सिद्धि पुरुषों की साधना स्थली देवात्मा हिमालय

November 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सौर मण्डल का पृथ्वी पर क्या प्रभाव पड़ता है? इस जानकारी से किस प्रकार लाभान्वित हुआ जा सकता है? अनिष्टों की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में किस प्रकार सुरक्षात्मक कदम बढ़ाये जा सकते हैं? इसके लिये साधन सम्पन्न वेधशालायें पृथ्वी के अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों में बनाई गई हैं। उनसे जो जानकारियाँ मिली हैं वे अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। यदि उन्हें सामान्य क्षेत्रों में सुविधाजनक स्थानों में बनाया गया होता तो वह लाभ न मिलता जो प्रस्तुत संवेदनशील क्षेत्रों के निर्माण से मिल रहा है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव क्षेत्रों में भी अनेक प्रकार के शोधों के प्रयास चल रहे हैं। वे अत्यन्त खर्चीले भी हैं और जोखिम भरे भी। फिर भी क्षेत्रीय संवेदनशीलता का लोभ संवारण नहीं किया जा सका और जहाँ तहाँ वैसी प्रयोगशालायें बनाने का विचार किया गया। क्योंकि वैज्ञानिक जानते थे कि स्थान विशेष की संवेदनशीलता का लाभ अन्यत्र नहीं उठाया जा सकता।

खग्रास सूर्य ग्रहणों के समय भी उसके फोटो लेने और प्रभाव जाँचने के लिए भी वैज्ञानिक किन्हीं ऐसे स्थानों पर जाते हैं जहाँ से दृश्य की छवि देखी जा सकती हो ऐसे स्थान ही उस शोध प्रयोजन की पूर्ति भली प्रकार कर पाते हैं।

मिश्र के पिरामिड मात्र कब्रें नहीं हैं, उन्हें धरती के एक विशेष क्षेत्र में बनाया गया है, जहाँ से सौर मण्डल के ग्रहों की गतिशीलता की नाम तौल भली प्रकार हो सके। उनकी बदलती परिस्थितियों का लेखा जोखा ठीक प्रकार लिया जा सके। वे सूक्ष्म गणित पर आधारित विशेष प्रकार की वेधशालाएँ हैं। उपयुक्त स्थान तलाश करके उन्हें विशेष कठिनाइयों के साथ बनाया गया है। यदि भूमि का महत्व उतना न रहा होता तो सम्भवतः वे पिरामिड कहीं ऐसे स्थान पर बनाये गये होते जहाँ आवश्यक वस्तुएं सुविधा-पूर्वक मिल सकी होती हैं और कारीगरों का निवास निर्वाह अपेक्षाकृत सरल होता। पिरामिडों के स्थान चयन में सौर मण्डल के विभिन्न प्रभावों का पृथ्वी पर अवतरण ही प्रमुख कारण रहा है।

एशिया के सोवियत क्षेत्र के दक्षिणी भाग में कई स्थान ऐसे हैं, जहाँ अधिकाँश लोग शतायु या उससे भी अधिक समय तक जीवित रहने वाले पाये जाते हैं। इन लोगों का आहार-विहार अन्यत्र रहने वालों की तरह सामान्य ही होता है, किन्तु फिर भी आश्चर्य की बात हय है कि उन्हीं क्षेत्रों में दीर्घजीवी क्यों पाये जाते हैं? इसका सम्बन्ध भी उन प्रदेशों पर अन्तरिक्षीय विशेष किरणों का बरसना एवं वातावरण का विशिष्ट होना माना जाता है। इसे जलवायु की आहार विहार की, विशेषता नहीं माना जाता, वरन् उस क्षेत्र में पृथ्वी और आकाश के मिलन का ब्राह्मी चेतना के स्थान विशेष पर अवतरण का एक अद्भुत संयोग कहा जाता है।

