ईश्वर दर्शन को भक्तिमार्ग की अर्ध सफलता माना जाता है। जिसकी सेवा, पूजा, नाम रट में इतने दिन से इतना प्रयास रहा। उसे भी तो कुछ पिघलना चाहिए। उसके ध्यान में भी कोई अपना स्थान होना चाहिए। है या नहीं, इसका प्रमाण दर्शन-झाँकी में होना समझा जाता है। इसलिए साधना की सफलता का सच्ची सफलता का अनुभव दर्शन के रूप में होने की अभिलाषा भक्तजनों के मन में रहती है।
उत्सुकता उत्कंठा होना एक बात है- उसका चरितार्थ होना दूसरी। तत्वज्ञानी परमात्मा की व्याख्या विवेचना सर्वव्यापी के रूप में होती है। जो सर्वव्यापी के रूप में होती है। जो सर्वव्यापी है, वह एक जगह अपना स्वरूप समझने लगे तो अन्यत्र काम करने वाली सत्ता का अन्त हो जायेगा और वह ही स्थान की होकर रह जाएगी।
फिर भगवान की झाँकी के लिए कोई रूप भी होना चाहिए। अपनी कल्पना के अनुसार उसे किसी भी आकृति-प्रकृति का गढ़ा जा सकता है। प्रतिमाएँ भी भगवान के सम्बन्ध में विविध कल्पनाओं के रूप में गढ़ी जा सकती हैं। किन्तु मतान्तर वाले उस कल्पना से सहमत नहीं होते। वे किसी दूसरी आकृति की कल्पना कर सकते हैं। यदि एक ही रूप होता तो वह सर्वमान्य रहा होता सूर्य-चन्द्र सर्वत्र एक ही आकृति के दिखते हैं। मतान्तरवादियों के लिए उससे कोई गुँजाइश ही नहीं रहती। वे एक दूसरे से सहमत नहीं हो पाते। इसलिए यह मान्यता वैयक्तिक ही ठहरती है कि ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इसके लिए जब तक सब लोग समान रूप से सहमत न हों तब तक रूप विशेष का सर्वमान्य निर्धारण कैसे बन पड़े?
संसार में अनेक आस्तिक और नास्तिक धर्म है। नास्तिक धर्म में जैन और बौद्ध आते हैं। वेदान्त की प्रकृति वैसी ही है। उनने भगवान की मूर्ति तो नहीं बनाई पर उस स्थान पर उस धर्म के सन्तों, महामानवों संस्थापकों को लगभग वही दर्जा दे दिया। उनकी प्रतिमाएँ भी ईश्वर के समतुल्य सम्मान पाने लगीं। पर काम प्रतिमाओं से ही चल गया। आँख से प्रत्यक्ष भगवान के दर्शन का आग्रह न रहा।
साकारवादियों में ईश्वर के अनेक नाम रूप हैं। उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति भी भिन्न है। कोई उनमें शाकाहारी है कोई मांसाहारी। किसी को बलि चाहिए तो किसी को प्रसन्नता कीर्तन पर अवलम्बित है। ऐसी दशा में भिन्न रूप वाली आकृतियों में से किसे कौन पसन्द आए? फिर भक्तों के सन्तोष के लिए भगवान उनकी आकृति-प्रकृति का रंग रूप कैसे धारण करें? एक की पसन्दगी दूसरे की नापसन्दगी बनती है। फिर भगवान के लिए अलग-अलग लोगों को सन्तुष्ट करने के लिए अनेक प्रकार के आवरण धारण-करना तो बहरूपियों की तरह और भी उपहासास्पद बन जायेगा।
देवताओं का विभाग ईश्वर से सर्वथा पृथक मालूम पड़ता है। वे किसी नियंत्रण में न रहकर किसी नीति-व्यवस्था का परिपालन करते हुए नहीं दिखते। उनका स्वतंत्र अस्तित्व माना गया है। और भक्तजनों ने अपने-अपने देवताओं को दूसरे देवताओं की तुलना में अधिक श्रेष्ठ और शक्तिशाली माना है। महाराष्ट्र में गणेश जी की दत्तात्रेय की प्रमुखता है। दक्षिण भारत में विष्णु, हनुमान एवं शिव प्रमुख हैं। गुजरात में अम्बाजी की महिमा है, बंगाल में काली की। आसाम, उप्रार भारत में कृष्ण पुजते हैं। कहीं-कहीं