मरण: एक उच्च कोटि का दार्शनिक

November 1987

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परमात्मा सत्-चित-आनन्द-स्वरूप है। अनादि और अनंत है। न कभी उनका जन्म हुआ न कभी मरने वाला है। उसी ज्वालमाल की छोटी चिनगारी आत्मा है। जो गुण अंशधर में होते हैं, वही अंशी में भी पाये जाते हैं। समुद्र के जल में जो विशेषताएँ हैं वे उसकी एक बूँद में भी पाई जाती हैं।

ब्रह्माण्डीय चेतना परब्रह्म है। पिण्ड की परिधि में जो काम करती है वही सत्ता आत्मा है। फिर उसकी विशेषताएँ उसमें क्यों नहीं होनी चाहिए? परमात्मा अमर है तो उसके अंशधर का मरण कैसे हो सकता है?

मरण की विवेचना हम जिस रूप में करते हैं, वह सही नहीं है। शरीर के बदल जाने की प्रक्रिया को हम मौत मान लेते हैं। यह मौत हो भी सकती है, पर वह आत्मा की नहीं, शरीर मात्र की है। जीवन भर में मनुष्य सैकड़ों बार कपड़े बदलता है। वे वस्त्र अनेकों रंगों औरडिजायनों के भी होते हैं। पर उस बदलाव के कारण कोई यह नहीं कहता कि व्यक्ति बदल गया। यह परिवर्तन की दृष्टि क्षेत्र तक ही सीमित है। उसका प्रभाव आत्मा तक नहीं पहुँच सकता। शरीर के मरने पर आत्म नहीं मरती। वह तो यथावत् बनी रहती है। अन्तर केवल इतना ही आता है कि जो स्थूल था वह सूक्ष्म हो जाता है। शरीर सूक्ष्म हो जाने से उसकी आकृति स्थूल आँखों से दिख नहीं पड़ती। इस परिवर्तन को सूक्ष्मीकरण भी कह सकते हैं।

पदार्थों का सूक्ष्मीकरण होता रहता है। उनकी आकृति में अन्तर आता रहता है, पर मूल सत्ता यथावत् बनी रहती है। पानी ठोस होकर बर्फ बन जाता है। प्रवाही होता है तो जल कहलाता है। भाप बनकर वह वायु रूप होता और अदृश्य बन जाता है। यह प्रत्यक्ष परिवर्तन होते रहने पर भी उसकी मूल सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता। जल का अस्तित्व पृथ्वी के जन्म काल से ही है और वह अन्य पंच तत्वों की तरह अपनी सत्ता बनाये रहेगा।

जीव न मरता है ओर न मर सकता है। मात्र उसका कलेवर ही अपने समय पर बदल जाता है। यह परिवर्तन एक चक्र है। शुक्र, भ्रूण, शिशु, बालक, किशोर तरुण, प्रौढ़, वृद्ध मरण और फिर उसी निर्धारित चक्र की पुनरावृत्ति। मरने के बाद वह शुक्र डिम्ब के रूप में जहाँ तहाँ होते हुए पहुँच जाता है और फिर पुरानी आवृत्ति को आरम्भ करता है।

कुछ मध्य काल ऐसा अवश्य है, जिसमें सूक्ष्म शरीरधारी को स्वच्छन्द विचरण करने का अवसर मिल जाता है। इस अवधि में वह विश्राम भी ले लेता है और पिछले दिनों की संग्रहित गंदगी की धुलाई करके इस योग्य बन लेता है कि नये जन्म में पुराने जन्म के संस्कार अधिक बाधा न पहुँचायें। कर्मफल तो साथ रहते हैं और उन्हीं दिनों यह भी अनुभव हो जाता है कि पाप कर्मों की परिणति क्या है? और पुण्य-कर्मो की क्या? इस प्रकार कुछ महत्वपूर्ण अनुभव प्राप्त करने का और थकान मिटाने का अवसर मिल जाता है। थका हुआ व्यक्ति रात को गहरी नींद सो लेता है तो दूसरे दिन सबेरे से ही उसे स्फूर्ति के साथ काम में जुटने का मन होता है।

