अंतर्जगत की दिव्य शक्तियाँ

April 1986

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मोटी लकड़ी को जमीन में गाढ़ना कठिन है। उसके लिए जमीन में गड्ढा बनाना पड़ता है या लकड़ी की नोक पतली करनी पड़ती। बार-बार हर आवश्यकता के लिए अलग-अलग गड्ढे खोदने की अपेक्षा यह अच्छा है कि कोई नोकदार उपकरण बनाकर छेद करते रहा जाय। सुई से नहीं प्रयोजन पूरा होता है। बरमा भी यही काम करते हैं। इन्जेक्शन की सुइयाँ भी पतली रखी जाती है।

मन की बनावट ऐसी है कि उसे आगत परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपने स्तर की कल्पनाऐं करनी पड़ती हैं। प्रस्तुत या सम्भावित विपन्नताओं का निराकरण करना एक बात है और उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मार्ग खोजना भी ऐसा है जिसके लिए मन की गति तीव्र होनी चाहिए। कल्पनाएँ करने तथा काट-छाँट करने के लिए भी कम परिश्रम नहीं करना पड़ता। इन सब प्रयोजनों के लिए तीव्रता एवं तीक्ष्णता आवश्यक भी है। यदि ऐसी संरचना न होती तो मनुष्य मन्द बुद्धि या दीर्घसूत्री बनकर रह जाता। वह आज्ञा पालन भर कर पाता। पशुओं से अधिक उसकी प्रतिभा विकसित न होती।

आमतौर से मन की दौड़ या पहुँच उन्हीं प्रयोजनों तक जुड़ी रहती है जो उसे रोज करने पड़ते हैं। हर मनुष्य का एक निर्धारित जीवन ढर्रा होता है। निर्वाह एवं व्यवसाय के लिए एक सीमित क्षेत्र होता है। उसी में मन की उधेड़-बुन करते रहना पड़ता है। ताँगे का घोड़ा अभ्यस्त सड़क पर ही दौड़ते रहने का आदी होता है। कोल्हू के बैल को भी एक नियत दायरे में घूमते रहना पड़ता है। अभ्यास या स्वभाव इसी आधार पर बनता है। इसके लिए कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता। सामान्य क्रिया-कलाप ही सभी आवश्यक बातें सिखा लेता है और अल्पबुद्धि व्यक्ति अपने निर्धारित काम पूरे कर लेता है। नौकर मालिक की इच्छा आवश्यकता को भली प्रकार समझते हैं और अपने जिम्मे के काम नियत क्रम से पूरा कर देते हैं। भले ही वे मन्दबुद्धि ही क्यों न हों।

किसी अनभ्यस्त विलक्षण कार्य के लिए विशेष ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है। मनुष्य ही नहीं मन भी इसी प्रकार सधाया जाता है। आत्म-निरीक्षण, आत्मसुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास के चार चरणों में हमारा अन्तरंग जीवन बँटा हुआ है। इनकी विधिव्यवस्था जाने बिना मनुष्य अपने अंतर्जीवन में प्रवेश नहीं कर सकता। इस प्रवेश से ही कुसंस्कारों का परिशोधन और सुसंस्कारों का अभिवर्धन बन पड़ता है। यही है व्यक्तित्व के निखार और आत्म-सुधार की प्रक्रिया। जिसके आधार पर समुन्नत अथवा प्रगतिशील बन सकना सम्भव होता है।

बहिरंग जीवन की परिस्थितियाँ समस्याओं और आवश्यकताओं के सम्बन्ध में हम बहुत कुछ जानते हैं क्योंकि दिनचर्या का सीधा सम्बन्ध इसी क्षेत्र में रहता है। बिगाड़ से बचाव और उत्कर्ष को अग्रगामी बनाने के लिए समूची कार्यविधि इसी में लगी रहती है। पर इससे भी महत्वपूर्ण क्षेत्र अन्तराल की संरचना जानने और आवश्यकता के अनुरूप उपक्रम अपनाने की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु इस परिधि में प्रवेश करने का आमतौर से अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए उस संदर्भ में अनाड़ीपन ही बना रहता है।

