सिद्ध पुरुषों के दर्शन और अनुदान

April 1986

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लम्बी अवधि तक अपना अस्तित्व बनाये रहने वाले सिद्ध पुरुष सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं। स्थूल शरीर की एक सीमा मर्यादा है। भारत की जलवायु में सौ वर्ष की आयु को पूर्ण माना गया है। “जीवेम शरदः शतम्” आदि वेद मन्त्रों में इसी तथ्य का रहस्योद्घाटन किया गया है। आशीर्वादों में सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना की जाती है। कभी-कभी कहीं-कहीं कुछ लोग अधिक समय भी जीवित रहते देखे गये हैं। पर वे अपवाद हैं। अपवाद तो किसी भी क्षेत्र में दृष्टिगोचर हो सकते हैं।

सिद्ध पुरुष बहुधा हिमालय क्षेत्र में निवास करते हैं। जहाँ शीत की प्रधानता होती है। उस क्षेत्र का अधिकांश भाग बर्फ से ढका रहता है। जो हिमि प्रदेश के जीव-जन्तु हैं, वो तो गुफाओं में जाकर गहरी निद्रा में सो जाते हैं और जब बसन्त आता है और आहार तथा जल की व्यवस्था हो जाती है तो नींद खुलती है और बाहर निकलते हैं। यह हिमानी प्राणियों के लिए प्रकृति की विशेष व्यवस्था है। मनुष्य शरीर की संरचना ऐसी नहीं है। उसे अन्न जल ही नहीं आग जलाने के लिए ईंधन की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके अतिरिक्त मल-मूत्र त्यागने एवं आच्छादन की भी। वह सामान्यतया बन नहीं पाता। इसलिए बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, जमुनोत्री आदि के देवालयों की प्रतिमाएं भी अन्यत्र ले जायी जाती हैं। उतने समय के लिए कपाट बन्द रहते हैं। ऊँचे क्षेत्रों के निवासी भी अपने पशुओं को लेकर नीचे मैदानी क्षेत्रों में आ जाते हैं। और वह समय सुविधा के स्थानों में ही व्यतीत करते हैं।

हिमालय पर जो लोग साधना के लिए जाते हैं, वे भी शीतकाल में वह स्थान छोड़कर नीचे चले आते है। स्थूल शरीर धारी यह गतिविधि अपनाते हैं। क्योंकि उसे जीवित रखने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता पड़ती है, वे सहज उपलब्ध नहीं होते। यदि कोई हठ-पूर्वक वहाँ रहना ही चाहे तो उसे ढेरों सामग्री एकत्रित करनी पड़ेगी जैसी कि पर्वतारोहियों को कुलियों का काफिला समान ढोने के लिए साथ लेकर चलना पड़ता है। जो इस प्रकार की व्यवस्था करेगा, उसके लिए शरीर धारण किये रहना ही एक समस्या हो जायेगी। इसलिए हिमालय यात्रा एवं उधर टिकने के लिए मई से सितम्बर तक के ही प्रायः छह महीने वहाँ रहकर अपना स्थान छोड़ देना पड़ता है। ऐसी उलट-पुलट में गहन स्तर की साधनाएं नहीं हो सकतीं। यह एक साधारण बात है। सामान्य जन स्वास्थ्य लाभ या साधना आदि प्रयोजनों के लिए उपरोक्त व्यवस्थाएं बनाते और सुविधा के स्थान बदलते रहते हैं।

प्रश्न सिद्ध पुरुषों का है। वे सूक्ष्म शरीरधारी ही होते हैं। स्थूल शरीर का समापन कर चुके होते हैं। सूक्ष्म शरीर धारी सत्ताएँ स्थूल शरीर से नेत्र आदि इन्द्रियों से नहीं देखे जा सकते। यदि दीखने लगें तो मनोकामनाओं वाले लोग उन्हें कहीं से भी ढूँढ़ निकालें और हजार प्रकार के प्रपंच रचकर अपनी हठ पूरी करके टलें। ऐसी विपत्ति में यदि वे फँसते फिरें तो वे प्रयोजन पूरे किस प्रकार कर सकेंगे, जिसके लिये ऐसी कष्ट साध्य परिस्थितियों में रहने और भीड़ से बचने का उनने निश्चय किया होता है। यदि प्रपंच में फँसने और लोगों से घिरे रहने का ही मन होता तो फिर उनके लिए शहर कस्बों में डेरा डालना क्या बुरा था? साधन भी जुटते रहते। लोगों की भीड़ भी जमी रहती और प्रचार विज्ञापन भी होता रहता, जैसा कि आजकल के महन्त मठाधीशों के साथ होता देखा जाता है।

यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि जीवन निर्वाह के दुर्लभ साधनों का छः महीने चल सकने वाला जखीरा जमा करने के उपरान्त ही कोई हिमाच्छादित प्रदेशों में रहने का साहस कर सकता है। ध्रुव प्रदेशों की यात्रा करने यों अनेकानेक खोजी दल गये हैं, उन्हें कितना साधन साथ लेकर चलना पड़ा है, इस विवरण के रुचि रखने वाले लोग पत्रों तथा पुस्तकों में पढ़ते रहते हैं, फिर सामान्य शरीर लेकर सामान्य व्यक्ति वहाँ किस तरह रह सकेगा? यह समझ में आने योग्य बात नहीं है।

ऐसी अनगढ़ किम्वदंतियां अकसर सुनने को मिलती रहती हैं, जिनमें किन्हीं कौतूहल प्रियों को अपनी विशेषता का ढिंढोरा पीटने वालों द्वारा यह कहते हुए सुना गया है कि हम हिमालय गये। हमसे किसी सिद्ध पुरुष ने भेंट की कठिनाईयाँ पूछीं। गुफा में ले गये। अमुक भोजन कराये और मनमाँगे आशीर्वाद दिये। इन कथा गाथाओं के पीछे तनिक भी सच्चाई नहीं होती। क्योंकि साधारण चर्म-चक्षुओं से किसी सिद्ध पुरुष के सूक्ष्म शरीर को नहीं देखा जा सकता। न कानों से उनकी बात सुनी जा सकती है, न जीभ से कुछ कहा जा सकता है। एक सूक्ष्म शरीर दूसरा स्थूल शरीर इनकी परस्पर संगति बैठती ही नहीं।

फिर अदृश्य रहने के लिए जब उन्होंने सूक्ष्म शरीर अपनाया है तो वे सभी को देख सकते हैं। उन्हें कोई सामान्य व्यक्ति नहीं देख सकता। विशेषतया वे व्यक्ति जो अपनी लौकिक कामनाएं पूरी करने के फेर में हैं। उनमें इतनी विशेषता होती है कि किसी भी मन की बात जान सकें और यदि वह व्यक्तिगत लाभ से नहीं, विश्वकल्याण की किसी महती आवश्यकता के निमित्त समर्पित है तो उनके भीतरी अन्तराल में ही आवश्यक जानकारी एवं क्षमता प्रदान कर दें। लौकिक और पारलौकिक स्वार्थ साधना के फेर में जो लोग हैं, उन्हें वे अपना सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर में परिणत करके पिछलग्गू बनाएँ, इसके पीछे न कोई तर्क है, न तथ्य।

सिद्ध पुरुषों का भी अपना स्वरूप, प्रयोजन एवं स्तर है। वे किसी को अपनी सहायता प्रदान करते हैं। अपने तप का कोई भाग काट कर प्रदान करते हैं, तो उसका कारण कोई अत्यन्त उच्चस्तरीय प्रयोजन होना चाहिए। यह दर्शन परामर्श अनुदान चमत्कार दिखाने, अहंकार बढ़ाने एवं स्वार्थ साधने के निमित्त नहीं हो सकता।

सामान्य जीवन व्यतीत करने वाले, साधारण प्रपंचों में फँसे रहने वाले व्यक्ति उन्हें देख पायें या संपर्क साध पायें, जब काट लायें यह सम्भव नहीं। वे इतना विवेक सँजोये होते हैं कि इधर-उधर फिरने वाले प्रपंचियों की वास्तविकता पहचान सकें और अपने को उनके चंगुल से बचाने के लिए अदृश्य स्थिति में ही बने रहें। यही कारण है कि चेला मूँड़ने वालों से वे किसी भी प्रकार सम्बन्ध स्थापित नहीं करते। वे अपनी कल्पना के आधार पर जो कुछ गढ़ते रहें, कहते रहें, यह उनकी इच्छा।

सिद्ध पुरुष अपनी व्यक्तिगत अपूर्णताएं, सूक्ष्म शरीर धारण करने से पहले ही पूर्ण कर चुक होते हैं, उन्हें स्वर्ण मुक्ति, सिद्धि प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनका उस स्थिति में रहने का एक ही प्रयोजन होता है। ईश्वर के पार्षद के रूप में उनकी सृष्टि के असन्तुलनों को सन्तुलनों में बदलने के लिए अदृश्य वातावरण को प्रभावित करना। यह कार्य उन्हें ईश्वर ही सौंपता है। अपनी निजी इच्छाएँ, तो वे बहुत पहले ही समाप्त कर चुक होते हैं, उनकी कोई निजी योजना भी नहीं होती। जो बताया जाता है, मात्र उसे ही उतना ही करते रहते हैं।