धरातल का सामान्य वातावरण ऋतुओं के प्रभाव से प्रभावित होता रहता है, पर विशेष क्षेत्र ऐसे भी हैं, जिनकी परिस्थितियाँ धरती और आकाश के बीच विशेष प्रकार के सम्बन्ध बाँधने पर निर्भर रहती हैं। उन क्षेत्रों की उर्वरता खनिज सम्पदा, प्राणियों का स्वभाव एवं पौरुष असामान्य रूप से घट बढ़ा पाया जाता है। इसे भूगोल एवं खगोल का विशिष्ट प्रत्यावर्तन कहा जा सकता है। हिमालय का वह भाग जिसे देवात्मा कहते हैं, ऐसे ही विशेषताओं से सम्पन्न है। उस पर भू-चुम्बक एवं अन्तरिक्षीय तरंग वर्षण का प्रभाव देखा गया है। हिमालय बहुत विस्तृत भी है और ऊँचा नीचा भी। उसमें कई पठार भी हैं, किन्तु जो विशेषता देवात्मा क्षेत्र में पाई गई हैं, वे एक नहीं अनेकों हैं। वे विशेषताएँ अन्यत्र नहीं है। इसी कारण उस परिधि के सिद्ध पुरुषों ने अपने लिये उसे क्रिया क्षेत्र चुना है।

रेडियो, टेलीविजन प्रसारण के लिए ऊँचे खम्भे खड़े किये जाते हैं। यह कार्य धरातल पर कारखाना बना कर पूरा नहीं किया जा सकता। कारण कि धरातल पर से जो तरंगें निस्सृत होती हैं, व प्रायः समानान्तर ऊँचाई पर ही चलती हैं। उन्हें ऊँचा फेंकना हो तो विशेष शक्ति का नियोजन करना पड़ता है। किन्तु ऊँचे खम्भों के सिरे पर से जो तरंगें फेंकी जाती हैं वे निर्वाध रूप से लम्बी दूरी पार करती हुई विस्तृत क्षेत्र में बिखर जाती हैं। हिमालय की ऐसी संतुलित ऊँचाई देवात्मा क्षेत्र में ही पड़ती हैं, जहाँ से विश्व के क्षेत्र विशेष को प्रभावित किया जा सके, वहाँ तक विशेष संदेश पहुँचाये जा सकें। सिद्ध पुरुष मात्र अपनी ही निजी साधनाओं तक सीमित नहीं रहते, उन्हें धरातल के विभिन्न क्षेत्रों को वहाँ के विशेष व्यक्तियों को संदेश पहुँचाने पड़ते हैं। इसके लिये उनका आसन ऐसे स्थान पर होना चाहिए जो इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सही ओर संतुलित हो। समुद्रों में खड़े किये गये प्रकाश स्तम्भ भी ऐसी ही ऊँचाई तक उठाये जाते हैं, जहाँ से उनमें जलने वाला प्रकाश जलयानों तक पहुँचने में भली प्रकार समर्थ हो। यदि यह स्तम्भ अनुपात से नीचे या ऊँचे हों तो निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति न हो सकेगी। सिद्ध पुरुषों को प्रसारण भी करना पड़ता है और प्रकाश स्तम्भों की भूमिका भी निभानी पड़ती है। इसी से इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उनने देवात्मा क्षेत्र का अपने लिए चयन किया है। यों सुविस्तृत हिमालय क्षेत्र में अनेक स्थान उससे ऊँचे भी हैं और नीचे भी। सुविधा साधनों की दृष्टि से हिमालय के कई क्षेत्र अधिक पसन्द किये जाने योग्य हैं, पर उनकी उपयोगिता इसलिए नहीं समझी गई कि वहाँ से प्रसारण और संग्रहण का तारतम्य सही रूप से नहीं बनता था।

