ग्राह रूपी जीवात्मा की बंधनमुक्ति

November 1987

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गज और ग्राह की कथा है कि गज ग्राह के मुँह में फँस गया। एक पैर उसने निगल लिया और खींचकर जलाशय में लग गया। हाथी ने किनारे पर निकलने की बहुत कोशिश की पर वह निकल न सका। पानी में खिंचता ही चला गया। ग्राह की शक्ति गज से कम न थी। जब हाथी गहराई में चला गया और सूंड़ का सिरा मात्र बाहर रह गया तो उसने बचने की कोई सूरत न देखकर भगवान की पुकार लगाई। भक्त वत्सल आये और उनने ग्राह के मुख से गज को छुड़ाया। इस प्रकार गजेन्द्र मोक्ष का कथानक पूरा हुआ।

इस कथा का अध्यात्मिक रहस्य यह है कि जीव रूपी गज शरीर रूपी ग्राह के मुँह में फँस गया। निकलने का प्रयत्न करने के रूप में वह पूजा पाठ, जप-तप भी बहुत करता है। पर बाहर निकल नहीं पाता। पुरुषार्थ निरर्थक चला जाता है। अन्त में स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि नाम मात्र की सूंड़ का अग्र भाग बाहर रह जाता है और उसकी अपनी समूची ग्राह के क्षेत्र में सरोवर के कीचड़ में फँस जाती है। ग्राह खींचता है। माया रूपी कीचड़ हाथी के भारी भरकम शरीर को और भी अधिक जकड़ती जाती है। फिर निकलना कैसे जा पाए?

आत्म अपने स्वरूप, लक्ष्य, दायित्व को एक प्रकार से पूरी तरह भूल जाती है। उसकी सत्ता शरीराध्यास में पूरी तरह जकड़ जाती है। कहने को आत्मा और शरीर दो नामों से जाने जाते हैं। दोनों की भिन्नता भी सर्वविदित है। इस पृथकता पर आमतौर से चर्चा भी होती रहती है। इतना ही नहीं, इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी आये दिन मिलते रहते हैं। लोग मरते हैं। शरीर को नष्ट कर दिया जाता है। यदि थोड़ी देर भी लाश रखी रहे तो वह स्वयं सड़ने लगती है। सड़न तभी तक रुकी रहती है जब तक प्राण हैं। अन्यथा काया कलेवर उन्हीं तत्वों में मिल जाने के लिए व्यग्र हो उठता है, जिससे मिलकर वह बना था। स्पष्ट है कि काया और आत्मा की सत्त पृथक-पृथक है। आत्मा प्रमुख है। काया उसका वाहन, आवरण, उपकरण। दोनों परस्पर मिल जुल कर काम तो करते हैं, पर उनकी पृथकता बनी ही रहती है।

आश्चर्य इस बात का है कि जीवात्मा अपनी मूलभूत सत्ता, महत्ता, गरिमा और दिशा धारा को पूरी तरह भूल जाता है। शरीरगत इच्छाएँ कामनाएँ, लिप्साएँ जिधर भी चाहती हैं उधर ही उसे घसीट ले जाती हैं। यात्री नाव पर बैठता तो अपनी इच्छा से है, पर बैठने के बाद पराधीन हो जाता है। नाविक असावधान हो तो नाव लहरों के साथ किसी भी दिशा में चल पड़ती है। लहरों की ठोकरें खाते-खाते किसी चट्टान से टकराकर उलट भी सकती है। किसी भँवर में फँसकर डूब भी सकती है। यात्री को तैरना न आया हो तो फिर बेचारे का ईश्वर ही मालिक है।

शरीर उन्हीं पंचतत्वों का बना है जिनसे कि यह चित्र विचित्र आकृति और प्रकृति वाला संसार। इसलिए सजातीय होने के कारण वे एक दूसरे को परस्पर खींचते ओर खिंचते हैं। शरीर को संसार में बहुरंगे स्वादों एवं आकर्षणों में बहुत रस आता है। उसका सोना जागना सब इसी क्षेत्र में होता है। इसलिए असाधारण तन्मयता की डोर में वे गुँथ जाते हैं। मछली और पानी यद्यपि अलग-अलग हैं, फिर भी मछली उसके साथ इतनी तादात्म्य होती है कि साथी के बिना जीवित नहीं रह सकती। शरीर इन्द्रिय लिप्सा और ममता जन्य तृष्णा में पूरी तरह लिपटा रहता है। इन्हें न छोड़ना चाहता है और न साधारणतया यह बंधन टूटता है। भवबंधन इसी को कहा गया है। उसका अर्थ है मनुष्य का लिप्सा लालसा के साथ पुरी तरह जकड़ जाना।

