अक्षय आनन्द के तीन उद्गम स्रोत

April 1986

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प्रसन्नता और आनन्द में मौलिक अन्तर है। प्रसन्नता इच्छित भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि पर होती है। पर वह देर तक टिकती नहीं। क्योंकि उससे भी बड़ी उपलब्धि की उत्कण्ठा तत्काल आ दबोचती है। सौ रुपये का लाभ हुआ। क्षण भर प्रसन्नता हुई। दूसरे ही क्षण, हजार की लालसा जग पड़ी और वे सौ रुपये अपर्याप्त लगने लगे। असन्तोष उत्पन्न करने लगे। साथ ही उन सौ रुपयों की रखवाली का नया ताना-बाना बुनना पड़ा। इतना ही नहीं जब उनके खर्च का हाथ बढ़ता है तो मुफ्त का या अनीति उपार्जित धन मात्र कुमार्ग में जाने के लिए रास्ता बनाता है। नशा, जुआ, शृंगार, व्यभिचार, ठाट-बाट बनाने जैसी बातें सूझती हैं। क्षण भर की प्रसन्नता कुछ ही क्षणों में नई चिन्ताओं और हैरानियों का बोझ लाद देती है। तब लगता है कि रोज कुंआ खोदने रोज पानी पीने की परिस्थिति औचित्य की दृष्टि से कहीं अच्छी थी। जब औसत भारतीय स्तर का जीवन जीते तब अधिक उपयुक्त मनःस्थिति में थे। दौलत की अभिवृद्धि ने ठाट-बाट बढ़ाया, ललक जगाई पर साथ ही आत्म-सन्तोष का अपहरण कर लिया।

भौतिक उपलब्धियां बादलों की बिजली की तरह चमकती और कुछ ही समय में विलीन हो जाती है। वैभववानों की सुविधाएं अवश्य अधिक रहती हैं। पर ईर्ष्या, द्वेष, असंतोष, अपहरण आदि की आशंकाओं से चित्त में अशान्ति की मात्रा अनायास ही बढ़ती जाती है। वासना, तृष्णा की आग ऐसी है जो ईंधन पाकर तृप्त नहीं होती वरन् और भी अनेक गुनी होकर भड़कती है।

फिर स्थिर और वास्तविक आनन्द क्या है? इसकी विवेचना करते हुए शास्त्रकारों ने- तत्त्वदर्शियों ने वास्तविक आत्मिक सुखों को तीन प्रकार का बताया है। इनमें स्वर्ग, मुक्ति और समाधि का उल्लेख होता है। कहा गया है कि यह परिस्थितियां जिन्हें भी हस्तगत होती हैं, वे अक्षय सुख की अनुभूति करते हैं, फिर उनके हाथ से आनंद कभी जाता ही नहीं। यह चाव लगने पर फिर उसे छोड़ने का मन भी नहीं करता।

वर्तमान मान्यता के अनुसार यह तीनों ही कठिन दीखते और असम्भव लगते हैं। समझा जाता है कि स्वर्ग और मुक्ति मरने के बाद मिलते हैं। स्वर्ग के लिए देवलोक जाना होता है और मुक्ति ब्रह्मलोक में पहुंचने पर मिलती है। समाधि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है कि अपने को संज्ञा शून्य बनाने की स्थिति बड़ी कठिन योग साधनाओं के सहारे कालान्तर में मिलती है। उन्हें प्राप्त करने की कठिनाइयों की बात सोचने पर मनुष्य निराश हो जाता है। निराशा की स्थिति में मनुष्य वह भी नहीं कर पाता जो कर सकता है। जिन्हें अत्यधिक कठिन, असम्भव स्तर का मान लिया जाय उनके लिए निराश मनःस्थिति के कारण जो प्रयास हो सकते थे, वे भी नहीं बन पड़ते।

वस्तुतः स्वर्ग, मुक्ति और समाधि सम्बन्धी सभी मान्यताएं भ्रमपूर्ण हैं। स्वर्गलोक, देवलोक, ब्रह्मलोक, सम्बन्धी मान्यताओं के सम्बन्ध में जो विवेचन किया गया है वह अलंकारिक है। ग्रह नक्षत्रों के सम्बन्ध में विज्ञान ने अब तक बहुत खोज-बीन कर ली है। ब्रह्माण्ड का स्वरूप और ढांचा अब बुद्धि क्षेत्र के लिए अगम्य नहीं रहा। पर उसकी पकड़ में स्वर्ग लोक या ब्रह्म लोक जैसे किसी स्थान का कहीं पता नहीं चला है। फिर समीपतम तारक भी इतनी दूर हैं कि बिना द्रुतगामी वाहनों के उन तक पहुंचने की आशा नहीं की जा सकती। मरणोत्तर स्थिति में भी प्राण कहीं अन्यत्र जा सकेगा, ऐसी सम्भावना कम ही है।

फिर स्वर्ग आदि लोक क्या हैं? इन्हें चेतना की परतें ही कह सकते हैं। यह मनुष्य के उत्कृष्ट व्यक्तित्व, स्तर एवं दृष्टिकोण पर ही निर्भर है कि मनुष्य जिस भी मनःस्थिति में रहे, उसे उसी लोक का वासी कहा जाय।

