महात्मा इब्राहिम (Kahani)

November 1987

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एक आवारा सा आदमी कहीं जा रहा था। रास्ते में आम के बगीचे में होकर गुजरा तो बगीचे के मालिक ने उससे कहा यदि तू चाहे तो बाग की रखवाली की नौकरी यहाँ कर सकता है। वह आदमी तैयार हो गया और बाग की रखवाली की नौकरी करने लगा। जैसी ईमानदारी सावधानी और मेहनत से वह रखवाली करता उससे मालिक भी बहुत संतुष्ट था।

मुद्दतों बीत गयीं रखवाली करने वाले ने उसी काम में वर्षों गुजार दिये। अपनी झोंपड़ी में रहना बताई हुई मजदूरी करना और भगवान का भजन बस यही उसकी नियत दिनचर्या बन गयी।

एक दिन मालिक ने उस नौकर से कहा कुछ मीठे आम तोड़कर लाओ। नौकर गया और कुछ बड़े बड़े पके आम इकट्ठे करके ले आया। आम खट्टे निकले। मालिक झल्लाया उसने कहा तुम्हें वर्षों यहाँ रहते हो गये पर इतना भी नहीं जानते कि किस पेड़ के आम खट्टे और किसके मीठे हैं?

नौकर ने विनीत भाव से कहा मालिक मैं रखवाली वाला नौकर हूँ। किसी दूसरे को इसका एक फल भी चोरी नहीं होने देता तो मैं स्वयं ही चोरी करके फल चाखने लगूँ यह कैसे हो सकता है। इतने वर्षों से बगीचे का एक भी फल मैंने नहीं चखा मालिक की बिना आज्ञा के यदि मैं वैसा करता तो वह चोरी ही तो होती।

ऐसा अद्भुत ईमानदार नौकर उस मालिक ने न देखा था न सुना था। धरती पर ऐसे देवता भी रहते हैं। ऐसा अनुमान तक उसने न किया था। मालिक ने नौकर को काम करने से छुट्टी दे दी और उसी बगीचे में संत के रूप में निवास करने का आग्रह किया।

दूसरे दिन बड़े तड़के ही नौकर वहाँ से विदा हो गया जहाँ संत बनाकर पूजा की जाने लगेगी वहाँ कोई व्यक्ति सचमुच संत न रह सकेगा, यह सोचकर वह आवारा आदमी नौकरी छोड़कर फिर पहले की तरह विचरण करने लगा। यह आवारा आदमी अंत में महात्मा इब्राहिम के नाम से विख्यात हुआ।


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