्राणि जगत के विगत इतिहास के विकास और विनाश की घटनाओं के अध्ययन से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। इन घटनाओं का विशद् विवरण प्रो. ई.ओ. डाँडसन एवं डा. रिचर्डसन लार्ड ने अपनी पुस्तकों में प्रस्तुत किया है।

मनुष्येत्तर जीवों की कितनी ही सूक्ष्म और बलिष्ठ प्रजातियाँ मात्र अपने आपसी संघर्ष और हिंसात्मक प्रवृत्ति के कारण पूरी तरह से लुप्त हो गई। उनके लुप्त होने का कारण आपसी टकराहट ही थी। मीजोजोइक एकरा (युग) को प्राणिशास्त्रियों में रेप्टाइल्स एरा या सरीसृप युग की कहा जाता है। इस काल में सरीसृप वर्ग के प्राणियों ने धरती पानी और आकाश में पूरी तरह से अपना वर्चस्व कायम कर रखा था। इक्थियोसाँरस 40 फीट लम्बा और भारी भरकम शरीर वाला समुद्री प्राणी था। इसी की एक प्रजाति में टेरोनोडाँन;च्मजतवदवकवदद्ध नामक 27 फीट लम्बा आकाश चारी प्राणी भी आता था। ट्राइसिरिक समय का ब्रान्टोसार नामक थलचर 80 फीट लम्बा 20 फीट ऊँचा और 50 टन (50,000किला) के भीमकाय शरीर का स्वामी था। डिप्लोडोक्स 90 फीट लम्बा 50 टन भारी था। इक्वानोडाँन नामक एक अन्य प्रजाति का जीव 30 फीट लम्बा ओर 15 फीट ऊँचाई का था। रेगिस्तान में सफलता पूर्वक रह सकने की क्षमता वाले डाईसेराटोल्स की लम्बाई 20 फीट थी। इसका शरीर अत्यन्त सबल था। इसी जाति के एक अन्य जीव टायनोसाँरस के शरीर की लम्बाई 20 फीट एवं इसके दाँतों की लम्बाई 6 फीट थी।

सरीसृप समूह के नाम से विख्यात ये सभी महासरीसृप समस्त भूमंडल पर छाए हुए थे। शक्ति की दृष्टि से इनमें किसी दाव से राई रत्ती कमी न थी। पर आपसी संघर्ष और टकराहट के कारण ये धरती पर विलीन हो गए। कुछ तत्कालीन परिस्थितियों से अपना सामंजस्य, सन्तुलन नहीं बिठा पाए। पर इसका प्रधान कारण परिस्थितियों की प्रतिकूलता नहीं, अपितु आपसी सहयोग का अभाव ही था। वातावरण की प्रतिकूलता एवं आपसी टकराहट ने इनके अस्तित्व का समूल नाश कर दिया। विकासवादी भले ही परिस्थितियों को कारण मानते रहे हों, पर वस्तुतः प्रधान कारण आपसी टकराहट ही था।

वैज्ञानिकों द्वारा की गई शोध इस बात का प्रमाण है कि प्राणियों में विषम से विषम परिस्थितियों में भी सामंजस्य सन्तुलन बिठा सकने की अद्भुत क्षमता है। यदि इन दानवाकार प्राणियों में आपसी सहकार एवं सहयोग सद्भाव रहा होता तो इनका अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था। पर ऐसा न हो सकता। जबकि शक्ति सामर्थ्य की दृष्टि से नितान्त अक्षम नगण्य से जीव अपने आपसी ताल मेल के कारण विषमताओं से जूझकर अपने को सुरक्षित बनाये रहे। इसका श्रेय निश्चित रूप से उनकी सद्भाव की प्रवृत्ति को ही दिया जा सकता है। यह विशिष्टता न केवल उनके समूह को सुरक्षित ही रखने में समर्थ हुई अपितु निरन्तर प्रगति और उत्कर्ष की ओर बढ़ती गई। तर्क का आश्रय लेने वाले बुद्धिवादी इसकी बौद्धिक व्याख्या मात्र कर सन्तोष कर लेते है॥ जो कि वस्तुतः आत्म प्रवंचना है। यथार्थ यही है कि सहकारिता के भाव ने उनका उत्कर्ष किया।

