व्यक्तित्व परिष्कार हेतु गहराई तक प्रवेश करना होगा

November 1987

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आहार विहार की उपयुक्तता का स्वास्थ्य पर प्रीव पड़ने की बात गलत नहीं है। पर विज्ञान के बढ़ते हुए कदम अब यह सिद्ध कर रहे हैं कि न केवल स्वास्थ्य संगठन का वरन् पीढ़ियों की आकृति प्रकृति का सम्बन्ध भी अधिक गहराई तक इस तथ्य से जुड़ा हुआ है। यह गहराई है जीव कोशिकाओं की जो परम्परागत “जीन्स” तथा अविज्ञात आधार पर खड़े हुए हारमोन स्रावों की जो शरीर की आकृति-प्रकृति से बहुत कुछ सम्बन्ध स्थापित करती है।

वंशानुक्रम विशेषताओं को चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्तों के अनुसार प्रजनन के लिए एक कच्ची सामग्री भर समझा जाता रहा है। ज्यों ज्यों विज्ञान ने प्रगति की वैसे ही सन्तति विकास में वंशानुक्रम की मान्यताएँ भी परिवर्तित होती रही हैं। डार्विन के पश्चात् ग्रेगर मेण्डल ने वंशानुक्रम को भलीभाँति समझा और उन नवीनतम सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया, जिन्हें वंशानुक्रम की कुँजी के नाम से जाना जाने लगा। लेकिन दुर्भाग्यवश यह महत्वपूर्ण कान जन-साधारण की दृष्टि में नहीं आया। सन् 1900 में उनके प्रतिपादनों को पुनः खोजा गया। जिसे बाकायदा “हेरेडीटी” नाम दिया गया। शैनेः शैनेः खोजों का क्रम जारी रक्खा गया। मेण्डेल ने प्रजनन से सम्बन्धित उन सभी नियमों को खोज निकाला जिनमें मानवी विशेषताएँ वंशानुक्रम का निर्धारण करती हैं। लेकिन तात्कालिक विज्ञ समुदाय ने पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में इन्हें विज्ञान सम्मत होने की पुष्टि नहीं दी। किन्तु उनकी मृत्यु के पश्चात् जब इस दिशा में पुनः शोधकार्य आरम्भ हुआ तो वैज्ञानिकों को वही सारे परिणाम प्राप्त हुए जिसके बारे में वर्षों पूर्व मेण्ड ने बताया था इस प्रकार आनुवाँशिकी का जनक कहलाने का उन्हें श्रेय प्राप्त हुआ। मगर मेण्डल ने पौधों के बाह्य आकार-प्रकार को लेकर प्रयोग परीक्षण किये थे, अस्तु उनके परिणाम भी उन्हीं पर आधारित थे। वे इस बात को बताने में सर्वथा असमर्थ रहे, कि आखिर इन गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने के लिए जिम्मेदार कौन है? इस कारण की खोज आगे के वैज्ञानिकों ने की। जर्मनी के “आगस्टम वेजर्मेन” का नाम इस क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय है। उन्हीं ने प्रथम बार यह बताया कि कोशिकाओं के नाभिक में पाया जाने वाला “न्यूक्लियर थ्रेड” अथवा गुणसूत्र ही वे मूलभूत कारक हैं, जो माता-पिता के गणों को पुत्र तक ले जाने की भूमिका संपन्न करते हैं। इतना ही नहीं उनने यह भी बताया कि संतति की कोई अपनी निजी विशेषता नहीं होती वरन् उसमें माँ बाप दोनों के गुणों का सम्मिश्रण होता है। इस प्रकार यदि चाल ढाल, बात व्यवहार पिता से मिलते हैं, तो सम्भव है नाक-नक्श, रूप रंग माँ के समान हो।

