प्रकृति द्वारा दिये गये अनुदानों में से एक सुन्दरता भी है, जिसे जड़ एवं चेतन दोनों जगत में देखा जा सकता है। सामान्यतया सौंदर्य का अर्थ शारीरिक सुघड़ता तथा मुखाकृति तक ही सीमित माना जाता है, जिसका प्रभाव प्रचलन आज के तथाकथित सभ्य समाज में स्पष्ट देखा जा सकता है। यथार्थ में उत्कृष्ट व्यक्तित्व एवं सुव्यवस्थित वेश विन्यास ही वास्तविक सौंदर्य है। जब वह मानव चरित्र में सन्निहित होता है, तब निराशाओं और चिन्ताओं के झँझावातों में भी उसे खुशियों और आशाओं का संबल मिलता रहता है। यही कारण है कि स्वभाव से उत्तम व्यक्ति को अपने चारों ओर सुन्दरता बिखरी दिखाई पड़ती है। अप्रिय परिस्थितियों में भी वह बिना विचलित हुए कुछ न कुछ आकर्षण देखता है।
सौंदर्य वस्तुतः सुस्वास्थ्य की अनुकृति है। स्त्री हो या पुरुष, जिसका शरीर निरोग होगा, रक्त की न्यूनता न होगी, व्यायाम में माँसपेशियाँ सुगठित होंगी वह चेहरे की बनावट साधारण होने पर भी सुन्दर लगेगा। फूल कितने ही किस्म के होते हैं जब वे खिली हुई स्थिति में होते हैं तो सभी सुन्दर लगते हैं। किसी एक की तुलना दूसरे से नहीं हो सकती है। बनावट में भिन्नता रहने पर भी हर किसी में ताजगी और सुगन्ध सौंदर्य निखार देती है। मुरझाया हुआ कुम्हलाया हुआ फूल प्रकृतितः सुन्दर लगने पर भी निस्तेज और कुरूप लगने लगता है। समय पर सभी वृद्ध होते और बीज रूप में परिणत होते हैं। सुन्दरता घटती है तो उपयोगिता बढ़ जाती है। अल्हड़ आयु में प्रेम, उपेक्षा और घृणा के आँधी तूफान आते रहते हैं। किन्तु कोमलता घट जाने के स्थान पर प्रौढ़ता और परिपक्वता आ जाती है। जो निश्चय होते हैं वे अटल रहते हैं। यह परिपक्वता अधकचरे सौंदर्य की अपेक्षा मनोरमा भले ही न लगे, पर अल्हड़ता युक्त सौंदर्य में परिपक्वता नहीं होती।
फूलों में कोमलता ओर सुगन्ध तो अधिक होती है, पर इस वय में उन फलों का उद्भव नहीं होता, जो मीठे भी होते हैं और मूल्यवान भी। सौंदर्य की अपनी परख भी है, वह कसौटी सहज ही विकसित नहीं होती। किसी को नर्तकी मनभावन लगती है, तो किसी को बच्चों का भोलापन। रूप रंग के परखी स्थिरमति नहीं होते, क्योंकि उसमें भी अधिक आकर्षण जहाँ कहीं दीखती है वे भौरों ओर तितली जिसे सर्वोत्तम की उपाधि देते थे, वही तुलनात्मक दृष्टि से अधिक आकर्षक के सामने फीका, नीरस और उपेक्षणीय लगने लगता है। पर जिनके साथ मैत्री, वफादारी एवं जिम्मेदारी के आधार पर चुनी गई है, उनसे ऐसे परिवर्तनों की आशंका नहीं रहती है।
आँखों रंग रूप की ओर आकर्षित होती हैं और साज-सज्जा के प्रति अपनी पसन्दगी को मान्यता देती है। पर जिस आधार पर यह आकर्षण उभरा था उसके तीनों स्तम्भ अस्थिर हैं स्वास्थ्य में गड़बड़ी आने या आयु बढ़ने पर चेहरे की चमक चली जाती है। तुलनात्मक दृष्टि से कोई अन्य सुहावना लगने लगे या अपनी ही स्थिति भौंड़ी बन जाय तो दूसरे पक्ष की अपेक्षा होने लगती है। आँखों के सौंदर्य में यह शर्त है कि वह दोनों ओर से सुहावना लगे यह पसन्दगी अनेक कारणों से बदल सकती है, व्यवहार में अन्तर आने पर भी। इसलिए सुन्दरता की परख करते समय नख शिख को ही नहीं व्यक्तित्व की परिपक्वता और वरिष्ठता को भी देखा जाना चाहिए। ऐसे ही निर्णय चिरस्थायी और फलप्रद होते हैं।
जो सुन्दरता को बहिरंग मात्र आँकते व भौंरों की भाँति उस पर मँडराते हैं, उनका भावावेश समय के प्रवाह में बह जाता है। वस्तुतः सौंदर्य अन्तरात्मा के शाश्वत सच्चिदानन्द स्वरूप की अभिव्यक्ति ही है। जो आत्म के सौंदर्य विचारों की उत्कृष्टता को समझता व उनका मूल्याँकन करना जानता है, वही सच्चा सौंदर्य पारखी है।