एक राजा ने छोटी टंकी में मछलियाँ पाल रखी थीं। जगह सीमित रहने से वे उस दायरे में दुखी रहतीं पर किसी तरह जी रही थीं।
एक संत आये। राजा को कई परामर्श देने के साथ-साथ एक शिक्षा यह भी दे गये कि मछलियों को बंधन में बाँधना अन्याय है। इन्हें स्वच्छंद विचरण के लिए मुक्त कर दिया जाए। राजा ने टंकी से उठाकर मछलियाँ समुद्र में डलवा दीं। आरम्भ में बंधन की अभ्यस्त होने के कारण वे समुद्र में तैरना भूल गई और थपेड़ों की चपेट में आकर प्राण गँवा बैठीं।
मरने पर राजा की पेशी धर्मराज के दरबार में हुई। पुण्य-पाप का लेखा-जोखा लेने पर उन्हें स्वर्ग और नरक की मध्यवर्ती पट्टी पर बिठा दिया गया। इस विचित्र स्थिति का कारण राजा ने पूछा तो उसे बताया गया
मछलियों को बंधन मुक्त करना पुण्य तो था पर साथ ही उनकी स्थिति का ध्यान न रखने से पाप भी कम नहीं हुआ। सो इसका फल भी ऐसा ही असमंजस भरा मिलेगा जैसा मछलियों का उपलब्ध हुआ। राजा सोचता रहा। पुण्य के साथ-साथ उसकी परिणति समझना भी आवश्यक है।