गुणसूत्रों के बारे में इतनी जानकारी मिलने के बाद वैज्ञानिक इसके और गहन अध्ययन में जुट पड़े जिसके उपरान्त यह जानना सम्भव हो सका कि पुरुषों और महिलाओं में यह दो भिन्न प्रकार के होते हैं। पुरुषों में एक्स वाई तथा महिलाओं में एक्स-एक्स प्रकार के पाये जाते हैं। शोधों से कई ऐसे नये तथ्य भी हाथ लगे, जिनकी पूर्व के वर्षों में जानकारी नहीं थी, यथा “क्यों किसी विशेष नस्ल के लोगों की आयु अन्यों की अपेक्षा अधिक होती है और क्यों कोई अल्पायु होता है? वर्णान्धता और अधिरक्तस्राव की व्याधियों से पुरुष वर्ग ही अधिक पीड़ित होते क्यों देखे जाते हैं आदि। “अनुसंधान के दौरान इन सभी के मूल में गुणसूत्रों सम्बन्धी संरचना ही मुख्य कारण ज्ञात हुआ। अध्ययनों से यह भी पता चला कि हर क्षेत्र की भाँति यहाँ भी अपवाद देखने को मिला। मनुष्यों में यह प्रायः 46 की संख्या में होते हैं, किन्तु कई लोगों और विशेष कर मंगोलियनों में इनकी संख्या 47 पायी गयी। इस अतिरिक्त गुण सूत्र का प्रभाव उनकी शारीरिक व मानसिक संरचना में स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आता है। ज्ञातव्य है कि मंगोलियनों के चेहरे की बनावट अन्य जातियों से नितान्त भिन्न प्रकार की होती है।

इस विशेष चेहरे के लिए आनुवाँशिक शास्त्री उसकी कोशिकाओं में विद्यमान एक अतिरिक्त ‘वाई’ गुणसूत्र को ही जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि उसकी आन्तरिक संरचना में इससे आक्रामकता और अवाँछनीयता की वृद्धि होती है। इस आधार की पुष्टि तब और सुदृढ़ हो गई, जब सन् 1960 में इंग्लैण्ड के एक ऐसे व्यक्ति का सूक्ष्म अध्ययन किया गया जो आक्रामक प्रकृति का था एवं जीवन में अनेक हत्याएँ कर चुका था। परीक्षणों से ज्ञात हुआ कि उसके व्यक्तित्व की 11 प्रकार की त्रुटियों के लिए मात्र उसका एक अतिरिक्त गुणसूत्र ही उत्तरदायी है, पर गुणसूत्रों की संख्या में वृद्धि सर्वदा अवाँछनीय ही नहीं होती। कभी-कभी उससे अच्छे गुण भी विकसित हो जाते हैं।

कोल्चीसिन औषधि को क्रौकस नामक पौधे से निकालते समय गुणसूत्रों की संख्या में मूल पौधे से कई गुनी अधिक वृद्धि हो जाती हे, किन्तु इस प्रक्रिया से इस पौधे में कोई अन्यथा परिवर्तन नहीं होता, वरन् उसकी नस्ल में और अधिक सुधार हो जाता है। परीक्षणों के दौरान इससे पौधे की प्रजनन क्षमता व उत्पादकता और अधिक सबल समर्थ होते देखी गयी, कारण कि इससे पौधे की प्रजनन क्षमता व उत्पादकता और अधिक सबल समर्थ होते देखी गयी, कारण कि इसमें एक से दूसरे पौधे में गुण सूत्रों के हस्तान्तरण की प्रक्रिया में उपयोगी जीन पहुँचाये जाते हैं, जो नस्ल उन्नत बनाने में महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। अब इसी प्रक्रिया द्वारा नस्लों में सुधार विकास सिर्फ वृक्ष वनस्पतियों एवं छोटे आकार के जन्तुओं तक में ही उचित होगा। मनुष्यों के साथ इस प्रकार के प्रयोग परीक्षण में खता सदा इस बात का बना रहेगा कि इस प्रक्रिया के दौरान कहीं कोई हिटलर मुसोलिनी, रुडाल्फ हेस अथवा क्लाउस बार्बी (लियोन का कसाई) स्तर का व्यक्तित्व न पैदा हो जाय, जो समय और समाज दोनों के लिए ही घातक सिद्ध हो। ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि व्यक्तित्व में निकृष्टता और उच्छृंखलता पैदा करने वाले “जीन्स” की कटाई छँटाई कर मनुष्य के व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और उदात्त बनाया जाय। इस दिशा में सफलता अमेरिका के डॉ. होपवुड को मिली है। उनने हाइब्रिड तकनीक” नामक एक ऐसी विधि ढूँढ़ निकाला है, जिसके अंतर्गत जीन्स की मरम्मत एवं प्रत्यारोपण दोनों सम्भव हो सकेंगे। इस प्रणाली द्वारा उत्पन्न तीन प्रकार की जीनों (1) एक्टीनोरहिडीन (2) मेडरमाइसिन (3) ग्रेण्टीसिन द्वारा शरीर में उन रसायनों व एन्जाइमों की कमी पूरी की जा सकेगी, जिसके कारण शरीर स्वास्थ्य लड़खड़ाने व रुग्ण बनने लगता है। इस प्रकार इस प्रक्रिया द्वारा जहाँ एक ओर दोष दुर्गुण व रोगात्मक जीन्स में सुधार परिवर्तन शक्य होगा, वहीं दूसरी ओर श्रेष्ठता वर्धक जीन्स का प्रत्यारोपण कर मनुष्य की गुणवत्ता बढ़ाना भी सम्भव हो सकेगा।

