जो दृश्यमान है वह एक छलावा है।

November 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वेदांत दर्शन कहता है जो कुछ भी प्रत्यक्ष है दृश्यमान है, वह नित्य नहीं है, यथार्थ नहीं है, अपितु सतत् परिवर्तनशील है, अवास्तविक है। फिर सत्य क्या है? उसे प्राप्त कैसे किया जाय? इस दृश्य जगत के कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।

प्रकाश को ही ले व उसका विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि उसमें विद्युत चुम्बकीय लहरें मात्र हैं। एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील की तीव्र गति से चलने वाले प्रकाश अणुओं को सात रंग की किरणों में विभक्त किया जा सकता है। इन कारणों को न्यूनाधिकता ही रंग-भेद का कारण है।

सामान्यतया कहा यह जाता है कि संसार में एक वस्तु एक रंग की है, दूसरी अन्य रंग की। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। किसी भी वस्तु का अपना निज का कोई रंग नहीं है। जिस विशेष रंग की किरणों को वह पदार्थ अवशोषित न कर उसे वापस कर देता है, वे जब आँखों के ज्ञान तन्तु से टकराती हैं, तो वह पदार्थ उसी रंग का मालूम पड़ता है।

इसी तरह दिखाई देने वाले सभी पेड़ पौधे बिना किसी रंग के हैं। पर वे प्रकाश की हरी किरणें अवशोषित न कर पाने के कारण हरे रंग के प्रतीत होते हैं। हम इसी प्रतीति को सनातन सत्य मानते रहते हैं। यदि कोई इस मान्यता के अलावा और कुछ कहे तो उसकी बात पर हँसते हैं, और उस भ्रान्त, दुराग्रही जैसी संज्ञा देते हैं। जबकि सच्चाई यही है कि प्रकृति की जादूगरी, कलाबाजी हमें छलावा दे रही है। पेड़ पौधे तो एक उदाहरण हैं। अन्य सभी रंगों के बारे में भी हम भ्रम जाल में ही पड़े हैं।

काला रंग हमको सबसे गहरा लगता है और सफेद रंग को रंग ही नहीं मानते, जबकि बात इससे सर्वथा उलटी है किसी भी रंग का न दिखना काला रंग है और सातों रंग का मिश्रण सफेद रंग। घनघोर छाया अँधेरा कुछ भी नहीं है। इसीलिए वैशेषिक दर्शन अँधेरे को कोई पदार्थ नहीं मानता जबकि अन्य चिन्तक उसे एक तत्व विशेष की मान्यता देने में खूब जोर लगाते हैं। होता यह है कि कालिमा अपने में सभी प्रकाश किरणों को शोषित कर लेती हैं और हम अँधेरे में ठोकर खाते रहते हैं।

जबकि सफेद रंग किसी भी किरण को नहीं सोखता है। उससे टकराकर सभी प्रकाश तरंगें वापस आती हैं और आँखों से टकराने पर सातों रंगों का समूह हमें सफेद लगता है। कैसी विचित्रता है? एक प्रकार का इन्द्रजाल है, जिसे स्वीकार करने का मन नहीं होता अस्वीकार भी नहीं कर सकते। इन वैज्ञानिक सिद्धियों को अमान्य कैसे ठहराया जाय।

एक सवाल और है कि प्रकाश किरणों में रंग कहाँ से आता है।? इसका उत्तर और भी विचित्र है। इन प्रकाश तरंगों की लम्बाई में पाया जाने वाला अन्तर (वेव लेंग्थ) ही रंगों के रूप में दिखता है। सही माने तो रंग नाम की चीज इस दुनिया में है ही नहीं।

विद्युत चुम्बकीय तरंगें ही प्रकाश है। इनकी तरंग दैर्ध्य की भिन्नता का अनुभव मस्तिष्क भिन्न-भिन्न तरह से करता है। अनुभूति की यह भिन्नता ही भिन्न रंगों के रूप में प्रकट होती है। सातों रंग एवं इनके परस्पर मिलने से बनने वाले विविध रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रकाश तरंगों की तरंग दैर्ध्य का विवेचन मस्तिष्कीय अनुभूति से ही कर सकना सम्भव है। रंगों की अपनी यथार्थ सत्ता कुछ भी नहीं।

