समस्त साधनाओं की एक धुरी ध्यानयोग

November 1987

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मैस्मरेजम हिप्नोटिज्म के प्रयोक्ता अपनी इच्छा शक्ति को एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं। दृष्टि को एक केन्द्र बिन्दु पर जमाते और बेधकता उत्पन्न करते हैं। जिनका यह अभ्यास परिपक्व हो जाता है। वे दूसरों को योगनिद्रा ग्रस्त कर सकते हैं। उनके मस्तिष्क पर हावी हो जाते हैं और जैसा चाहें सोचने या अनुभव करने के लिए विवश करते हैं। सक्रिय मस्तिष्क को निद्रित कर देना और अचेतन को क्रियाशील बना देना सम्मोहन विद्या का रहस्य है। इस आधार पर तन्द्रित व्यक्ति को कई प्रकार के लाभ पहुँचाये जाते हैं और कई प्रकार के कौतूहल प्रस्तुत कराये जाते हैं।

यही आधार स्वसंकेत या स्वसंवेदन के लिए काम आता है। जिस प्रकार हिप्नोटिज्म के आधार पर किसी दूसरे को योगनिद्रा में ग्रसित किया जाता है उसी प्रकार अपने आप को भी उस स्थिति में पहुँचाया जा सकता है। और पूर्व निश्चित संकल्प अपने अन्तराल की गहराई तक पहुँचा कर व्यक्तित्व को दुष्प्रवृत्तियों से छुड़ा कर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए सहमत किया जाता है। आत्म सुधार का यह अच्छा तरीका है कि योगनिद्रा की स्थिति में अचेतन मन से सीधा संपर्क जोड़ा जाय और उस क्षेत्र में जमी हुई अभिरुचियों आदतों में आवश्यक सुधार परिवर्तन सम्पन्न किया जाय। ऑटोसजैशन स्वसंकेतन का एक समग्र शास्त्र है, जिसके सहारे अपने आपको अभीष्ट दिशा में चल पड़ने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। दूसरों पर इस विद्या का प्रयोग करके उन्हें शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सुधारना तो और भी सरल है।

सामान्य भौतिक स्तर की एकाग्रता सम्पन्न करने के लिये पंच तन्मात्राओं का आश्रय लिया जा सकता है। शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श यह पाँच तन्मात्राएँ है इनका कान, जीभ, नेत्र, नाक एवं त्वचा से सम्बन्ध है। इनके द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ होती हैं उन्हें परोक्ष रूप से रूप मात्र कल्पना के सहारे अनुभूति में उतारना होता है। यह तन्मात्रा परक ध्यानयोग का भौतिक अभ्यास है।

जैसे घण्टी बजाकर ध्यानपूर्वक उनकी ध्वनि श्रवण करना और फिर बिना घण्टी बजाये ही उस शब्द की प्रतिध्वनि सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय के क्षेत्र में दर तक सुनाई पड़ते रहने का अनुभव करना।

रूप के लिए चमकीला प्रकाश उपयोगी माना जाता है। प्रातःकाल का लाल सूर्य अथवा जलता दीपक क्षण भर देखकर आंखें बन्द कर लेना और फिर उसी रूप की कल्पना के सहारे दृश्यमान अनुभव करना है। इसे त्राटक कहते हैं। मैस्मरेजम अभ्यास में एक काले गोले के मध्य में सफेद छिद्र छोड़कर इस छिद्र पर खुली आँख से घूरने का ध्यान किया जाता है। दोनों का एक ही उद्देश्य है। दृश्य के अतिरिक्त उसके साथ इच्छा शक्ति या आत्मभाव के समन्वय का भी अभ्यास किया जाता है। इस प्रयोग के लिये गुलाब के फूल जैसी कोई और आकर्षक वस्तु काम में लाई जा सकती है।

रसों की अनुभूति में जिव्हा से मिश्री, नमक, मिर्च, नीबू जैसी किसी स्वाद विशेष की वस्तु का स्पर्श कराया जाता है। प्रत्यक्ष स्वाद अनुभव करने के उपरान्त वस्तु को हटा लेते हैं और कल्पना के आधार पर उस स्वाद की अनुभूति देर तक जारी रखे रहते हैं।

गंध साधना में किसी इत्र, चन्दन, कपूर हींग आदि तीव्र गंध वाली वस्तु को नाक के समीप ले जाकर सूंघा जाता है और फिर उसे हटा कर कल्पना के सहारे उस गंध की उपस्थिति का अनुभव किया जाता है।

