परोक्ष जगत की पाश्चात्य विवेचना

April 1986

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स्थूल वस्तुओं के हस्ताँतरण में भले ही देर लगे परन्तु सूक्ष्म तत्वों के बारे में यह मान्यता अक्षरशः गलत बैठती है। उनका आदान-प्रदान सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। हवा, गर्मी, प्रकाश और शब्द आदि को लम्बी दूरी तय करने में कोई विलम्ब नहीं लगता। ‘ऐस्ट्रल बॉडी’ के लेखक आर्थुर ई. पवैल ने सूक्ष्म शरीर की परमाणु संरचना के सम्बन्ध में बताया है कि इसके परमाणुओं की संख्या 495 अर्थात् 282475249 बबल्स होती है, जो मस्तिष्कीय परमाणु संख्या से कहीं अधिक होती है।

रामचरित मानस का एक प्रसंग है। लंका दहन के समय मरुत पुत्र हनुमान को उनचास प्रकार के पवनों का सहयोग मिला था। वस्तुतः इसे सूक्ष्म शरीर का विस्तार ही कहा जा सकता है।

भौतिक संरचना की दृष्टि से सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को सात श्रेणियों में विभक्त किया गया है। (1) सौलिड (2) लिक्विड (3) गैसियम (4) ईथरिक (5) सुपर ईथरिक (6) सब-एटमिक और (7) एटामिक। वैज्ञानिकों के कथानुसार स्थूल शरीर में भी 99 प्रतिशत परमाणु सूक्ष्म शरीर के ही क्रियाशील बने रहते हैं। सूक्ष्म परमाणुओं से बने शरीर को सूक्ष्म शरीर कहते हैं। लेकिन इनकी संरचना परमाणु विज्ञान से कुछ भिन्न स्तर की होती है। इसके परमाणु सजीव एवं चेतन होते हैं। दूसरे शब्दों में इसे प्राण शरीर भी कह सकते हैं। वर्षा, शीत, उष्णता, सुख-दुख का अनुभव स्थूल की भाँति ही उसे होता है किन्तु सूक्ष्म शरीर के परिपोषण के लिए अन्न की आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल विचार और भावना ही इस प्रयोजन की पूर्ति करते हैं।

विचारों और भावनाओं का मूल केंद्र सूक्ष्म शरीर है। इनका प्रवाह यदि निषेधात्मक और ध्वंसात्मक है तो व्यक्ति पिशाच, असुर, राक्षस, शैतान बनेगा, विधेयात्मक स्थिति में महापुरुष, ऋषि, देवात्मा तथा महात्मा की श्रेणी में गिना जाने लगता है। इन्हीं के द्वारा मनुष्य सुखी, स्वस्थ, पराक्रमी तथा यशस्वी बनते हैं और यही प्रवृत्तियां उन्हें दुःख, रोगी, दीन, दाम और तुच्छ बनाकर छोड़ती हैं। मनुष्य-मनुष्य में जो जमीन आसमान जैसा अन्तर नजर आता है वह इन्हीं की परिणति है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सद्विचारों और सद्भावों के समुच्चय को ही 33 करोड़ देवताओं की संज्ञा दी गयी है।

अब प्रश्न उठता है क्या विचारों की अकूत सामर्थ्य को यन्त्र, उपकरणों के माध्यम से मापा जा सकता है? वैज्ञानिकों ने ‘हार्मोनोग्राफ’ यन्त्र का निर्माण करके एक अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है। कलैडिनी साउन्ड फ्लेट यानी ‘ऐडोफोन’ की खोज भी इसी के सदृश्य है जिनमें विचारों की क्रियाशीलता को सुगमतापूर्वक देखा जा सकता है। सेना में संगीत के माध्यम से सैनिकों के सूक्ष्म शरीर अर्थात् विचार प्रवाह की शक्ति को विधेयात्मक मोड़ दिया जाता है जिससे उनमें साहस और देश भक्ति की भावनायें विकसित होने लगें। रुद्राक्ष, तुलसी, चन्दन आदि में पवित्र भाव विद्यमान होने के फलस्वरूप ही पूजा अर्चना में इनकी माला का इस्तेमाल किया जाता है।

लगभग चार हजार वर्ष पूर्व मिश्र के महान अध्यात्म वेत्ता स्क्राइन ऐनी ने बताया कि मृत्यु के बाद जीवन का अस्तित्व बना रहता है। परिपक्व मृत्यु होने के बाद चेतना कुछ समय के लिए विश्राम में चली जाती है। जीव की अवस्था के अनुरूप वह दो माह से दो वर्ष तक विश्राम ले लेने के पश्चात् नया जन्म धारण कर लेती है। ग्रीक लोग उसे ‘सबलूनर वर्ल्ड’ के नाम से पुकारते हैं। कहने का तात्पर्य है कि पृथ्वी में चन्द्रमा तक अर्थात् 2 लाख 40 हजार तक की दूरी में सूक्ष्म शरीर मरणोपरान्त भ्रमणशील बना रहता है। यहीं पर रैड इण्डियन का हंटिग ग्राउण्ड, नोर्समैन का बलहल्ला, मुसलमानों का हैरीफील्ड पैराडाइज, ईसाइयों का गोल्ड एण्ड ज्वैल्ड गेटेड न्यू जेरूसलम तथा भौतिक जगत के सुधारकों का लीसम-फिल्ड हैवन के होने का अनुमान लगाया जाता है।

