जो सोचते हैं कर क्यों नहीं पाते?

November 1987

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कई बार मनुष्य अपने अनुचित कार्यों या आदतों के सम्बन्ध में दुःखी भी होता है और सोचता है कि उन्हें छोड़ दूँ। अवाँछनीय अभ्यासों की प्रतिक्रिया उसने देखी सुनी भी होती है। परामर्श उपदेश भी उसी प्रकार के मिलते रहते हैं। जिनमें सुधरने सँभलने के लिए कहा जाता है। सुनने में वे परामर्श सारगर्भित भी लगते हैं। किन्तु जब छोड़ने की बात आती है तो मनु मुकर जाता है। अभ्यस्त ढर्रे को छोड़ने के लिए सहमत नहीं होता। उपदेशों से प्रभावित हुए मन की वह सज्जनता, समय आते ही बालू की तरह खिसक जाती है। पत्ते की तरह उड़ जाती है। टिकने की पृष्ठभूमि ही नहीं होती। जिस साहस संकल्प के सहारे आत्म सुधार बन पड़ता है, उसकी रहने से बात बनती नहीं। स्थिति ज्यों की ज्यों बनी रहती है। नशेबाजों में यही प्रक्रिया आये दिन चरितार्थ होते देखी जाती है। आर्थिक तंगी, बदनामी, शरीर की बर्बादी, परिवार में मनोमालिन्य जैसी हानियाँ प्रत्यक्ष रहती है। उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी होता है, छोड़ने को जी भी करता है। पर जब तलब लगती है, तब वह सब सोचा समझा बेकार हो जाता है। आदत उभर आती है और अपना काम करने लगती है। बार बार सुधरने की बात सोचने और समय आने पर उसे न कर पाने से मनोबल टूटता है। संकल्प बार-बार टूटने पर मन इतना दुर्बल हो जाता है कि यह विश्वास ही नहीं होता कि उनका सुधार हो सकता है कल्पना करने लगते हैं कि जिन्दगी ऐसे ही बीतेगी। आदतों से किसी भी प्रकार छुटकारा न मिल सकेगा।

ऐसा प्रायः दुष्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में ही होता है। उद्योगमन में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति काम करती है। ऊपर से नीचे खिसका देना सरल पड़ता है। पानी बहने लगे तो वह ढलान की ओर चल पड़ता है। उसकी प्रकृति परम्परागत अद्योगमन की है। इसके लिए किसी को कुछ विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। आसमान पर छाए बादल बोझिल होते हैं, ऊपर से नीचे उतर आते हैं। पानी बरसाते हैं। यह बरसा हुआ पानी ढलान तलाशता है और अवरोधों को तोड़ते लांघते वह बरसाती नालों में जा मिलता है। वे नाले नदियों में पहुँचते हैं और अन्त में उस समुद्र में जा मिलते हैं, जो समतल धरती की तुलना में अधिक नीचा है बादलों के पानी का बहाव प्रयास तब रुकता है, जब वह ढलान के अन्तिम छोर पर जा पहुँचता है। जब आगे और गिरने की गुँजाइश नहीं रहती, तभी वह रुकता है। यह रुकना भी ऐच्छिक नहीं होता, वरन् विवशता ही वैसा कर लेती है। बुरी आदतों में फँसा हुआ व्यक्ति भी यही अनुभव करता है कि उसे किसी अदृश्य शक्ति ने अपने चंगुल में फँसा लिया है और उसे कोई बलात् कहीं घसीटे लिए जा रहा है। किसी ऐसे स्थान पर जहाँ जाने के लिए उसका विवेक अनुमति नहीं देता।

आश्चर्य की बात यह है कि मनुष्य अपने मन का स्वामी आप है। शरीर पर भी उसका अपना अधिकार है। सामान्य जीवन में वह अपनी अभिरुचि के अनुरूप सोचता है और आवश्यकतानुसार कार्य करता है। यही स्वाभाविक भी है और इसी विधा को चरितार्थ होते हुए भी देखा जाता है फिर दुष्प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में ही ऐसी क्या बात है। जिसके कारण वे चाहते हुए भी नहीं छूटतीं। प्रयत्न करने पर भी भूत की तरह सिर पर लदी रहती हैं।