बहिरंग जीवन का अन्तरंग जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियाँ बनती हैं। प्रतिभा भीतर से उभरती है। व्यक्तित्व भीतर से निखरता है। बाहर तो उसकी परिणति प्रतिक्रिया भर दृष्टिगोचर होती है। शरीर चर्या, अर्थ व्यवस्था, लोक व्यवहार आदि तो बहिरंग क्षेत्र से ही सम्बन्धित रहते हैं। उतने ही दायरे में काम करने का अभ्यास होता है। किन्तु महत्वपूर्ण प्रगति के लिए अन्तःक्षेत्र को समुन्नत, सुविकसित करना पड़ता है। इससे पूर्व वस्तुस्थिति को निरखना परखना पड़ता है। वही महत्वपूर्ण उलट-पुलट करने की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना कोई अध्यात्मवादी नहीं बन सकता और न आत्मोत्कर्ष का प्रयोजन करना पड़ता है।

इस प्रयोजन के लिए सर्वप्रथम अंतर्मुखी होना पड़ता है। जिस प्रकार शल्य चिकित्सा को भीतरी अंग अवयवों के स्वरूप और क्रिया-कलाप को समझने की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार अन्तःक्षेत्र को समझने और सुधारने के लिए अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है।

यह सब जिस आधार पर किया जा सकता है कि उसे अंतर्मुखी प्रवृत्तियों का पर्यवेक्षण करने की कुशलता कहा जा सकता है। यह कुशलता एकाग्रता के सहारे सधती है। मन को बहिरंग क्षेत्र में काम करने पड़ते हैं इसलिए जैसी कुशलता उस क्षेत्र से काम करने की होती है। वैसी अन्तरंग क्षेत्र में प्रवेश करने, स्थिति समझने तथा परिवर्तन करने की नहीं होती। इस कमी की पूर्ति इसी प्रकार हो सकती है कि अभ्यस्त बहिरंग भाग-दौड़ से रोकथाम करके उसे अंतर्मुखी होने- भीतर की विकृतियों को टटोलने, निकलने, बढ़ाने, सुधारने, उभारने, जैसी अनेकों क्रिया-प्रक्रियाऐं करनी पड़ती हैं। इसके लिए मन को सर्वप्रथम एकाग्र करना पड़ता है। ताकि उसकी भाग-दौड़ में भीतरी नव-निर्माण में विक्षेप न पड़े।

एकाग्रता साधना को सिद्ध करना ही योग साधनाओं में से अधिकांश का मूल प्रयोजन है। इसके लिए तीन प्रयोग ही काम में लाये जाते रहे हैं और लाये जाते रहेंगे। (1) जप, (2) ध्यान, (3) प्राणायाम।

मनुष्य के तीन शरीर हैं। (1) स्थूल, (2) सूक्ष्म, (3) कारण। इन तीनों का परिमार्जन करने के लिए उपरोक्त तीन विधियाँ अपनाई जाती हैं स्थूल शरीर के लिए जप। सूक्ष्म शरीर के लिए ध्यान (3) कारण शरीर की लिए प्राणायाम। इन तीनों में से प्रत्येक की कई-कई विधियाँ हैं। उनमें से अपने मार्गदर्शक की छत्र छाया में किन्हीं का भी उपयोग किया जा सकता है।

भौतिक जगत की शक्तियाँ वे हैं जो प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होती हैं। आत्मिक शरीर की उपस्थिति तीन क्षेत्रों में हैं। (1) मस्तिष्क (2) हृदय (3) जननेन्द्रिय मूल (मूलाधार) इनमें अतीन्द्रिय क्षमताओं, सिद्धियों का निवास है। मस्तिष्क के मध्य ब्रह्मरन्ध्र में सहस्रार चक्र है। उसे उत्तरी ध्रुव चुम्बक की समता दी गई है। जिस प्रकार पृथ्वी उत्तरी ध्रुव के माध्यम में ब्रह्माण्डव्यापी अन्तर्ग्रही शक्तियों की खोलती और जो काम के योग्य है उन्हें पकड़ लेती है उसी प्रकार सहस्रार चक्र का आध्यात्मिक ध्रुव केंद्र परब्रह्म की दिव्य शक्तियों की देव विभूतियों को आकर्षित करती और अन्तःचेतना में धारण करती है। यही है वह शक्ति स्रोत जिसमें भी अपनी पात्रता के अनुरूप देवत्व धारण किया जा सकता है और महामानव, देवात्मा ऋषि एवं अवतार बना जा सकता है।


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