विश्राम के बाद देवात्माएं, जिनके शरीरों का आणविक विकास प्रकाशपूर्ण हो गया होता है, दिव्य लोकों को चली जाती हैं और जब तक वहाँ रहने की इच्छा होती है तब तक रहती हैं। पीछे इच्छानुसार सुसंस्कारी परिवारों में जन्म लेकर लोक सेवा, पुण्य-परमार्थ और नेतृत्व उत्तरदायित्व सम्भालती हैं। सूक्ष्म शरीर को चौथा आयाम भी कहते हैं। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई जैसी विशेषताओं से इसकी संरचना मेल नहीं खाती।

सूक्ष्म शरीर में विचरण कर रही भूलोक की आत्माओं को मध्यकाल में नौम, वाटर, स्प्रिट अनडाइन, एअरस्प्रिट सेले भेंडर के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। सामान्य भाषा में इन्हें परी, अप्सरा, ऐल्व, बेताल, पेरिश, डाइन्स, दैत्य, वन देवता, लम्पट, शैतान, पिशाच तथा देवात्माएं कह सकते हैं। मरण और पुनर्जन्म की अवधि में जीवात्मा को अशरीरी किन्तु अपना मानवी अस्तित्व बनाये रहना पड़ता है। जीवन मुक्त आत्माऐं वस्तुओं स्मृतियों घटनाओं और व्यक्तियों से प्रभावित नहीं होती और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरान्त पुनः अपने लोक को वापिस लौट जाती हैं। किन्तु सामान्य स्तर की आत्मायें अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूरा करने का ताना-बाना बुनती रहती हैं। विछोह, राग-द्वेष की, प्रतिक्रियाओं से उद्विग्न रहित हैं। वस्तुतः ये अशरीरी आत्मायें सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं।

देवात्माओं को ईश्वर का संदेशवाहक कहा जाता है। मनुष्य के बाद की श्रेणी देव योनि में ही पहुँचने की है। चौरासी लाख योनियाँ तो शरीरधारियों की हैं। वे स्थूल जगत में रहती हैं और आँखों से देखी जा सकती हैं। लेकिन दिव्य आत्माओं का शरीर दिव्य होने के कारण उन्हें चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। देवताओं की तीन श्रेणियाँ गिनी गयी हैं। (1) कामदेव (2) रूप देव (3) अरूप देव। देवताओं के मार्गदर्शक एवं पृथ्वी तत्व पर नियन्त्रण रखने वाले चतुर राजाओं यानी देव राजसों का उल्लेख विश्व के विभिन्न धर्मग्रन्थों में प्रायः होता आया है। ब्लैवट्स्की की सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय पुस्तक ‘सीक्रेट डौकट्राइन्स’ में इन देवराजसों की संख्या सात की अंकित की गयी है। हिन्दू धर्म में सप्त ऋषियों की भूमिका इसी प्रयोजन को पूरा करने की रही है।

मरणोपरान्त भी आत्मा का अस्तित्व यथावत बना रहता है। जीवित और मृत भेद मात्र स्थूल जगत तक ही सीमित रहता है। सूक्ष्म जगत में सभी जीवित हैं। इस प्रकार की मान्यतायें चिन्तन के कितने ही उत्कृष्ट आधार प्रदान करती है। आज हिन्दू, भारतीय एवं पुरुष हैं। कल के जन्म में ईसाई, योरोपीयन या स्त्री भी हो सकते हैं। आज का सत्ताधीश, कुलीन मनुष्य सोचता है कल प्रजाजन, अछूत एवं पशु बनना पड़ सकता है। मृत्यु की विभीषिका से बचने का यह सहज और सरल तरीका है।

कैलीफोर्निया के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये पर्यवेक्षणों से पता चला है कि सूक्ष्म शरीर पर जलवायु का उतना ही प्रभाव पड़ता है जितना कि स्थूल पर। इसके विकास में शीत ऋतु को उनने अधिक उपयुक्त समझा है। इसलिए ऋषियों ने हिमालय क्षेत्र को साधना उपासना की दृष्टि अधिक उपयुक्त चुना है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं अध्यात्मवेत्ता लैडबीयर का कथन है कि आपत्तिकालीन स्थिति में उनकी सहायता 7000 मील दूर अदृश्य सहायकों ने ही की। इसका अनुमान सूक्ष्म शरीर की क्रियाशील विद्युत को देखकर लगाया जा सकता है। उसमें सूर्य तथा अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों से आने वाली ज्ञात और अविज्ञात किरणों का भरपूर समन्वय विद्यमान है।

स्थूल शरीर जड़-पदार्थों के बन्धनों से बँधा होने के कारण ससीम है, पर सूक्ष्म शरीर के बारे में यह मान्यता सही नहीं बैठती। उसकी सम्भावनायें अनन्त और असीम हैं। जिन तत्वों और इकाइयों से इसका निर्माण हुआ, वे समूचे ब्रह्माण्ड की गतिविधियों को प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती हैं।


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