जीव जन्तुओं की भाषा-भाव भंगिमा

November 1987

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भाषा भगवान ने सबको नहीं दी है; पर भाव सब को ही दिये है। सुख, दुःख, भय, आशंका, प्रसन्नता, आशा जैसे भले-बुरे अवसर परिस्थिति वश सभी के सामने आते रहते हैं। इसमें मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी शामिल हैं।

जिन्हें जीभ मिली ही नहीं, उनकी बात दूसरी है। वे अपना मन मसोस कर रह जाते हैं अथवा समूचे शरीर की छटपटाहट से अपनी पीड़ा का परिचय देते हैं।

मछलियाँ प्रसन्न होने पर क्रीड़ा-कल्लोल करने लगती हैं और जब उन्हें पानी से निकाल कर प्राण हरण किया जाता है, तो उनकी छटपटाहट प्रत्येक भावनाशील का हृदय हिला देती हैं।

पशु पक्षियों को जीभ-मिली है। वे उसके माध्यम से अपने भाव प्रकट करते रहते हैं। उनके साथी सहयोगी उस शब्दावली के माध्यम से यह अनुमान लगा लेते हैं किस उस पर क्या बीत रही है, और अपनी अनुभूतियों को साथियों पर कैसे प्रकट करना चाहता है। यद्यपि अभी तक ऐसा कोई शब्दकोश नहीं बना, जिससे जाना सके कि किस प्राणी को अपने मनोभाव दूसरों पर प्रकट करने के लिए किस शब्दावली का प्रयोग करना पड़ता है?

भावना अन्तःकरण की भाषा है। वह प्रकट हुए बिना नहीं रहना चाहती। कोई प्राणी घुटन में आबद्ध नहीं रहना चाहता। अपने व्यक्तित्व का परिचय देने और मनोभावों को प्रकट करने की इच्छा उन सभी प्राणियों में होती है, जिन्हें जिव्हा मिली हुई है, भले ही वह मनुष्य की तरह क्रमबद्ध रूप से वार्तालाप न कर सके; किन्तु अपने भावों को तो किसी-न-किसी रूप में प्रकट कर ही देते हैं।

बाज, बिल्ली, साँप, गोह आदि किसी भी आक्रामक जानवर की निकटता अनुभव करते ही छोटे पक्षी इकट्ठे होकर चहचहाने लगते हैं। इसके कई उद्देश्य होते हैं - एक तो सब साथियों का एकत्रित - संगठित होना, दूसरे साथ-साथ मिल कर शोर मचाना, ताकि शत्रु यह न समझे कि यह एकाकी है, इसलिए हमला किया जा सकता है, तीसरा यह कि समीपवर्ती क्षेत्र में उस समुदाय की कोई और बिरादरी वाला हो तो वह भी साथ हो जाय, बचाव का उपाय करे।

प्रसन्नता के अवसर पर भौंरे, कोकिल, मोर आदि विशेष वाणी बोलते हैं। उन शब्दों को मानवी भाषा में अर्थ तो नहीं किया जा सकता; पर इतना अवश्य जाना जा सकता है, कि यह पक्षी वर्तमान परिस्थितियों में प्रसन्न है।

सिंह अपनी दहाड़ से वन्य पशुओं को भयभीत करके उनके मनोबल को गिराता है, साथ ही सूचना देता है कि इस क्षेत्र में उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी हो, तो चला जाय अन्यथा परस्पर भिड़ने का खतरा है। प्राणियों में वाणी की अपेक्षा गंध कारगर है। वे अपने घर, देश, दिशा को गंध के आधार पर पहचान लेते हैं। हिरणों का तो यह स्वभाव ही होता है कि वन के जिस भाग में वे निवास करते हैं, उसके वृक्ष वनस्पतियों में एक विशेष प्रकार की गंध छोड़ देते हैं ताकि दूसरे हिरण उस क्षेत्र में घुसपैठ न कर सकें और यदि अनधिकार प्रवेश जरूरी ही हुआ तो, वे नये सिरे से उस वन्य प्रदेश की वनस्पतियों को काट-छाँट कर उसकी गंध मिटा देते और अपनी नई गंध डाल कर उस क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लेते हैं। प्रणय-निवेदन भी वे गंध के आधार पर ही करते हैं। जिनकी आँखें कमजोर हैं, वे भी गंध के आधार पर अपने शिकार को, प्रेमी को, आक्रान्ता को आसानी से पहचान लेते हैं।

भाव-भंगिमा हर प्राणि की मनुष्य से मिलती-जुलती हैं। शब्द न समझे जा सकें, तो आकृति, भाव भंगिमा देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन प्राणी अपनी क्या भाव-भंगिमा व्यक्त करना चाहता है। क्या मात्र बोल लेने व वाक्चातुर्य मात्र से किसी की मूर्ख बना लेने से ही मनुष्य इन शुद्र जीवों से बड़ा मान लिया जाना चाहिए?


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