स्पर्श त्वचा का गुण है। कोई चीज शरीर के किसी भाग से छूकर हटा लेना और फिर उसका वैसा ही अनुभव करना इस प्रयोग का स्वरूप है। शारीरिक तापमान में अधिक ठंडी या अधिक गरम वस्तु को छूकर हटा लेना और फिर उसी प्रकार का स्पर्श संवेदन अनुभव करना स्पर्शानुभूति है।

इस प्रकार अधिक दिनों तक इनमें से कोई एक या एकाधिक अनुभूतियाँ का अभ्यास करते रहने में कल्पना शक्ति इतनी प्रखर परिपक्व हो जाती है, जिससे बिना वस्तु की उपस्थिति के ही किसी का अनुभव अनायास ही होने लगे। इन अभ्यासों के सहारे एकाग्रता सधती है और उसके सहारे कार्य किये जा सकते हैं, जिनके लिए आमतौर से साधन उपकरणों की आवश्यकता होती है।

यह एकाग्रता स्मरण शक्ति विकास में विशेष रूप से काम देती है। पढ़ी हुई या नोट की हुई बातें सहज ही स्मरण हो आती हैं। लोगों के नाम पते याद रखना, घटनाओं का विवरण यथावत् सुना देना, किसी के कहे हुए शब्द यथावत् दुहरा देना इसी अभ्यास के आधार पर सम्भव है। भले ही अल्प ज्ञान होने के कारण उन शब्दों का अर्थ विदित न हो मस्तिष्कीय विकास के लिए हिप्नोटिज्म जैसे प्रयोजनों के लिये दूसरों को प्रभावित करने के लिए इस आधार पर बढ़ा हुआ मनोबल एक बड़ी सीमा तक काम दे जाता है। स्वसंकेत के आधार पर अपने शारीरिक, मानसिक रोगों से छुटकारा पा लेना भी इस आधार पर सम्भव है।

आध्यात्मिक ध्यानयोग का स्तर ऊँचा। है, उसके सहारे सिद्धियों के क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है। किन्तु उसमें एकाग्रता, सघनता के अतिरिक्त श्रद्धा, विश्वास का भी समावेश करना पड़ता है। कल्पना मस्तिष्क का एक साधारण गुण है। किन्तु श्रद्धा अंतःकरण के गहरे अन्तराल में होती है और उसकी जड़ें अचेतन में ऊँची कक्षा सुपर चेतन में होती हैं। इसलिये उसके लिए अपने से भी बड़ी किसी अलौकिक अद्भुत माध्यम का सहारा लेना पड़ता है।

रात के अन्धेरे में झाड़ी भूत के रूप में प्रतीत होती है। सुनसान श्मशान में पीपल के पेड़ पर पंख फड़फड़ाते गिद्ध, अपने को भूतों का कोलाहल जैसा प्रतीत होता है और उससे भयभीत होकर भयंकर बीमार हो जाना या प्राण घातक दिल का दौरा पड़ना सम्भव है। इसका कारण यह है कि भूत सम्बन्धी मान्यता जो हमारे हृदय के अन्तराल में छिपी होती है और वही तनिक सा अवसर पाने पर प्रकट होकर अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं।

भक्तजनों को जागृत या स्वप्नावस्था में भगवान का किसी देवता विशेष का दर्शन होना भी ऐसा ही है। उसमें अपना विश्वास ही यदा कदा अपना प्रतिबिंब मस्तिष्क के सामने ला कर खड़ा कर देता है। यह स्वसम्मोहित स्थिति है। जिस प्रकार मैस्मरेजम में कुशल व्यक्ति किसी प्रभाव ग्रसित को हाथी, शेर आदि की झाँकी करा सकते हैं, उसी प्रकार भक्ति भावना के आवेश में स्वसम्मोहित व्यक्ति भी किसी अलौकिक देवता की झाँकी कर सकता है। इसमें मात्र दृश्य देखने के कौतूहल भर की बात नहीं है। उस समय सुपरचेतन मन का आवेग तीव्र होता है, इसलिए ऐसी बातें भी उनके मुँह से सुनी जा सकती हैं जो भूत भविष्य से सम्बन्ध रखती हों। वे कथित अनुभूतियाँ कई बार सच्ची भी निकलती हैं। पर स्मरण रहे ऐसे प्रसंगों में सुपरचेतन को प्रभावित करने के लिए किसी देव दानव, पितर स्तर की आत्माओं को माध्यम बनाना पड़ता है। मात्र कल्पना को ही सब कुछ मान लेने पर छोटे स्तर की सफलताएँ ही काम देती हैं। देवताओं के प्रति आस्था का स्तर गहरा जम जाने पर वे लाभदायक भी उसी प्रकार हो सकती हैं, जैसे कि भूतों का भय अनिष्टकारी सिद्ध होता है।

