मिस्र के पिरामिडों के बारे में अनेक जन मान्यताएँ प्रचलित हैं। एक आम धारणा यह भी है कि प्राचीन मिस्र वासियों ने मृतकों के शवों को चिरकाल तक सुरक्षित रखने के लिए तत्कालीन ज्ञान और विज्ञान के अपने अनुसंधान के आधार पर इन संरचनाओं को खड़ा किया था। परन्तु इससे आगे सैकड़ों मील क्षेत्र में फैले इन विशाल पिरामिडों की वास्तविक उपयोगिता क्या थी, आज तक अबूझ पहेली बनी हुई है। इतिहासकार भी इस सम्बन्ध में मौन हैं। आरम्भ काल में इसकी उपयोगिता चाहे कुछ भी रही हो, अब तो यह भुतही जगह मात्र है। प्रेत - पिशाच स्वच्छन्दता पूर्वक विचरण करते देखे जा सकते हैं। जो भी व्यक्ति इनमें ठहरने और जानकारी हासिल करने का प्रयत्न करता है, वे उसका विनाश छोड़ते हैं।
विश्वविख्यात पत्रकार फिलिप बैडन वर्ग ने “द कर्स ऑफ फराओज” नामक अपनी बहुचर्चित पुस्तक में ऐसी अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख किया है जो भौतिक विज्ञान की सीमाओं से परे है। उन्होंने अपने जीवन का अधिकाँश भाग फराओ के मकबरे और ममियों के मध्य व्यतीत किया है। उनके अनुसार पिरामिडों में कुछ स्थान इतने अभिशप्त हैं, जिनमें पहुँचते-पहुँचते लोग काल का ग्रास बन जाते हैं। तूतनखामन का मकबरा उनमें से एक हैं। तूतनखामन का मकबरा उनमें से एक है। इसमें जड़ी हुई शाप सूचक तख्ती की इबारत आज के वैज्ञानिकों के अनुसंधान का विषय बनी हुई है। इसमें प्रवेश करने वाले कितने ही व्यक्तियों के अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। 17 फरवरी 1923 को लार्ड कैनरिवान और हावर्ड कार्टर ने राजा तूतन के मकबरे में प्रवेश किया था परन्तु वे सकुशल वापस नहीं आ सके। तभी से 30 की संख्या में उच्चस्तरीय मूर्धन्य वैज्ञानिकों, पुरातत्त्ववेत्ताओं तथा क्षेत्रों के विशेषज्ञों की इसमें दर्दनाक मौत हो चुकी है।
सन् 1962 में काहिरा विश्वविद्यालय के मूर्धन्य वैज्ञानिक डा. इज्जेहीन ताहा, जो वरदान-अभिशाप जैसी बातों पर तनिक भी विश्वास नहीं करते थे, के साथ एक विचित्र घटना घटित हुई। उनकी मान्यता थी कि पिरामिडों में पाई जाने वाली काई के कारण ही उसमें प्रवेश करने वालों को श्वास और त्वचा की बीमारी हो जाती है जो अंततः जानलेवा सिद्ध होता है। उन्होंने काई को समाप्त करने की योजना बनाई ही थी कि अचानक कारों की भिड़न्त में ही मृत्यु हो गई।
बैंडनवर्ग के अनुसार सन् 1929 तक तूतनखामन के मकबरे को खोलने और उसकी जानकारी प्राप्त करने वाले 22 लोग काल कवलित हो चुके हैं। कई लोग तरह-तरह की आधि-व्याधियों से पीड़ित हैं और अनेकों को अर्धविक्षिप्तों जैसी स्थिति में जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। वैज्ञानिक कहते है कि यह मात्र काई से होने वाली व्याधियाँ नहीं हैं।
विश्व प्रसिद्ध गीजा के ‘महान पिरामिड’ के संबंध में भी यही कहा जाता है कि वह अभिशप्त है। रात्रि में जो कोई भी व्यक्ति इसमें रुकने का प्रयत्न करता है, फराओं की प्रेतात्मा उसे मार डालती हैं।
प्राचीन मिस्र पर खोज करने वाले अंग्रेज पर्यटक पॉल ब्रण्टन ने एक बार इस पिरामिड में प्रवेश करने का दुस्साहस किया और संपूर्ण रात उसी में बिताई। उस समय जो भी दृश्य दिखे और अनुभूत हुए, उसका विशद् उल्लेख उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ए सर्च इन सीक्रेट इजिप्ट” में किया हैं। उसके अनुसार जब वे पिरामिड के अन्दर प्रविष्ट हुए तो परम्परागत ढंग से उस रात भी उसका दरवाजा बन्द कर दिया गया। अकेले ब्रण्टन महोदय उस काल कोठरी के गहन अन्धकार में इधर-उधर घूमते रहे। प्रकाश के लिए उनके पास एक टार्च थी जिसके माध्यम से वे अन्दर की चीजों का निरीक्षण परीक्षण कर रहे थे रह-रह-कर चमगादड़ों के डैनों की फड़फड़ाहट उनके कर्ण-कुहरों से टकराती और वे कुछ भयभीत हो उठते, पर तत्क्षण ही स्वयं को आश्वस्त करते और आगे बढ़ जाते। अन्ततः एक कोठरी में जाकर एक ताबूत के निकट बैठे गये। थोड़ी देर पश्चात् वहाँ क्रूर और भयानक चेहरे प्रकट होने लगे। वे ब्रण्टन को तरह-तरह की धमकियाँ देते दिखाई पड़े, किन्तु वे निर्भय बैठे रहे। अपना रास दिखाने के बाद प्रेतात्माएँ जैसे आयी थीं वैसे ही विलुप्त हो गयीं।