गुणवत्ता सम्बन्धी समस्या के अतिरिक्त मनुष्य के साथ इन दिनों जो एक और समस्या जुड़ गई है, वह है उसकी अल्पायुष्य की। आजकल व्यक्ति की औसत उम्र 50-55 के बीच रह गई है, अतः स्वस्थता, गुणवत्ता के साथ-साथ आयुष्य वृद्धि की बात भी आवश्यक समझी जा रही है। वैज्ञानिक अब इस क्षेत्र में भी जीन क्रान्ति लाने का विचार कर रहे हैं। इस संदर्भ में विश्व की अनेक प्रयोगशालाओं ने काम करना भी प्रारम्भ कर दिया है। न्यूयार्क के “नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजिंग” के प्रख्यात जैवरसायनज्ञ रिचर्ड कटलर व मूर्धन्य आनुवाँशिक शास्त्री मंक्रेस एक ऐसे रसायन की खोज में जुटे हैं, जो आयु के लिए जिम्मेदार जीन को उद्दीप्त कर सके। वस्तुतः प्रत्येक शरीर कोशिका में छः जीन्स का एक “सुपर जीन समूह” होता है। जब इस पर किसी स्वतन्त्र मूलक का आक्रमण होता है, तो प्रतिक्रिया स्वरूप ये एस.ओ.डी. नामक आयुवर्धक एन्जाइम साबित करने लगते हैं। रिचर्ड कटलर का कहना है कि किसी प्रकार यदि इन जीन समूह को धोखा देकर उनमें यह भ्रम पैदा किया जा सके कि उसकी कोशिकाओं के चारों ओर बहुत सारे स्वतन्त्र मूलक हैं, तो भ्रान्ति में पड़ कर जीन्स एस.ओ.डी. एन्जाइम साबित करने लगेंगे और इस प्रकार कोशिका और व्यक्ति की जीवन अवधि में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी सम्भव हो सकेगी। यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का मेडिकल सेन्टर, ओमाहा के डेनहाम हरमन ने भी इस परिकल्पना का समर्थन करते हुए मत व्यक्त किया है कि यह सम्भव है। यदि ऐसी कोई विधि निकट भविष्य में खोज ली गई, तो इससे जीवन अवधि 5-15 वर्ष तक बढ़ायी जा सकती है।

आनुवांशिकी के वैज्ञानिकों के यह प्रयास निश्चय ही सराहनीय है और यदि जीन अभियाँत्रिकी द्वारा आयु स्वास्थ्य व व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले यह उपाय उपचार सम्भव हुए भी तो वे इतने महंगे व मुश्किल भरे होंगे कि सबके लिए एवं सब जगह उपलब्ध न हो सकेंगे। ऐसी स्थिति में हमें किसी ऐसी विधि की तलाश करनी चाहिए जो सर्वसुलभ भी हो और जिसमें कोई खर्च भी न पड़े। ऐसे में ध्यान अनायास अध्यात्म विज्ञान की ओर जाता है। जिस कार्य को भौतिक विज्ञान कठिन व मुश्किल भरा मानता है वह इसमें अपेक्षाकृत अधिक सरल सम्भव बन जाता है। अप्रैल जीन विज्ञानी डॉ. क्रुक शैन्क भी इसकी उपदेयता स्वीकार करते हुए कहते हैं कि अध्यात्म साधना विज्ञान की रहस्यमयी सम्भावनाओं में यह तथ्य कुछ सुगमता से क्रियान्वित किया जा सकता है कि मनुष्य हर दृष्टि से उन्नत बन सके। सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व सम्पन्न संतति की निर्मिती ऐसे ही उपचारों से सम्भव है जो मानवी अन्तराल की गहराई में संस्कार चेतना से अन्त सत्ता को अनुप्राणित कर दें।


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