आँखों का यह धोखा मस्तिष्क का बहकना, रंगों के संसार में प्रथम पग रखते ही स्पष्ट हो जाता है। अन्य विषयों में भी हम किस तरह से भ्रमित हैं, कोई ठिकाना नहीं। हमारे जीवन का लक्ष्य, प्रयोजन और स्वरूप क्या है? यह तो पूरी तरह से भूल चूके हैं, और जानने की चिन्ता भी नहीं। अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण जड़ जगत में अपनी मान्यता को भिन्न-भिन्न तरह से फैला कर प्रिय-अप्रिय के रूप में मान बैठे हैं। आत्मज्ञान की दिव्य दृष्टि यदि हम पा सके तो जान सकेंगे की किस अज्ञान के दल दल में जा फँसे हैं। इससे उबरने बिना सत्य का साक्षात्कार कर सकना असम्भवप्राय है।

वेदान्त दर्शन संसार को मिथ्या कहता है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि दृश्यमान जगत का सर्वथा अस्तित्व नहीं। वर्तमान स्वरूप और स्थिति में यह सभी भी है। यदि ऐसा न होता तो पुण्य पाप कर्तव्य अकर्तव्य का बोध कैसे होता?

संसार को माया या मिथ्या कहने का अर्थ यह है कि जो भासित हो रहा है तात्विक दृष्टि में वह यथार्थ नहीं संसार में जैसा कुछ प्रतीत हो रहा है, क्या सही माने में यह ऐसा ही है? इस प्रश्न पर यदि गम्भीरतापूर्वक चिन्तन किया जाय तो यह तथ्य सामने आता है कि इन्द्रियों के द्वारा संसार की जो प्रतीति हो रही है, यथार्थता उससे अलग है। इन्द्रियों के द्वारा मस्तिष्क को होने वाली अनुभूतियाँ तभी सही हो सकती हैं, जबकि इन्द्रियों में यथार्थ स्वरूप के बोध कराने क्षमता हो।

वैज्ञानिकों द्वारा दिए गये प्रमाणों पर विचार करने से स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में हुए एक प्रयोग के दौरान वैज्ञानिकों ने परीक्षण हेतु एक व्यक्ति को सम्मोहित करके उसे सुला दिया, फिर उसके गले पर एक छुरी स्पर्श स्तर तक चुभाई जिससे खून की एक बूँद निकल पड़ी। इसके बाद सकी सम्मोहन निद्रा तोड़ दी गई। इस सारे प्रयोग में कुछ ही मिनट लगे। व्यक्ति के द्वारा सोने में लगा समय तो मात्र कुछ सेकेंड ही था। इन कुछ सेकेंडों में उस व्यक्ति ने एक लम्बा सपना देखा था।

डा. रोशे ने उस स्वप्न के बारे में बताते हुए लिखा है कि इस थोड़े से समय में उस व्यक्ति ने एक आदमी की हत्या कर दी, महीनों लुकता छिपता रहा। बाद में पुलिस द्वारा पकड़ा गया। जज ने मृत्यु दण्ड भी दिया। फाँसी के तख्ते पर चढ़ ही रहा था कि अचानक नींद खुल गई।

यह प्रयोग आइन्स्टीन के समय के सिद्धान्त की सचाई परखने हेतु किया जा रहा था। जिसके अनुसार समय का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। समय दो घटनाओं की दूरी मात्र है, जिससे कुछ भी होना सम्भव है। पर मनुष्य को अपनी अनुभूति और ज्ञान के आधार पर वह बड़ा सा छोटा लगता है।