योगाभ्यास में ध्यान का प्रयोजन आत्म निरीक्षण है इसके लिए अन्तर्मुखी होने का अभ्यास करना पड़ता है। प्रत्यक्ष शरीर को पूर्णतया शिथिल करने के लिए शिथिलीकरण मुद्रा या शवासन का अभ्यास आवश्यक है। इसी प्रकार मन को तंद्रित करने के लिए योगनिद्रा में जाने की कुछ दिन साधना करनी पड़ती है। धारणा करनी पड़ती है कि शरीर ही नहीं मन भी प्रसुप्त स्थिति में चला गया और केवल साक्षी दृष्टा आत्मा ही सजग है। इस स्थिति में आत्म चेतना को ही काम करना पड़ता है। शरीर और मन दोनों ही गहरे विश्राम की स्थिति में होते हैं।

इस स्थिति में सूक्ष्म शरीर की झाँकी की जाती है। षट्चक्रों के दर्शन किये जाते हैं। वे मेरुदण्ड में स्थान-स्थान पर अवस्थित हैं। इसका दूसरा प्रकार है पंचकोशों का दर्शन। षट्चक्र मेरुदंड में ग्रन्थियाँ भँवरों की तरह होते हैं और पंचकोश प्याज के या केले के तनों में पाई जाने वाली परतों की तरह। ग्रन्थों और कोशों को जागृत आत्मचेतना के साथ अधिक प्रत्यक्ष करने के लिए उन्हें टटोला, सहलाया जा सकता है। प्राणायाम की लम्बी श्वासों द्वारा उन्हें हिलाया झकझोरा जा सकता है। इसी रीति-नीति का लम्बे समय तक परिपालन करने से छह प्रकार की सचेतन विद्युत शक्तियाँ जागृत होती हैं और कुण्डलिनी जागरण का आधार बनाता है।

पंचकोशों के जागरण में पाँच शरीरों की स्फुरणा होती है और वे मस्तिष्क के ब्रह्मरंध्र क्षेत्र को प्रभावित करते हैं सहस्रार कमल मस्तिष्क के मध्य है। उसी का उर्ध्व भाग ब्रह्मरंध्र कहलाता है। योग शास्त्रों में इसी को विष्णु और क्षीर सागर कहा गया है। इसी को कैलाश और मानसरोवर स्थिति शिव की उपमा दी गई है। इस क्षेत्र के जागरण से विश्व चेतना के साथ सम्बन्ध हुड़ता है और अर्जुन यशोदा की तरह विराट ब्रह्म की झाँकी होती है। पाँच कोश ही मनः संस्थान में विद्यमान पाँच देवता है।

षट्चक्रों से सम्बन्धित कुण्डलिनी शक्ति है, जो जननेन्द्रिय मूल है। इस शरीरगत विद्युत भण्डार कहना चाहिये। व्यष्टि में संव्याप्त इस अद्भुत विद्युत को किसी वस्तु या व्यक्ति को प्रभावित करने के लिये काम में लाया जा सकता।

मस्तिष्क अतीन्द्रिय क्षमताओं का भण्डार है। यह देवी है, सुपर चेतन से सम्बन्धित। इसे परब्रह्म की चेतना एवं ब्रह्माण्डीय सामर्थ्य के साथ जुड़ा रहना समझा जाता है। इसलिए इस संस्थान के माध्यम से सूक्ष्म जगत का परिशोधन या अनुकूलन किया जाता है। उसके भूत भविष्य से सम्बन्धित सम्भावनाओं को समझा जा सकता है। इसीलिए पंचकोश साधनाओं की सामर्थ्य का प्रतिफल दिव्य माना है, जब कि कुण्डलिनी जागरण से अपने या दूसरों के लिए भौतिक स्तर के लाभ-हानि ही उठाये जा सकते हैं। इसके सभी प्रयोगों में ध्यानयोग नितान्त आवश्यक है। साधनाओं में अधिकाँश भूमिका उसी की होती है।


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