अन्य जीवों की तरह यदि मानव जाति ने भी संघर्ष को जीवन सूत्र माना होता तो सम्भवतः डायनोसौर इक्थियोसाँर की तरह उसका भी अस्तित्व समाप्त हो गया होता। पर मानव जाति संघर्ष और आपसी टकराहट न अपनाकर आपस में तालमेल और सद्भावना के कारण विकास के उत्कर्ष को पा सकी। अन्य जीवधारियों से कहीं ऊँचा सृष्टि का सिरमार कहलाने का सौभाग्य अर्जित कर सकी।

यह सहकारिता है क्या? व मनुष्य के जीवन में इसकी अहम् भूमिका किस प्रकार? इसे समझाते हुए प्रसिद्ध चिन्तक एल्डुअस हक्सले कहते है। कि “मनुष्य की बुद्धिमता, शारीरिक चेष्टा और पुरुषार्थ परायणता के मूल में जो अत्यन्त प्रेरणा दिव्य प्रवृत्त झाँकती है उसे ही सहकारिता कहते हैं। वस्तुतः यही मानव रूपी प्राणी की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्य प्राणियों में यह वृति आँशिक ही है। मानसिक आदान प्रदान कर सकने योग्य उनकी स्थिति नहीं है। कुछ पशु पक्षी जोड़े बनाकर रहते हैं, समूह में रहने की अभ्यस्त हैं। इससे उन्हें सुरक्षा में सहायता मिलती है। छोटे-मोटे शारीरिक आदान-प्रदान भी बन पड़ते हैं, पर मानसिक भावनात्मक आदान-प्रदान भी बन पड़ते हैं, पर मानसिक भावनात्मक आदान-प्रदान उनसे नहीं बन पड़ता। सहकारिता वृति का सीमित प्रयोग कर सकने के कारण ही अन्य प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तह जहाँ के तहाँ पड़े हैं जबकि मनुष्य उस दिव्य प्रवृत्ति को अधिकाधिक विकसित करते हुए उन्नति के शिखर तक पहुँच सकने में सफल हो गया।

सहकारिता की इस दिव्य प्रवृत्ति के महत्व को कालान्तर में विकासवादी वैज्ञानिक डार्विन ने भी पहचानो और अपनी भूल सुधार करते हुए एक अन्य ग्रन्थ मानव का अवतरण में लिखा है “जीवन संघर्ष का तात्पर्य आपसी टकराव नहीं।” विकास के क्रम में असंख्य प्राणी समूह में पृथक पृथक प्राणियों का आपसी संघर्ष समाप्त हो जाता है। संघर्ष का स्थान सहयोग का गुण ले लेता है और इसके फलस्वरूप उनका बौद्धिक एवं नैतिक विकास होता है। इस विकास से ही उन प्राणियों का अस्तित्व बने रहने के लिए अत्यन्त अनुकूल आवश्यक व्यवस्था पैदा होती है। “सारवाइवल ऑफ दी फिटेस्ट की व्याख्या के साथ अपनी पूर्व मान्यता का खण्डन करते हुए वे कहते हैं कि ऐसे समुदायों में योग्यतम उनको नहीं कहा जायेगा जो सर्वाधिक चालाक या बलवान है। वरन् सही माने में वे सक्षम आथ्र समर्थ है, जो अपने समाज के हित के लिए निर्बल और बलशाली सभी शक्तियों को इस तरह संगठित कर सकें कि वे एक दूसरे के पोषक बन सकें। जिन समुदायों में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने वाले प्राणी अधिक होंगे, वे ही सर्वाधिक उत्कर्ष पा सकेंगे पुष्पित पल्लवित होंगे। “आज के समाज के विकास और प्रगति के कारणों पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन करने पर पता चलता है कि पारस्परिक स्नेह सहयोग सहलाकर की अमृत वर्षों से सिंचित होने के कारण ही मानव जाति का यह उत्कर्ष सम्भव हो सका।