तो क्या समय भी कुछ नहीं है? सुबह से शाम तक 24 घण्टों में हम कितने ही काम करते हैं। घड़ी भी चलती है कुछ स्पष्ट प्रतीत भी होता है। पर आइन्स्टीन की भाषा में यह भ्रम ही है।

वेदान्त दर्शन भी आइन्स्टीन की इस व्याख्या से सहमत है। माया वही है जो नहीं होने पर भी भासित हो। आचार्य शंकर माया यथा जगर्त्सवमिदं प्रसूतों अर्थात् माया से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है कहते हैं।

आइन्स्टीन से पूर्व की वैज्ञानिक मान्यता थी कि इन्द्रिय बुद्धि मन द्वारा अनुभव होने वाला यह संसार सत्य है। हम दौड़ रहे हैं, बैठे हैं, जाग रहे हैं समय अपनी बँधी बँधाई रफ्तार से भागता जा रहा है। पर आइन्स्टीन के सापेक्षिकता सिद्धान्त ने इस मान्यता को ध्वस्त कर दिया है और अब पूरी तरह से सिद्ध हो गया है कि समय कुछ घटनाओं का समुच्चय भर है। घटनाओं के न होने पर समय का अस्तित्व नहीं और घटनाएँ भी द्रष्टा की अनुपस्थिति हैं।

अपनी घड़ी में समय का आँकलन अर्थात् 60 सेकेंड का मिनट 60 मिनट का एक घण्टा और 24 घण्टे का एक दिन। यह सूर्य की परिक्रमा लगा रही पृथ्वी के अपने कक्ष में एक बार घूमने लगा यह है। लेकिन मंगल शुक्र अथवा चन्द्रमा के लिए यह समान नहीं होता। वहाँ दिन रात चौबीस घण्टे के नहीं होते अर्थात् वहाँ के मापदण्डों का निर्धारण भिन्न होता है।

आइन्स्टीन के अनुसार समय इसी तरह की घटनाओं पर निर्भर है। सोते हुए व्यक्ति के लिए बाह्य जगत में भले 10 मिनट का समय लगा हो। पर वह जो स्वप्न देख रहा था, उसके इन 10 मिनटों में ही 10 वर्षों की घटनाएँ घटित हो जाती हैं तो उस समय उसके लिए यह कहना सही होगा कि 10 मिनट बीत गए अथवा यह कि 10 वर्ष बीत गए।

वस्तुतः व्यक्ति विशेष के अपने परसेप्शन (बोध) पर निर्भर है कि समय तेजी से बीत जा रहा है धीमी गति से। घटनाओं के अलावा समय का अस्तित्व दृष्टा के बोध पर भी निर्भर है। कई बार लगता है कि समय बिताए नहीं बीतता। किसी जगह अति आवश्यक कार्य से जल्दी पहुँचना हो तो रेल आने में पाँच मिनट की दे भी घण्टों सी लगती है। कारण यह है कि उद्विग्न, तनावपूर्ण मानसिकता में व्यक्ति उस समय होता है। जबकि विवाह आदि सुखद समारोह में कई दिन का समय भी कब बीत जाता है? पता नहीं चलता। उस समय यह बोध शक्ति पूरी तरह तन्मय हो जाती है और समय भागता प्रतीत होता है।

इसी तरह मच्छर, मक्खी का जीवन भले ही हमें कुछ घण्टों का लगे पर उनके लिए मनुश्रु की पूरी आयु 80 -90 साल के बराबर ही होती है। इसी काल में ही वह बच्चा जवान बूढ़ा सब कुछ हो जाता है। हमारे अनुसार कुछ घण्टे और अपने अनुसार वह 80-90 साल की उम्र पूरी कर मर जाता है इसका कारण प्रत्येक जीव जन्तु की बोध शक्ति भिन्न-भिन्न है और उसी के अनुसार समय भी सिमटता फैलता है।