प्रत्येक जीव स्वतंत्र है। उसकी अपनी एक स्वतंत्र इकाई है। वह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। न कोई साथ आया, न कोई साथ जाता है।

सृष्टि की व्यवस्था ऐसी है कि मनुष्य मिल जुल कर रहे और एक दूसरे की सहायता करते हुए आदान प्रदान का लाभ ले। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत परिवार बन जाता है। स्वजन, संबंधी, मित्र, परिचितों का सिलसिला जुट जाता है और अनुभव होता है कि वे परस्पर सघनतापूर्वक बँधे हुए हैं। एक दूसरे के ऊपर निर्भर हैं। यह ममता जितनी घनिष्ठ होती है उसी अनुपात में मरण होने पर जाने वाले को बिछोह का दुःख होता है। कई बार एक दूसरे पर निर्भरता भी होती है। विशेषतया बच्चों की परवरिश अभिभावक करते हैं। उनके न रहने पर वे दूसरे की दया के सहारे भी पल तो जाते हैं। पर उतने निश्चिन्त और प्रमुदित नहीं रहते जैसे कि पहले रहा करते थे। माँ बेटे के बीच, पति-पत्नी के बीच भी कई बार ऐसी सघनता होती है। उसी अनुपात में उन्हें वियोग दुःख भी सताता है, किन्तु क्या वस्तुतः एक दूसरे के साथ वे इतनी ही घनिष्ठता के साथ बँधे हुए हैं। इसका उत्तर न में ही देना पड़ता है। प्रियजनों की मृत्यु का दुःख कुछ काल सताता है फिर वह झीना पड़ने लगता है। कुछ समय उपरान्त तो उस विलगाव की धुँधली स्मृति ही शेष रह जाती है।

पुरानी निर्भरता भी दूसरों पर बँट जाती है, कोई स्वजन संबंधी सहायता करने लगते हैं या फिर स्वावलंबन उभरता है और गाड़ी अपने ढर्रे पर लुढ़कने लगती है।

वशिष्ठ ने शोक विह्वल-दशरथ रानियों को समझाया था कि जिस प्रकार नदी में बहते हुए कुछ लट्ठे इकट्ठे हो जाते हैं और फिर लहरों का दबाव पड़ने पर बिछुड़ जाते हैं। बिछुड़ी हुई लकड़ियाँ जिस तिस के साथ अपनी संगति बिठा लेती हैं और फिर एक बजरे के रूप में बहने लगती हैं। जो लकड़ी पहले जिनके साथ थी उनसे अलग होकर वह दूसरों के साथ सट जाती है और फिर बहाव के साथ चलने लगती है। संसार की नियति ऐसी ही है। प्राण जन्मते, मरने और मिलने बिछुड़ते रहते हैं। जो कुछ आश्चर्य और असमंजस होता है शोक में विलाप करना पड़ता है, वह ममता के बंधन जुड़ने और टूटने से होता है अन्यथा ढेरों व्यक्ति हर दिन जन्मते और मरते रहते हैं जलती हुई चिताओं को देखकर कौतूहल मात्र प्रतीत होता है। वैसा व्यथित नहीं होना पड़ता जैसे कि उसके कुटुम्बी होते हैं। बात स्वाभाविक भी है। जन्म मरण के आधार पर चल रहे इस संसार में कौन, किसके लिए ख़ुशी मनाये और क्यों कोई किसी के लिए विलाप करे? जो हर किसी की भवितव्यता है उसके लिए उपेक्षा भाव रखने से ही काम चलता है।

मरण एक उच्चकोटि का अध्यापक, धर्म एवं दार्शनिक है, जो बताता है कि निर्धारित कर्त्तव्यों का परिपालन करते हुए सुखपूर्वक रहो और साथियों को रहने दो। जो जीवन के स्वरूप, उद्देश्य और उपयोग को समझता और पालता है, उसके लिए मृत्यु न तो कष्टकारक होती है और न भयप्रद।


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