प्रसारण का तात्पर्य है फेंकना। सिद्ध पुरुष अपनी आत्म शक्ति का एक महत्वपूर्ण भाग समय पर आवश्यकतानुसार फेंकने तो रहते ही हैं। साथ ही उन्हें भी करना पड़ता है कि अन्तरिक्षीय दिव्य प्रभावों को आकर्षित करने अपने में उनका अवतरण अवधारण कर सकें। दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिए शरीरगत और मनोगत साधना ही पर्याप्त नहीं होती। अपने प्रसुप्त केन्द्र का जागरण भी साधना का महत्वपूर्ण भाग है। उतने भर से ही वह महत्वपूर्ण प्रयोजन पूरा नहीं हो जाता। अन्तरिक्ष से भी बहुत कुछ प्राप्त करना पड़ता है। धरातल पर जलाशय क्षेत्र में अनेक उपयोगी पदार्थ और तत्व पाये जाते हैं। पर इससे कहीं अधिक मात्रा उसकी है जो वायु भूत अंतरिक्ष में परिभ्रमण करता रहता है। यह पदार्थ रूप में है ओर चेतना रूप में भी। उसे जल, थल पर पाये जाने वाले पदार्थों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान समझा जा सकता है। उदाहरण के लिये पवन, प्राण, ताप, ध्वनि, प्रकाश, लेसर, रेडियो, तरंगें, ऋतु प्रभाव, वातावरण आदि अनेकों बहुमूल्य तत्व आकाश में ही भरे पड़े हैं। यदि इन्हें आकर्षित एवं संचित किया जा सके तो धरती पर पाई जाने वाली सम्पदा की तुलना में उसे असंख्य गुना अधिक मूल्यवान पाया जा सकता है। फिर मात्र पदार्थ ही नहीं अन्तरिक्ष में चेतना प्रवाह भी असीम मात्रा में भरा पड़ा है। इस सचेतन का अदृश्य लोक में विद्यमान रहने और इसमें परिकर के इर्द-गिर्द भ्रमण करते पाया जाता है। इसमें प्रेत, पितरों से लेकर देव दानव स्तर की अनेकानेक सत्ताएँ परिभ्रमण करती रहती हैं। यों वे अपने रास्ते आतीं और चली जाती हैं। किन्तु प्रयत्नपूर्वक उन्हें पकड़ा और उपयोग में लाया जा सकता है। लोग प्रयत्नपूर्वक जलचरों और नभचरों को भी जाल बिछाकर पकड़ लेते हैं। यह प्रयोग अन्तरिक्ष की सचेतन सत्ताओं के सम्बन्ध में भी हो सकता है। देखना यह होता है कि अन्तरिक्ष के सघन क्षेत्रों के साथ अधिक सरलतापूर्वक संपर्क कहाँ रहते हुए बन सकता है? तत्वदर्शियों ने पाया है कि हिमालय का देवात्मा भाग इसके लिए अधिक उपयुक्त और सुविधाजनक है। अनेक क्षेत्रों की परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करते हुए तत्वदर्शियों ने ‘देवात्मा” भाग को ही अधिक उपयुक्त एवं महत्वपूर्ण पाया है और उसी को अपने समुदाय हेतु साधन प्रयोजनों के लिए सुनिश्चित स्थान नियत किया है।

ताँत्रिक साधनाएँ करने वाले कापालिक अपने प्रयोगों के लिए प्रायः श्मशान भूमि में डेरा डालते हैं, क्योंकि वहाँ का वातावरण और प्रेतात्माओं का जमघट उन्हें अपने लिए अधिक कारगर दीखता है। वहाँ रहकर वे सफलताएँ भी अधिक मात्रा में तथा जल्दी प्राप्त करते हैं। ठीक यही बात उच्चस्तरीय आत्मबल सम्पादन के सम्बन्ध में भी है। जिन क्षेत्रों में देव शक्तियाँ दिव्य आत्माएं सूक्ष्म रूप में बहुलता पूर्वक विचरण करती हैं, वहाँ रहकर निर्धारित साधनाओं में याचित सहायता भी मिलती है और अहैतुकी अनुग्रह भी। मार्गदर्शन, परामर्श भी उन्हें उच्चस्तरीय मिलता रहता है। जिस प्रकार चन्दन के निकट उगने वाले अन्य पौधे भी सुगन्धित हो जाते हैं, उसी प्रकार देवात्मा क्षेत्र में रहने वाले स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरधारी साधना द्वारा अपनी-अपनी रुचि के मनोरथ प्राप्त करते हैं।

