गीता की गणना यों हिन्दू धर्म के धर्मशास्त्रों में होती है, पर वस्तुतः वह विश्व धर्म, मानव धर्म, सार्वभौम धर्म का सबसे छोटा एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें तत्वज्ञान, आचारशास्त्र, नीति, औचित्य, विवेक जैसे सभी महत्वपूर्ण विषयों का समावेश हो जाता है।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि धर्मग्रन्थों को मात्र पूजापाठ की वस्तु मान लिया गया है। उनके उल्लेखों का वाचन या श्रवण ही पुण्यफल दाता मान कर सन्तोष कर लिया जाता है। यह आरम्भिक जानकारी या विषय वस्तु समझने के लिए किसी ग्रन्थ का पढ़ना, समझना तो आवश्यक है, पर इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो गई। यदि ऐसा ही होता तो महत्वपूर्ण ग्रन्थों के मुद्रक, प्रकाशक, विक्रेता उन विषयों के अनुभवी पारंगत भी हो जाते और उनका वही लाभ उठाते जो उन प्रसंगों को जीवन में उतारने वाले उठाते हैं।
विश्व के देशों के मानचित्र एवं भूगोल बाजार में बिकते हैं। उन्हें पढ़ने-देखने से एक अनुभव तो होता है, पर वह लाभ नहीं मिलता जो उन क्षेत्रों का परिभ्रमण करने अथवा सम्पर्क साधने से मिलता है।
हिंदू धर्म में गीता, रामायण, भागवत आदि के कथा-प्रसंग कहने-सुनने के आयोजन आये दिन होते रहते हैं, पर उनके पीछे प्राय: मान्यता यही रहती है कि इस वाचन, कथन, पठन, श्रवण भर से वह पुण्य मिल जाय जो इनकी बताई हुई रीति-नीति जीवन में उतारने पर मिल सकना सम्भव है।
गीता के प्रतिपादन वस्तुतः ऐसे हैं, जिससे उसे सार्वभौम तत्वज्ञान का, विश्व धर्म का श्रेय मिला है।
लोकमान्य तिलक, गांधी जी, सातवलेकर, गीतानन्द, चिन्मयानन्द, शंकर, रामानुज, विनोबा, ज्ञानेश्वर तथा अनेक संस्कृत आचार्यों ने गीता के अर्थ तथा विवेचन अपनी-अपनी दृष्टि से किये हैं, और भी अनेक विश्व विद्वानों ने इस पर लेखनी उठाई है और जो जितना गहरा उतरा है उसे उतना ही प्रकाश हाथ लगा है।
सर एडविन आर्नाल्ड ने गीता का अंग्रेजी में पद्यानुवाद किया था। उन्होंने अनेकों पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान इस दार्शनिक सम्पदा की ओर खींचा। ईस्ट इंडिया कम्पनी के वरिष्ठ अधिकारी चार्ल्स विलकिन्स इस ग्रन्थ पर मुग्ध थे। भारत के गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्स ने भी बड़ी बारीकी से इसे समझने का प्रयत्न किया और कम्पनी के आर्थिक अनुदान से इसका प्रकाशन इंग्लैंड में सन् 1784 में कराया।
इसके अतिरिक्त प्रो. मैक्समूलर पालड्रसन, हक्सले, क्रामस्टोफर, ईशरवुड आदि ने भी इसकी सुविस्तृत विवेचनाएं की और कहा कि गीता में वह सब कुछ है जो विभिन्न धर्मों के विश्व के अतिरिक्त जनों ने समय-समय पर किसी भी रूप में कहा है।
राजगोपालाचार्य और सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पूर्वार्त्त और पाश्चात्य नीति दर्शन का इसे संगम समन्वय कहा है। स्वामी चिन्मयानन्द ने भी इस ग्रन्थ के कई सामान्य समझे जाने वाले प्रसंगों पर तीखा प्रकाश डाला है।
गीता यों महाभारत के 18 अध्यायों का पृथक से छपा एक संकलन मात्र है, पर उसमें जीवन दर्शन से सम्बन्धित इतने अधिक विषयों का क्रमबद्ध रूप से गुन्थन किया गया है कि चिन्तन का कोई महत्वपूर्ण विषय उसमें छूटने नहीं पाया है।
गीता माहात्म्य में उसे सभी उपनिषदों का सार कहा गया है जिसे कृष्ण ने दुहा और अर्जुन रूपी बछड़े ने पिया है, पर वस्तुतः यह न कोई इतिहास है और न किसी सामयिक समस्या का समाधान जैसा कि उसके प्रथम अध्याय की भूमिका को पढ़ने समझने से प्रतीत होता है। यदि ऐसा होता तो उसमें औपनिषद तत्वज्ञान का इतना गहरा समावेश करने की आवश्यकता न होती।
गीता हर बुद्धिवादी के लिए पढ़ने योग्य है। उसके सहारे किसी अनसुलझी समस्याओं का समाधान मिलता है जिनके सम्बन्ध में विद्वजन असमंजस में ही बने और विवाद करते रहे हैं।