राम की भी वैसी ही भक्ति प्रकट होती दीखती है। एक भक्त का जब एक से सन्तोष नहीं होता तो वह कई कई देवताओं को अपने पल्ले में बाँधकर उन सभी की पूजा-अर्चा करता है। इस आशा में कि इतने दरवाजों पर भिक्षा माँगने पर कहीं न कहीं से कुछ हाथ लगेगा ही। ऐसी लोगों को यह ध्यान नहीं रहता कि “सात मामाओं का भानजा” भूखा रहता है। हर मामा के यहाँ पहुँचने पर वे अनुमान लगा लेते हैं कि जब अन्य मामाओं के यहाँ होते हुए आया है, तो भानजे का पेट तो भरा हुआ ही होगा।
पिछड़े वर्गों के देवताओं की तो और भी विचित्र दशा है। उनमें हर कबीले का देवता होता है। वही चौथ वसूल करता है और वही सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाता है। यदि कभी स्वागत सत्कार में कमी पड़े तो रुष्ट होकर हानि भी पहुँचाता है और मानने के लिए खर्चीली शर्तें रखता है। एक कबीले दूसरे कबीले के देवता को पूजने लगें तो पहले वाला चिढ़ जाता है और रोष प्रकट करता एवम् हानि पहुँचाता है।
दर्शन देने की शर्त तो इस माने में होती है कि उनने अपनी ओर से आवागमन शुरू किया या नहीं? हमारी भक्ति को मान्यता मिली या नहीं? वास्तविक मनोरथ तो इसके बाद शुरू होते हैं। भौतिक कामनाएँ, लालसाएँ विपत्तियों का निवारण और सुविधाओं का सम्वर्धन ही होता है। वह मनोरथ, जिसके लिए परिस्थितियों के अनुरूप वरदान माँगे जाते हैं।
स्वप्न में या किसी अन्य वेश में भी दर्शन हो जाने की कल्पना कर ली जाती है। तथाकथित भक्तजनों की माया बड़ी विचित्र है। किसी व्यक्ति विशेष पर देवता का आवेश आ सकता है और वह उछलने-कूदने लगता है। देवता की ओर से परामर्श भी देने लगता है। भविष्यवाणियाँ भी करता है। पिछड़े वर्गों में देव दर्शन की लालसा इस आवेश से भी पूरी होती है।
देवताओं के एजेंट ओझा झोपा इस प्रयोजन की पूर्ति आसानी से कर देते हैं। कठिनाई उनको होती है, जो भावुकता के वशीभूत हैं और अमुक भगवान की अमुक आकृति से उनके सम्मुख प्रकट होने की माँग करते हैं। ऐसे लोग या तो निराश हो जाते हैं या अपने को दर्शन देने की बात विज्ञापित करके देवता के असली भक्त एवं सिद्ध पुरुष बन बैठते हैं। फिर वे भी मूर्खों के बीच एक नये सिद्ध पुरुष के रूप में पुजने लगते हैं।
इस प्रकार की मान्यताएँ बेतुकी है। तत्वतः भगवान निराकार है। उसकी विश्व व्यवस्था को सुसंतुलित सृष्टि व्यवस्था चलाती है। नियम रूप में उसे इन्द्रियों की सहायता में नहीं देखा जा सका। भावना और विवेक द्वारा ही उसका अनुभव होता है।
यदि आँखों से ही भगवान को देखना हो तो वह तरीका है जो भगवान ने अर्जुन को- कौशल्या को काकभुशुंडि को विराट ब्रह्म के रूप में दिखाया था। इसी को घट घटवासी सर्व नियन्ता समझ कर यह मानना चाहिए कि यही विराट रूप भगवान है। इसे श्रेष्ठ, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाना ही ईश्वर की पूजा है। मनुष्य को अनगढ़ से सुसंस्कारी बनाने के लिए जो प्रयत्न किया जाए, समझना चाहिए कि वह सब कुछ भगवान के निमित्त किया गया है। भगवान को प्रसन्न करना उनके दर्शन पाकर नहीं उनके विश्व उद्यान को सुरम्य बनाकर ही सम्भव है। इसी भावना को मन में बनाये रख आस्तिकता की अपनी भावना को सतत् बल दिया जा सकता है।