रूस के लाइफ साइंसेज के प्रो. केसलर ने प्रकृतिवादियों के सम्मुख अपने एक भाषण में कहा था कि सहयोग प्रकृति का नियम और विकास का मूल अंग है।” अपने भाषण के अन्त में उन्होंने बताया कि प्राणि जागृत और मानव जाति का विकास पारस्परिक संघर्ष द्वारा नहीं अपितु सहयोग द्वारा ही हो सका है।

प्रो. केसलर के इन विचारों का उल्लेख रूस के प्रसिद्ध विचारक प्रिस क्रोपटकिन ने अपनी पुस्तक “संघर्ष नहीं सहयोग” में किया है जीवन संघर्ष की व्याख्या पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं कि मैं अपने मित्र प्राणिशास्त्र विशारद डा. पोलियाकोफ के साथ साइबेरिया के घने जंगलों में गया। डार्विन के सिद्धान्त का भूत हम लोगों पर नया नया चढ़ा था। हम दोनों यह आशा लगाए बैठे थे कि एक जाति के प्राणियों में परस्पर प्रतिस्पर्धा की झलक देखने को मिलेगी किन्तु वहाँ इसका कोई नामोनिशान भी न मिला।

जीवन में संघर्ष के क्षण भी आते हैं, इसे नकारा नहीं जा सकता। चोर, डाकुओं से सामना करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। पर आपात परिस्थितियों में ही यह स्थिति आती है। संघर्ष को जीवन दर्शन के सूत्र सिद्धान्त का रूप नहीं दिया जा सकता। परिस्थितियों की अनुकूलता के लिए हम सभी प्रयत्न करते हैं किन्तु जब यही बाह्य जीवन में अपने सजातियों के प्रति प्रकट होने लगेगा तो संकट उत्पन्न होने के साथ बर्बरता असभ्यता जैसी स्थिति ही पैदा होगी। मात्र कल्पना करें कि हर व्यक्ति संघर्ष को जीवन का सिद्धान्त मानने लगे “जिसकी लाठी उसकी भैंस” की रीति-नीति अपना ले तो “मत्स्य न्याय” की यह परम्परा मनुष्य को क्रूर बर्बर हिंसक बना देगी और मानव जाति का समूल अस्तित्व कुछ ही दिन में धरती से समाप्त हो जायेगा।

वस्तुतः व्यक्ति, समाज राष्ट्र के उत्थान की आधार शिला पारस्परिक स्नेह सहयोग का सद्भाव ही है। संघर्ष यदि सफलता का आधार बन जाये तो हर व्यक्ति छल प्रपंच शारीरिक बलिष्ठता से अपना वर्चस्व स्थापित करने का उपाय करेगा। नैतिक पुरुषार्थ महत्वहीन हो जाएगा। परिणामस्वरूप प्रगतिशील मानव समाज और मानवता की वही दशा होगी जो सरीसृप समूह के जन्तुओं की हुई। स्पष्ट है अस्तित्व की नींव संघर्ष नहीं सहयोग है अपनी सभ्यता संस्कृति को अक्ष बनाए रखने के लिए सहयोग की उदात्त भावना को ही जीवन दर्शन के सूत्र सिद्धान्त के रूप में अपनाना होगा। जीव विज्ञान की एक शाखा एथ्रापाँलाजी के विशद अध्ययन से यही तथ्य प्रकाश में आता है कि जिन जीवों में जिन प्रजातियों में उत्कर्ष सहकार की दिव्य प्रवृत्ति जितनी अधिक रही, उतना ही अधिक उत्कर्ष को वे प्राप्त हुए। आज की विचारशील मानव जाति जो शीत युद्ध पर उतारू है, सहयोग सहकार के जीवन दर्शन के आधार भूत सिद्धान्त को अपना कर ही अपना अस्तित्व अक्षुण्ण बनाए रख निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर होती रह सकती है।


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