सिद्ध पुरुषों को भी कभी-कभी शरीर धारियों के साथ संपर्क बनाने की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि वे स्वयं तो शरीर धारी होते नहीं। पर कुछ काम ऐसे कराये जाने की जरूरत पड़ती है, जिसके लिए क्या एवं साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए उन्हें ऐसे सत्पात्र ढूंढ़ने पड़ते हैं जो प्रामाणिकता और उत्कृष्टता की कसौटी पर पहले से ही अपने को खरा सिद्ध कर चुक हों। अप्रामाणिक और अनगढ़ व्यक्ति तो सिद्धि अनुदानों को पाकर बौखला जाते हैं और ऐसा कुछ कर बैठते हैं, जिसे अनर्थ ही कहा जा सके। इस कारण किसी को सिद्ध पुरुषों की तलाश में नहीं जाना पड़ता, वे स्वयं ही उन्हें आवश्यकता अनुभव करा देते हैं और सौंपे गये कार्य के लिए जितनी दिव्य क्षमता की आवश्यकता पड़ती है, उसे हस्तान्तरित कर देते हैं।

शिवाजी, चन्द्रगुप्त, विवेकानंद आदि को गुरुओं ने ही तलाश किया था। वे उन्हें ढूंढ़ने तलाशने के लिए कहीं मारे-मारे नहीं फिरे थे। विश्वामित्र स्वयं ही दशरथ पुत्रों को माँगने उनके घर गये थे। सिद्ध पुरुषों को मात्र अपना हाथ बँटाने के लिए किसी शरीर धारी की काया तलाश करनी पड़ती है। जब वे परख लेते हैं कि यहाँ कामनाओं की कीचड़ नहीं, समर्पण की दिव्य भावना का अस्तित्व मौजूद है, तो वे स्वयं ही उनके सिर पर छा जाते हैं। उसकी समूची सत्ता को अपने में धुला लेते हैं, पर इससे पूर्व वे हजार बार परखते हैं कि कोई अपनी निज की लौकिक या पारलौकिक स्वार्थ सिद्धि के लिए उन्हें फँसाने और अनुचित लाभ न उठाने लगे। जो हर कसौटी पर खरे सिद्ध होने की स्थिति में पहुँच चुके होते हैं, मात्र उन्हीं पर हाथ डालते हैं, उन्हीं से कुछ आशा करते हैं और जो देनी हो, उन्हीं को देते हैं।

साथ ही यह चौकसी भी रखते हैं कि मनुष्य में आमतौर से पाई जाने वाली वासना, तृष्णा और अहन्ता की पूर्ति के लिए उनके दिये अनुदानों का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है। यदि ऐसा दीखता है तो अपने अनुदान वापस भी ले लेते हैं। ऐसी दशा में वह देव दीक्षित नहीं रहता, वरन् जादूगरों की तरह माया जाल रचता रहा है। ऊँचा चढ़कर गिरने वाले को चोट भी अधिक लगती है। जबकि जमीन पर खड़ा हुआ व्यक्ति फिसल पड़ने पर यत्किंचित् चोट खाकर ही खड़ा हो जाता है।

सिद्ध पुरुषों की तलाश में न हम हिमालय जाएं और न कहीं अन्यत्र। अपनी पात्रता बढ़ायें। कमल पुष्प वत अपने को खिलाने का प्रयत्न करें, ताकि मधु-मक्खी भौंरे, तितली उस पर स्वयं मंडराने लगें। चिड़ीमारों और मछुआरों की विधा अपना कर कोई सिद्ध पुरुषों को नहीं फँसा सकता। उनकी मनुहार भी नहीं करती पड़ती और न भटकने तलाशने की आवश्यकता पड़ती है। अपनी पात्रता का विकास ही वह उपाय उपचार है जिसके सहारे सिद्ध पुरुषों को सत्पात्रों की तलाश करनी पड़ती है। स्मरण रखने योग्य तथ्य एक ही है कि दैवी विभूतियाँ मात्र दैवी प्रयोजनों के लिए ही हस्तगत होती हैं। उनसे प्रत्यक्ष सा परोक्ष स्वार्थ नहीं साधा जा सकता। ईश्वर की विश्व वाटिका को सींचने, समुन्नत, सुव्यवस्थित बनाने के निमित्त ही किसी को दिव्य-सिद्धियाँ मिली हैं और भविष्य में मिलती रहेंगी।


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