इतना ही नहीं सत्प्रवृत्ति संवर्धन के सम्बन्ध में भी यही अड़चन है। पुरातन अभ्यास में यह सम्मिलित नहीं होता कि उत्कृष्टता के अनुरूप सोचे और आदर्शों के ढाँचे में अपनी गतिविधियों को ढाले। ऐसी दशा में अनभ्यस्त नये काम को करने में पुराना अभ्यास भी बाधक होता है। पशु खूँटे से छूटते ही हरी घास वाले क्षेत्र में दौड़ जाते हैं और पेट भरने के बाद संख्या होते ही निवास की ओर चल पड़ते हैं। यह उपक्रम अनायास ही चलता है और निरन्तर दुहराया जाता है। इससे किसी प्रकार का अवरोध न आने देने के लिए ही एक ग्वाला नियत रहता है वही एक झुण्ड को हाँकता चलाता रहता है। पर यदि उसे उन पशुओं को किसी अनभ्यस्त स्थान पर नये मार्ग से ले जाना हो तो घुमाने चलाने में असाधारण कठिनाई का सामना करना पड़ता है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू होती है। वे अभ्यस्त ढर्रे को एक परम्परा मान लेते हैं। उसी का समर्थन भी करने लगते हैं। भले ही वह अनुपयुक्त या हानिकारक ही क्यों न हो? लोक प्रवाह की चित्र-विचित्र गतिविधियाँ इसी दिशा धारा में बहती देखी जाती है। निजी और सामूहिक जीवन में यह ढर्रा ही स्वसंचालित मशीन जैसा काम करता दीखता है। अंधविश्वास मशीन जैसा काम करता दीखता है। अंधविश्वास, कुप्रचलन इसी आधार पर अपनी जड़ जमायें हुए हैं। अनेक कुरीतियाँ ऐसी हैं, जिन्हें बुद्धि विवेक और तर्क के आधार पर हर कोई अस्वीकार ही करता है। किन्तु जब करने का समय आता है तो पुराने ढर्रे पर चल पड़ते हैं खर्चीली शादियों के सम्बन्ध में यही बात आमतौर से देखी गई है। दहेज, प्रदर्शन और चुहल युक्त रीति रिवाजों का जंजाल सभी के लिए कष्टकारक असुविधाजनक खर्चीला, मूर्खतापूर्ण होने के कारण विचारशीलता उसके विरुद्ध ही रहती है। इतने पर भी समय आने पर पुराना ढर्रा ही हावी हो जाता है और वही करना पड़ता है जिसे न करने की बात अनेकों बार सोची थी।

ऊँची उठने के सम्बन्ध में तो और भी अधिक अड़चने हैं। महापुरुषों के कुछ अपने गुण, कर्म और स्वभाव ही ऐसे होते हैं, जो वे महत्वपूर्ण लोकोपयोगी कार्यों में लगते हैं। अवरोधों से जूझते हुए लक्ष्य तक पहुँचने का साहस औरों को प्रदान करते हैं। उन्हें अनुकरणीय और अभिनंदनीय माना जाता है। उनकी उपलब्धियों की प्रशंसा प्रतिष्ठा को देखकर अनेकों का मन चलता है कि हमें भी यह सुयोग मिला होता तो कितना अच्छा होता। इस दिशा में वे सोचते तो बहुत कुछ हैं, पर बन पड़े ऐसा कुछ कर नहीं पाते। इच्छा ही बनी रहती है न आदतें बदल पाना सम्भव होता है न महानता के राजमार्ग पर कदम बढ़ाते हुए चल सकना सम्भव होता है। सोचते मन भरते ही जिन्दगी बीत जाती है। लगता है कोई दुर्भाग्य पीछे पड़ा है और वह हमारी कल्पना, इच्छा योजना को कार्यान्वित नहीं होने देता।

मनुष्यों में से कम ही ऐसे हैं जो साहस करके अपनी पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रोक सकें और असंतोषजनक बदनाम जीवन जीने से बच सकें। ऐसे भी क्रम ही होते हैं जो प्रभावों और अवरोधों को कुचलते हुए अपनी आकर्षण शक्ति से सुयोग की परिस्थितियों का निर्माण कर सके। ऐसे व्यक्ति ढूंढ़ने पर ही मिलेंगे जो प्रतिकूलताओं के परम्पराओं के घेरे को तोड़ कर उत्कृष्टता अपनाने और उसे मजबूती से पकड़े रहकर उच्चस्तरीय संकल्प को पूरा कर सकने में समर्थ हुए हों। विचारणा है कि ऐसा क्यों होता है? जब इच्छानुसार आहार, विहार, व्यवसाय मनोरंजन आदि की व्यवस्था जुटाई जा सकती है तब इस प्रकार के क्रिया-कलापों को सहज ही करते रहा जा सकता है। अड़चनों से निपटते रहने का क्रम भी चलता रहता है। इससे प्रतीत होता है कि इच्छानुसार काम करने के लिए मन और शरीर को कोई इनकारी नहीं है। इस स्थिति में भी मनुष्य जब पतन के गर्त में गिरने से अपने को रोक नहीं पाता, कुटेवों से पीछा छुड़ा नहीं सकता और अपने आपको महानता से सम्पन्न करने में कोई विशेष अड़चन न होते हुए भी सफल नहीं हो पाता तो फिर वह संभावित कारण क्या होना चाहिए कि सौभाग्य को छीनता और दुर्भाग्य को थोपता रहता है।

