श्रद्धा और गरिमा (Kahani)

November 1987

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एक बहरूपिया राजा को नित नये वेश बदलकर दिखाता, मनोरंजन करता और इनाम पाता। राजा ने एक दिन कहा ऐसा स्वाँग दिखाओ जिससे पकड़े न जा सके। हजार रुपये इनाम मिलेगा स्वाँगों में तो तुम्हारे असली रूप का पता चल ही जाता है।

बहरूपिया चला गया। अपने नगर से बाहर एक पेड़ के नीचे आसन जमाया, कपड़े उतारे भस्म रमाई। मौन धारण किया और धूनी तपने लगा। लोगों को किसी तपस्वी महात्मा के आने की खबर लगी तो हजारों व्यक्ति दर्शनों को पहुँचने लगे।

कोई भेंट, पूजा रखता तो उसे तत्काल दूसरों को बाँट देता। उससे ख्याति और भी बढ़ी। राजा स्वयं दर्शनों के लिए आये और बहुमूल्य भेट साथ लाए। तपस्वी ने उसे भी तत्काल बाँट दिया। राजा की श्रद्धा बढ़ी और उन्हें गुरु मान लिया।

दूसरे दिन बहरूपिया दरबार में पहुँचा, और हजार रुपया इनाम माँगा। राजा ने कारण पूछा बहरूपिये ने कहा मैंने ही महात्मा का स्वाँग बनाया था। आपने मुझे ही गुरु बनाया था। राजा चकित रह गये, साथ ही पूछा मेरे दिये इतने बहुमूल्य उपहार लौटाये और छोटा सा इनाम माँगने आये। इसका क्या कारण?

बहरूपिये ने कहा- वेश को कलंकित नहीं होने दिया। यदि में लेने लगता साधु की गरिमा गिरती और उस से लोक श्रद्धा उठ जाती। तब सच्चे साधुओं को भी लोग संदेह की दृष्टि से देखते। स्वाँग बनाने पर भी उस वेश की गरिमा अक्षुण्ण रखना अपना कर्त्तव्य माना, जिसके सहारे मेरी पूजा हुई और आपको भेंट सहित पहुँचना पड़ा। मुँह माँगा इनाम देते हुए राजा के बहरूपिये की सदाशयता को बहुत सराहा।


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