थियोसोफिकल सोसायटी के संस्थापकों ने यह प्रतिपादन विस्तारपूर्वक किया है कि हिमालय के देवात्मा भाग में सिद्धपुरुषों की संगठित समिति कार्य करती हैं। उसके फैसले अदृश्य सहायकों द्वारा कार्यान्वित किये जाते हैं। इससे जन साधारण को अनेकों ऐसी सहायताएँ अविज्ञात रूप से प्राप्त होती रहती हैं, जिन्हें वे अपने प्रबल पुरुषार्थ से भी प्राप्त नहीं कर सकते थे। सोसायटी के उपरोक्त प्रतिपादन में बहुत कुछ सचाई है। इस क्षेत्र के साथ सूक्ष्म सम्बन्ध जोड़ सकने वाले अदृश्यदर्शियों ने वैसा ही पाया भी है। साधारण स्थानों में रहने वाले सामान्य जन भी इस क्षेत्र में जाकर थोड़े समय रहने पर भी अपने लिए उपयोगी जीवनतत्व संतोषजनक मात्रा में उपलब्ध करते हैं।

शीत प्रधान वातावरण में वस्तुएँ स्थित एवं अक्षय रहती हैं। गर्मी की अधिकता से जहाँ पदार्थों का क्षरण अधिक मात्रा में होता है, वहाँ यह भी देखा गया है, कि शीत में पदार्थों को देर तक सुरक्षित रखने की क्षमता है। शीत ऋतु में पदार्थ जल्दी खराब नहीं होते। फ्रीज में खाद्य पदार्थ कई कई दिन सुरक्षित रहते हैं। बर्फ में दबाकर रखे गये मृत शरीर लम्बे समय तक यथावत बने रहते हैं। शुक्राणुओं को शीतल करके उन्हें काफल समय तक गर्भाधान के लिए उपयुक्त स्थिति में बनाये रखा जाता है। हिमालय का देवात्मा भाग भी ऐसा है जहाँ स्थूल एवं सूक्ष्म शरीर को अनेक विकृतियों से बचाकर उपयुक्त स्थिति में सुरक्षित रखा जा सकता है। अब तो मृत शरीरों को गहरी शीतलता में दबाकर इस निमित्त भी सुरक्षित रखा जा सकता है। अब तो मृत शरीरों को गहरी शीतलता में दबाकर इस निमित्त भी सुरक्षित रखा जाने लगा है कि कालांतर में उन्हें पुनर्जीवित किया जा सकेगा। इतना निश्चित है कि शीतलता में सुरक्षा अधिक है। सिद्ध पुरुषों को अपनी स्थूल एवं सूक्ष्म कायाओं को सुरक्षित एवं चिरस्थायी बनाये रहने की आवश्यकता अनुभव होती हैं। इसलिये उनने प्रकृति विनिर्मित कोल्ड स्टोरेज वाला ऐसा क्षेत्र चुना है, जहाँ की सहज स्थिति है। अधिक गर्मी की तरह अधिक शीत भी सामान्य क्रिया कलाप में बाधक होती है। इसलिये मध्यवर्ती चयन ही उपयुक्त पड़ता है। सिद्धपुरुषों ने ऐसे ही संतुलित क्षेत्र को अपनी क्रीड़ा भूमि बनाया हुआ है। यह सुरक्षित क्षेत्र है - “देवात्मा हिमालय”


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118