सामान्यतया यह उत्तर दिया जा सकता है कि यह संकल्पबल का साहस का अभाव है। संकल्प शक्ति की कमी है, जिसे दूर करके पर अभीष्ट उद्देश्यों में सफलता प्राप्त की जा सकती है। बात फिर धूमधाम कर वहीं आ गई। संकल्प और साहस का अभाव कहाँ। यदि वे विशेषताएँ न रही होती तो दैनिक जीवन में आये दिन असाधारण कदम उठाते रहना और उन्हें पूरे कर सकना किस प्रकार सम्भव रहा होता? तब तो व्यक्ति मात्र कोल्हू का बैल बनकर रहता। पिछले अभ्यासों से हटकर किसी लाभदायक काम में हाथ डालने की हिम्मत ही न करता। मनुष्य के सामान्य जीवन में भी असाधारण घटनाएँ घटित होती हैं। विवाह होने पर लड़की पितृगृह छोड़कर ससुराल चली जाती है और वहाँ के अनभ्यस्त ढाँचे में ढल जाती है। लड़के भी थल सेना, नैवी, एयर फोर्स जैसे क्षेत्रों में अनायास ही प्रवेश करते हैं। अभ्यस्त ढर्रे से सर्वथा भिन्न प्रकार की कार्य पद्धति अपना लेते हैं। जब ऐसा आये दिन होता रहता है, तो पतन से रुकना और उत्थान के निमित्त चल पड़ने में ही ऐसी क्या विशेष बात है जो बन नहीं पड़ती। ढर्रा अभ्यास इतना बड़ा अवरोध नहीं है जो मनुष्य पर इस कदर हावी हो जाय, जिसे बदलना उलटना बन ही न पड़े।

इस असमंजस का समाधान ढूंढ़ने के लिए उथले उत्तर ढूँढ़ने से काम न चलेगा। गहराई में उतरना पड़ेगा और उन विवशताओं को ढूंढ़ना पड़ेगा जो पतन के निरोध एवं उत्कर्ष के अवलम्बन में ऐसी बाधा बनकर अड़ी होती हैं जिन को पार कर पाने की चेष्टा में मनुष्य अपने को असमर्थ अनुभव करता, असफल रहता एवं निराश दीखता है।

समुद्र की गहराई में उतरने पर पनडुब्बों को मोती मिलते हैं। तट पर खेलने वाले लड़के तो छोटे-छोटे सीप घोंघे ही बटोर कर घर लौटते हैं। मनुष्य का चेतना क्षेत्र भी समुद्र की तरह गहरा और विशाल है। उसकी अनेकों परतें हैं। जिन्हें सचेतन की ऊपरी सतह में नीचे उतरने पर पाई जाने वाली अचेतन अवचेतन सुपर चेतन की परतें कहते हैं। सचेतन की ऊपरी सतह तो मन की कल्पनाओं, बुद्धि के परिमार्जन से ऐसी स्थिति उत्पन्न करती रहती है, जो व्यावहारिक हो। पुराने अभ्यास अनुभव से संगति खाती हो। जिसके उदाहरण मिलते हो और परामर्श देने वाले आगे बढ़ने का कठिनाइयों से निपटने का मार्ग बता सकते हों। यह सब सरल है। सरल को आसानी से अपनाया जा सकता है। सचेतन परत के निर्धारण थोड़े से प्रयास से कार्यान्वित होते रहते हैं, किन्तु गहरी परतों में जमी हुई जड़ता हठवादिता से निपटना सहज नहीं है जन्म-जन्मान्तरों के अनेक योनियों में परिभ्रमण करते समय के, वंश परम्परा के आधार पर अन्तःकरण के साथ जुड़े हुए भले बुरे संस्कारों को झुठलाना कठिन पड़ता है। वे ही हैं जो हमें उत्कृष्टता अपनाने में प्रधान बाधा बनकर अड़ते हैं। उनसे जूझना ही साधना पुरुषार्थ है।


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