अब वहाँ के वातावरण में प्रशाँति घुली हुई थी। दुष्ट दुरात्माओं के तिरोहित होते ही वहाँ परोपकारी देवात्माएँ प्रकट होने लगी। उनने ब्रण्टन को सावधान किया और महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी दीं। वहीं कई दिव्य आत्माओं से उनका साक्षात्कार भी हुआ।
इस प्रकार गीजा के पिरामिड में किसी व्यक्ति के रात्रि बिताने की अभी तक प्रकाश में आई यह एकमात्र घटना है। इसके अतिरिक्त इस भुतही काल कोठरी में कदम रखने का साहस कोई भी नहीं कर सका। हाँ, उसका एक भाग-राज प्रकाष्ठ में समय-समय पर कई लोगों ने प्रवेश किया है, परन्तु वहाँ के हृदय विदारक दृश्य देखकर एवं डरावनी अनुभूतियों से त्रस्त होकर वे दुबारा उसमें जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। पीटर टाम्पकिन्स नामक सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक ने पिरामिड से बाहर निकलने के पश्चात् वहाँ के बारे में पूछे जाने पर उसे अवर्णनीय बताया था। वे स्वयं बहुत अशक्त एवं पीले पड़ गये थे।
सन् 1789 में फ्राँस के महान विजेता नैपोलियन बोनापार्ट ने 38 हजार सैनिकों को लेकर मिस्र विजय एवं ऐतिहासिक अन्वेषण के लिए प्रस्थान किया था। इन सैनिकों के साथ सैकड़ों पुरातत्व वेत्ता, रसायनशास्त्री तथा गणितज्ञ थे। बड़ी कठिनाई सं सिकंदरिया और काहिरा होते हुए मरुभूमि को पार कर वह गीजा के सबसे ऊँचे पिरामिड पर पहुँचा। वहाँ उसने पिरामिड के अन्दर अकेले ही प्रवेश किया, पर कुछ देर बाद ही उसे बाहर निकलना पड़ा। उसके प्राण अन्दर के दृश्य देखकर सूख गये थे। उस एकांतवास की भयानकता का इसके बाद उसने कभी वर्णन नहीं किया। उस अभिशप्त पिरामिड की छाया उसके ऊपर ऐसी पड़ी कि उसको विजयमाल धारण करने का सुअवसर भी प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि ब्रिटिश एडमिरल नेलसन से बुरी तरह पराजित होकर उसे मिस्र से हटना पड़ा था।
इसी प्रकार “फराओ” के पिरामिड के बारे में भी कहा जाता है कि उसमें अन्दर प्रविष्ट होने वालों का अनिष्ट हुए बिना नहीं रहता। कहा जाता है कि आज से कोई पाँच हजार वर्ष पूर्व मिस्र में सूर्य के उपासक - सविता आराधक “फराओं” नामक राजा का साम्राज्य सारे विश्व में फैला था। उनने स्मृति चिन्हों के यथावत् बनाये रखने के लिए न जाने उन्होंने कौन से विषैले पदार्थों या विषैली गैस का प्रयोग किया था जिससे वहाँ की प्रत्येक वस्तु विषाक्त बनी हुई है। मकबरे के किसी भी वस्तु से छेड़खानी करने पर व्यक्ति को मौत का शिकार होना ही पड़ता है। इस अलौकिक रहस्य को समझने के लिए ही विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक समय-समय पर वहाँ आने का खतरा उठाते रहे हैं।
पिरामिडों पर अनुसंधान कर रहे मूर्धन्य वैज्ञानिकों के अनुसार मिस्र के प्राचीन निवासियों ने अपने मकबरे की सुरक्षा हेतु विषैले ‘प्रुसिक अम्ल’ का प्रयोग किया था। वे इसे नाशपाती के बीजों से बनाते थे और ममियों को उसी अम्ल में भिगोकर रखते थे जिससे वे सुरक्षित भी रहें व उन्हें कोई चुरा न सके। इस अम्ल को एक प्रकार की तीव्र स्नायु विष कहा जा सकता है। उनने मानसिक तनव फैलाने वाले एक और विष की खोज की थी, जिसे क्विक सिल्वर के विषैले गंधहीन वाष्पकणों से बनाया जाता था। मकबरे की खुदाई के समय डा. एवचिन व्हाइट इसी विषाक्त प्रभाव के कारण मृत्यु की गोद में चले गये थे।
कुछ वैज्ञानिकों ने “फराओ के शाप” को रेडियो एक्टिव जैसी कोई करामात माना है, जिससे शारीरिक और मानसिक कमजोरी तथा अंग-प्रत्यंग में शिथिलता का अनुभव वहाँ पहुँचने पर लोगों को परमाणु विज्ञान की भी पूर्ण जानकारी थी। सम्भवतः वे सौर किरणों के साथ आने वाली कास्मिक किरणों को संग्रह कर सड़ सकने वाले शवों को पूर्णतः विज्ञान सम्मत ढंग से बने पिरामिडों में सुरक्षित रखते थे। कृत्रिम ढंग से बने पिरामिडों में सुरक्षित रखते थे। कृत्रिम ढंग से बनाये गये पिरामिडों की उत्तर-दक्षिण धुरी पर विभिन्न सामग्री रखकर देखा गया है कि यह सही है। पिरामिड बने भी भूचुम्बकीय धाराओं के समुच्चय के बीच हैं। “पिरामिडॉलाजी” आज एक भली भाँति विकसित विधा है। केवल अभिशप्त स्थान न कह कर इस संबंध में विशद् अनुसंधान की आवश्यकता है।