सन्तोषी, प्रसन्नचित्त, कर्तव्यपरायण, सज्जन, समझदार, ईमानदार, जिम्मेदार और बहादुर मनुष्य जिसके प्रौढ़ और परिपक्व मन:स्थिति में रहते हैं उसे स्वर्ग कहते हैं। कठिनाइयां उनके सामने भी आती रहती हैं, पर वे उन्हें अपनी परीक्षा मानते हैं कि समाधान खोजने या सहने का पराक्रम या साहस उदय हुआ या नहीं। ऐसी आत्माएं स्वर्गलोक में काम करती हैं। उनकी प्रसन्नता, प्रफुल्लता को कोई छीन नहीं सकता है।

मुक्ति भव-बन्धनों से छुटकारे को कहते हैं। भव-बन्धनों में हथकड़ी, बेड़ी और गले की तौक की तुलना दी गई है। पर इन्हें क्रूर, दुर्धर्ष अपराधियों को बन्दीगृहों में ही पहनाया जाता है। सामान्य लोग तो खुले हुए भी फिरते हैं। इस बन्धन अलंकार का तात्पर्य लोभ, मोह और अहंकार से है। उन्हें मनुष्य स्वयं ही अपने ऊपर लादता और मकड़ी के जाले की तरह उनमें स्वयं ही फंसता है। वह चाहे तो उस जाल-जंजाल को विवेक दृष्टि अपनाकर आसानी से समेट भी सकता है।

मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताएं बहुत ही सीमित हैं। इतना अद्भुत शरीर और इतना बुद्धि कौशल उनकी पूर्ति कुछ ही घंटों के परिश्रम में पूरा कर सकता है। विपुल सम्पदा का लालच तो उसके संग्रह या अपव्यय के लिए ही होता रहता है। यदि उस ललक को छोड़ा जा सके तो समझना चाहिए कि लोभ का अस्तित्व समाप्त हुआ।

परिवार के प्रति कर्तव्य का निर्वाह एक बात है और मोहग्रस्त होकर उनके लिए ही जीवन निछावर कर देना सर्वथा दूसरी। बच्चों को बढ़ाते जाना, उन्हें सुविधाओं से लादते जाना, इसी मोह को बेड़ी कहते हैं। परिवार को छोटा रखना, नये सदस्य बनाना बढ़ाना, जो है उन्हें ईश्वर का उद्यान समझकर माली की तरह साज सम्भाल करते रहना समुन्नत बनाना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। घर के सदस्यों को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने भर की आकांशा हो तो उसकी पूर्ति सहज ही संभव है। परिवार का उद्यान अपने आप में सुधारने आदर्श प्रस्तुत करने की पाठशाला है, जिसमें पढ़ाने और पढ़ने के दोनों ही सुयोग साथ-साथ मिलते हैं। मोह ग्रस्त लोग ही कुटुम्बियों को कुटेवों में अभ्यस्त कराते हैं और उन्हें दुःख देने और स्वयं सुख पाने का कुचक्र रचते हैं। इस मोह पाश से कोई भी दूरदर्शी तत्वदर्शी सहज ही छूट सकता है और उसी परिकर को अपने आनन्द का उद्गम बना सकता है।

भौतिक समाधि में एकाग्रता का- योगनिद्रा का अभ्यास करना पड़ता है। शरीर जड़ है उसे प्रसुप्ति जैसी अभ्यस्त स्थिति में पहुंच जाने का अभ्यास भी भौतिक चेष्टा या सफलता ही कहा जा सकता है। जड़ समाधि के अभ्यासी उस तन्द्रा से उठने पर फिर प्रपंचों के कुचक्र बुनते देखे गये हैं। इस अद्भुत कौतुक में वे लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यश और धन बटोरते हैं। इन दोनों की असाधारण मात्रा किसी भी व्यक्ति को अधोगामी बना सकती है। समाधि का तमाशा दिखाने वाले यदि इसी प्रकार के माया जाल रचें तो आश्चर्य भी क्या है? जिन्हें वास्तविक समाधि लगानी आती है वे उसे आत्म-कल्याण के लिए प्रयुक्त करते हैं, न कि विज्ञापन के लिए। जिनमें वास्तविकता है, वे अपने अभ्यास को गोपनीय ही रखते हैं।

समाधि वस्तुतः सन्तुलित बुद्धि का नाम है। इसे गीता में स्थितप्रज्ञ के नाम से सम्बोधित किया गया है। अपने आप पर यथार्थवादी दृष्टि रखना- अन्तर्मुखी रहना और सांसारिक कर्तव्यों को शरीर धारण करने का किराया या ईश्वरेच्छा इच्छा का अनुशासन मानकर करते रहना वास्तविक समाधि है। यही अनासक्त कर्मयोग है। इसे अपनाये बिना तो शरीर के कलपुर्जों को जंग खा जाती है और उसकी निरोगता छिन जाती है साथ ही प्रगति, प्रसन्नता भी।

कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए निरहंकार और निर्लिप्त रहना व्यावहारिक जीवन का समाधियोग है। इसे कबीर ने ‘सहज समाधि’ कहा है। सुव्यवस्थित, सन्तुलित और शालीनतायुक्त मन:स्थिति का निर्माण कर लेना समाधि योग का ही प्रत्यक्ष स्वरूप है।

इस प्रकार स्वर्ग सुख देव-मानवों के साथ रिश्ता जोड़ने से- मुक्ति, लोभ, मोह और अहंकार के प्रपंच से बच निकलने को समझा जाता है। समाधि अर्थात् सम्यक् बुद्धि। यह सुसंतुलित उच्चस्तरीय चिन्तन का नाम है। यह तीनों ही उपलब्धियां सरल हैं और विवेकपूर्ण जीवन नीति अपनाने वाले हर किसी को अक्षय आनन्द प्रदान करती रह सकती हैं।


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