सापेक्षता के सिद्धान्त के अनुसार समय की चाल घटनाओं, बोध शक्ति के अतिरिक्त गति पर भी निर्भर है। इस नियम के अनुसार गति का समय पर ही नहीं, जगह पर भी प्रभाव पड़ता है। उसके अनुसार गति जितनी बढ़ेगी समय की चाल उतनी ही घटती जायेगी। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति प्रकाश की गति वाले अंतरिक्षयान पर बैठकर नौ प्रकाश वर्ष दूर किसी अन्य ग्रह पर जाय तो इसी बीच उसमें बैठे व्यक्ति के लिए समय की चाल 1/90,000 हो जायेगी। वह व्यक्ति उतनी दूर तोरे पर जाकर तुरन्त लौट पड़े तो इस यात्रा में 18 वर्ष लगेंगे। लेकिन उस यान में बैठे व्यक्ति के लिए यह समय अट्ठारह वर्ष का 90,000 वाँ भाग अर्थात् सवा दो घण्टे ही होगा।

यह नहीं कि पृथ्वी पर सवा दो घण्टे बीते। यहाँ तो 18 वर्ष का ही समय बीतेगा यहाँ पर वह निज बच्चों को 1, 2 वर्ष को छोड़ कर गया था, वह 19, 20 वर्ष के हो गये होंगे। जबकि उसकी वय सवा दो घण्टे ही बीती होगी। भले ही यह बात अनहोनी जैसी लगे पर आइन्स्टीन ने प्रमाणों और प्रयोग द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया है। इसको क्लाक पैराडाँक्स (समय का विरोधाभास) का सिद्धान्त नाम दिया गया।

इसके जो समीकरण आइन्स्टीन ने प्रस्तुत किये उसके आधार बनाकर अमेरिका के भौतिकविद् जोजेफ हक्सले और खगोल विज्ञानी रिचर्ड कीटिंग ने सन 1971 में दो बार प्रयोग किये। उन्होंने साथ परमाणु घड़ियाँ लीं जिनमें एक सेकेंड के अरबवें भाग का आँकलन हो सकता है। इसे लेकर सर्वाधिक तेज चलने वाले यान से पृथ्वी की दो परिक्रमा लगाई गई। प्रयोग के अनन्तर तीव्र गति के कारण परमाणु घड़ियों ने अन्तर बता दिया। वैज्ञानिकों ने घोषित किया कि आइन्स्टीन का क्लार्क पैराडँक्स का सिद्धान्त सत्य है।

सापेक्षता के यह सभी सिद्धान्त वेदान्त की मूल बातों का समर्थन करते हैं। प्रथम सिद्धान्त बताता है कि यह संसार और कुछ नहीं घटनाओं का जोड़ मात्र है। घटनाएँ भी व्यक्ति की बोध शक्ति, संकल्प चेतना का परिणाम ही हैं। पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर के संकल्प से ही उसकी उपस्थिति मात्र से इस मायामय जगत का आविर्भाव हुआ है। जो भी चाहे वह इन भ्रम जंजालों से ऊपर उठकर सत्य का साक्षात्कार कर सकता है। मनीषियों ने इसी को साक्षी भाव कहा है।

प्रतीत होने वाली बातें अज्ञान मात्र हैं। इसमें जकड़े रहकर विविध प्रकार के त्रास हम सहते हैं। यही है माया यह कोई बाहर से आई विपत्ति नहीं, हमारे अंत की भ्रान्ति पूर्ण मन स्थिति है। जैसे ही यह बदली, माया के बंधन शिथिल हो जाते हैं।

संसार एक रंगमंच है, जहाँ प्रत्येक को अपनी योग्यता प्रमाणित करने के लिए भेजा गया है। यदि यह भाव मन में हो तो हम अधिक प्रखरता एवं कुशलता से यथार्थ को जानते हुए भी अपनी भूमिका को सही ढंग से निभा सकेंगे। पूर्वकाल में ऋषि गणों ने साधना से जागृत अंतर्दृष्टि से इस सापेक्षिकता के भ्रमजाल को जाना एवं स्वयं को निरपेक्ष ब्रह्म में प्रतिष्ठित किया था। विज्ञान की गति भी उसी ओर है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118