शरीर और संसार के प्रति यह बंधन अत्यधिक घनिष्ठ बन जाते हैं और दोनों की स्थिति अविच्छिन्न जैसी लगती है। इस स्थिति का दुर्विपाक यह है कि आत्मा अपने मूलभूत आधार परमात्मा की ओर से मुँह मोड़कर इस शरीर को ही अपना सर्वस्व मानने लगती है, जो स्वयं जड़ पदार्थों से बनता और उन्हीं में अहर्निश रमण करता रहता है।

मान्यता की दृष्टि से शरीर और आत्मा को पृथक मानने से सैद्धान्तिक रूप से किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए पर व्यवहारतः सब कुछ उलटा ही होता है। ‘स्व’ परक सभी अनुभूतियाँ इसी प्रकार होती है मानो “अहम्” की समूची परिधि शरीर और इच्छा, इच्छाओं एवं मान्यताओं के साथ एकाकार कर चुकी है। अनुभूतियाँ ही अनायास बन जाती हैं। मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता, मानता और करता है, वह समग्र रूप से शरीर से ही संबंधित होता है। शरीरगत स्वार्थ ही इष्ट बन जाता है। आत्म-कल्याण का प्रयोजन साधने वाले परमार्थ की पूरी तरह उपेक्षा होने लगती है।

आत्म ईश्वर का अविनाशी अंश है। उसका सघन संपर्क ब्रह्म चेतना के साथ ही है। मनुष्य जन्म उसकी सर्वोपरि कलाकृति है जो इसलिए मिली है कि उसे धरोहर समझा जाए और परमार्थ प्रयोजन की सिद्धि की जाए। परमार्थ के दो भाग हैं सिक्के के दो पक्षों की तरह एक आत्म-कल्याण, दूसरा लोक मंगल। यही है जीवन लक्ष्य। इसी में इस जन्म की सार्थकता सन्निहित है। किन्तु इसके लिए प्रायः कुछ भी करते धरते नहीं बन पड़ता। शरीर की वासना, तृष्णा और अहंता की जकड़न इतनी मजबूत होती है कि उसे छोड़कर अन्य किसी कार्य के लिए अवकाश ही नहीं रहता। उत्साह ही नहीं जगता। जन्म से मरणपर्यन्त शरीर भाव ही छाया रहता है और उसी की कामना पूर्ति के लिए अर्हर्निशी प्रयास चलता रहता है। आत्म कल्याण के लिए जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए जो किया जाना चाहिए उसे करने में पग-पग व्यस्तता आड़े आती रहती है। अरुचि और उपेक्षा का भाव भी बना रहता है। आत्म प्रवंचना के लिए पूजा पाठ की औंधी सीधी लकीर भर पीटी जाती हैं। मानों ईश्वर मनुहार और उपहार पाने के लिए ही लालायित बैठा रहता हो। उसे उस प्रयोजन की चिन्ता एवं स्मृति ही नहीं जिसके लिए इस सुर दुर्लभ जन्म को बड़ी आशाओं के साथ धरोहर रूप में सुपुर्द किया गया था।

शरीर भाव और आत्म भाव का गुँथ जाना ही माया की ग्रन्थि है। यही हथकड़ी बड़ी और ताले की तरह भवबंधन में बाँधती एवं भ्रम जंजाल में भटकाती है। दोनों की पृथकता का भाव जागृत होने पर कर्तव्य भी बँट जाते हैं शरीर को कार्यरत रह सकने योग्य बनाये रखने के लिए रोटी कपड़ा और मकान जैसी अनिवार्य आवश्यकताओं का प्रबंध करने पर काम चल जाता है और इसके उपरान्त इस कलेवर से उन कार्यों को करने के लिए योजनाबद्ध रूप से अग्रसर होना पड़ता है जो लक्ष्य एवं इष्ट हैं। स्वार्थ को सीमित करके परमार्थ को असीम बनाना ही वह निर्धारण है, जिस अपनाने पर उन विभूतियों की प्राप्ति होती है, जिन्हें स्वर्ग मुक्ति एवं ऋषि-सिद्धि के नाम से जाना जाता है।

परम पुरुषार्थ के नाम से एक ही सफलता को माना गया। है कि शरीर और आत्म की पृथकता एवं विधि-व्यवस्था को भली प्रकार आत्मसात कर लिया जाय। उसी दृष्टि से सोचा और उसी विधि से योजनाबद्ध क्रिया विधान बनाया जाए।

ऐसी सूझबूझ ही ईश्वर की वास्तविक अनुकम्पा है। गज की पुकार पर भगवान चक्र सुदर्शन लेकर दौड़े थे और अपने भक्त को ग्राह के पाश से-सरोवर के दलदल से-उबारा था। शरीराध्यास ही ग्राह है और सांसारिक प्रलोभनों का आकर्षण ही दलदल भरा सरोवर। इससे त्राण पाने में गज सफल हुआ था। देखना है की अपनी जीवात्म को यह सुयोग मिलता है या नहीं।



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