एक सेठ ने कथा में तीर्थयात्रा का बड़ा पुण्य माहात्म्य सुना। उनका सस्ते मोल में स्वर्ग पाने के लिए मन ललचाने लगा। सो चलने के लिए सारी तैयारी करने लगे। पत्नी से चलने का कहा तो उसने मना कर दिया और कहा “इतना पैसा किसी उपयोगी काम में लगाऊँगी। घर की देखभाल करूंगी। अतिथि सत्कार में भी कमी न होने दूँगी। आप प्रसन्नतापूर्वक जायं।
जब सेठ जी चलने लगे तो सेठानी ने अपने लिए एक सौगात देते हुए का अनुरोध किया। उसने एक छोटी लौकी उन्हें सौंपी और कहा जहाँ भी आप स्नान करें, जहाँ भी दर्शन करें, वहाँ इस लौकी को भी वही अवसर दिया करें। यह मेरी प्रतिनिधि रहेगी। सेठजी ने बात प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर ली।
उन दिनों तेज सवारियों का प्रबन्धन न था। सफर लम्बा था सो एक वर्ष का समय लग गया। लोटते ही सेठानी ने अपनी लौकी वापस माँगी और पूछा इसे वह सब अवसर दिये या नहीं जो आपको मिले? सेठजी ने लौकी सँभाल कर रखी थी और उसे स्नान दर्शन आदि के सभी अवसर प्रदान किये थे। उन्होंने सारा विवरण बताया और लगभग सड़ चुकी उस लौकी को प्रसन्नतापूर्वक लौटाया।
वापस लौटने की प्रसन्नता में प्रतिभोज किया गया अनेक व्यंजन बने पर साथ ही एक-एक छोटी कटोरी सभी आगंतुकों को बड़ी प्रशंसा के साथ एक अमृतोपम पदार्थ के रूप में परोसने की भी घोषणा की। वह उस लौकी का शाक था जो सभी तीर्थों में स्नान दर्शन करके लौटी थी।
एक वर्ष में वह सूख ठिठुर कर सड़ भी गई थी। साग बना तो दुर्गन्ध भरा और कड़ुवा था। सेठ जी समेत सभी ने प्रशंसा सुनकर उसे पहले ही ग्रास में खाया पर घोर अरुचिकर कड़ुई वमनोपग होने के कारण सभी ने उसे थाली से हटा कर दूर रख दिया और इस परोसने को अपना अपमान समझकर रोष भी व्यक्त किया।
जब सब अतिथि निवृत्त हो गये तो सेठानी ने कहा “यह सभी तीर्थों का पुण्य लाभ लेकर लौटी हुई लौकी थी। यदि यह स्वादिष्ट नहीं बन सकी तो आप लोग यह आशा कैसे कर सकेंगे कि कोई व्यक्ति इन कर्मकाण्डों के करके भर से पुण्यात्मा बन जायेगा। और स्वर्ग सद्गति जैसा लाभ प्राप्त कर सकेगा।
आगन्तुकों में से प्रत्येक ने यह निष्कर्ष निकाला कि मात्र कर्मकाण्डों से ही कोई पुण्यफल प्राप्त नहीं कर सकता। जैसा कि लौकी न कर सकी। उसके लिए तो जीवन क्रम को संयमी और सेवाभावी बनाने की आवश्यकता पड़ती है। यही सिखाना धर्म कृत्यों का उद्देश्य भी है। तीर्थ स्नान, कर्मकाण्ड इत्यादि को महत्व देने वाले इस तथ्य को भुला देते हैं कि अन्त की पवित्रता व विश्व उद्यान को सुरम्य बनाना ही ईश्वर की सच्ची आराधना एवं पुण्य प्राप्ति का राजमार्ग है। लाखों व्यक्ति सोमवती अमावस्या से लेकर गंगा दशहरा तक पवित्र पुण्यतोया सरिताओं में स्नान कर अपनी गन्दगी से उन्हें प्रदूषित कर देते हैं। पुण्य तो मिलता नहीं, विधाता का रोष अवश्य मिलता होगा। सच्ची तीर्थ यात्रा वही है जिससे कर्मकाण्ड को नहीं, भावना को महत्व दिया गया हो।