यद्ब्रह्म तज्ज्योतिः यज्ज्योतिः स आदित्यः

April 1986

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ज्ञान का मोटा अर्थ है “जानकारी”। काम चलाऊ जानकारी प्रायः सभी को होती है। निपट अनाड़ी मन्दमति, बुद्धिहीन स्तर के अर्थ विक्षिप्तों को ही अज्ञानी कहते हैं। ऐसे लोग अपवाद स्वरूप विरले ही पाये जाते हैं। सामान्यतया अधिकांश ऐसे ही होते हैं जिन्हें जानकार कहा जा सके।

अध्यात्म तत्वज्ञान में ‘ज्ञान’ शब्द को विशेष अर्थ में लिया गया है और उसकी महिमा भी बहुत बताई गई है। कहा गया है कि “ज्ञान से बढ़कर पवित्र और कुछ नहीं है।” (न हि ज्ञानेन सद्दश पवित्रमिह विद्यते)। यदि सामान्य ज्ञान से इसका तात्पर्य रहा होता तो स्कूली शिक्षा प्राप्त प्रत्येक साक्षर को ज्ञानवान कहा जाता और यह समझा जाता कि उससे श्रेष्ठ सम्पदा और किसी के पास नहीं है। किन्तु बात ऐसी है नहीं। तत्वज्ञानी ज्ञान की उपमा सूर्य से देते हैं। सूर्य के उदय होने पर अंधकार का नाश हो जाता है। यहाँ अंधकार का तात्पर्य भी अज्ञान से लिया गया है। तात्पर्य समझने का प्रयत्न किया जाय तो यह संगति उस भ्रम के साथ बैठती है जिसे भ्रान्ति या माया कहा गया है। भ्रान्ति क्या है? सामान्य व्यक्ति भी बाजार से वही खरीदता है जो खरीदना है। वस्तुओं के नाम भी वही बताता है जो उसका है। फिर भ्रम किस बात का?

यह अध्यात्म क्षेत्र की विडंबना है। हम अपने आत्म स्वरूप को भूल जाते हैं और शरीर को अपने में- अपने को शरीर में ओत-प्रोत देखते हैं। जब कि वस्तुतः दोनों सर्वथा भिन्न हैं। शरीर को एक वाहन, उपकरण, औजार समझना चाहिए और उसके द्वारा जीवन के मूलभूत उद्देश्य की पूर्ति के लिए जो काम लिया जाना चाहिए सो लेना चाहिए। इस भ्रान्ति में नहीं पड़ना चाहिए कि हम शरीर मात्र हैं। उसी की वासना, तृष्णा, अहन्ता हमारे लिए इष्ट अभीष्ट है। इसलिए अपना समग्र समय, श्रम और मनोयोग उन्हीं के लिए लगा देना चाहिए। अपना समग्र स्वरूप, आनन्द, वैभव शरीरगत महत्वाकांक्षाओं को ही मान बैठना चाहिए।

अध्यात्म के नाम पर चाहे कहा सुना कुछ भी जाता है। पर व्यक्ति की मान्यता इस संदर्भ में इतनी परिपक्व है कि शरीर सुख के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। आत्मा की पृथकता- कहते सुनते तो रहते हैं, पर वैसा कभी अनुभव नहीं करते। यदि करते होते तो आत्मा का स्वरूप, उद्देश्य, उपयोग भी समझते और अपनी कार्य पद्धति का तद्नुरूप निर्माण निर्धारण करते। तब ध्यान में आता कि यह सुर दुर्लभ अवसर इसलिए मिला है कि उसका सही सदुपयोग करके अपने यथार्थ ज्ञान का परिचय हो और उस प्रयास के बदले जो कुछ उपलब्ध हो सकता है उसे प्राप्त करके धन्य बनें।

आत्मा को शरीर इसलिए दिया गया है कि वह उससे आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण का पुण्य परमार्थ साधकर कृत-कृत्य बनें। अपनी इस सूझ-बूझ के उपहार में महामानव ऋषि, मनीषी और देवात्मा स्तर की उत्कृष्ट पदवी प्राप्त करते हुए कृतकृत्य बनें। इस तथ्य को हृदयंगम कर लेने और आचरण में उतारने की युक्ति को ज्ञान कहा गया है। आत्म विस्मृति की भ्रान्ति अपना लेने का नाम ही अज्ञान, अंधकार, भ्रान्ति एवं माया है।

तथ्य को अलंकारिक रूप में समझाने के लिए ज्ञान की उपमा सूर्य से दी गई है। जब तक सूर्य उदय नहीं होता तब तक प्राणी अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता रहता है, झाड़ी को भूत समझता है। रस्सी को साँप समझता है और सही पगडण्डी को छोड़कर झाड़-झंखाड़ भरी उलझन में जा फँसता है। लिप्सा-लालसा के व्यामोह में वह सोचता है जो नहीं सोचना चाहिए। वह करता है, जो नहीं करना चाहिए। इसी भ्रान्ति दुर्गति को माया के भ्रम जंजाल में भटकना कहा जाता है।

सूर्य निकल आने पर स्थिति सही रूप से दीख पड़ती है। शरीर को उपकरण और आत्मा को आधिपति समझने की सूझ-बूझ उग आती है। फलतः मनुष्य सही मार्ग अपनाता लक्ष्य तक पहुँचाता, श्रेयस्कर परिणाम प्राप्त करता है। ऐसी व्यवस्था जुटा देने के कार्य सूर्य को ज्ञान के- ज्ञान को सूर्य के समतुल्य माना गया है।

इस अलंकारिक उपमा का उल्लेख शास्त्रकारों ने स्थान-स्थान पर किया है।

वेद ने ब्रह्म अर्थात् परमात्मा के श्रुतिलभ्य ज्ञान को सूर्य के सदृश ज्योति रूप में चित्रित किया है-

‘ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिः।’ (यजुर्वेद 23/48)

अर्थात्- मैत्रायण्युपनिषद् ने भी “जो ब्रह्म है, वह ज्ञानमय ज्योति ही है और जो ज्योति है, वही सर्वोद्भासक आदित्य है। मंत्रदृष्टा ऋषि ने अज्ञान घन का भेदन करके, उसके पार चमकने वाले उन आदित्यवर्ण परमात्मा का दर्शन कर लिया है, अतः उनका कथन है कि मैं उस तत्व को समझ गया हूँ उसको जानने की तीव्रतम जिज्ञासा ही मृत्युरूप इस आवरण धन माला का भेदन कर सकती है, इसके लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है-

“वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण” तमसः परस्तात्। तमेव विदित्याsतिमृत्युमेति नान्यः पन्या विद्यतेsयमाय। (यजुर्वेद 32।28)

आश्चर्य इस बात है कि जानकारी रहते हुए भी अनजानों जैसी रीति-नीति क्यों अपनाई जाती है? धर्मोंपदेशक और तत्त्ववेत्ता भी माया के व्यामोह में अज्ञानी भ्रमग्रस्तों जैसा आचरण क्यों करते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि बहुधा मस्तिष्क में बुद्धि होते हुए भी वह दुर्बुद्धि स्तर पर उतर आती है और यथार्थता के विपरीत आचरण करती है। सूर्य के प्रभाव से ही समुद्र में से बादल उठते हैं और वे बादल ही सूर्य के प्रकाश को ढ़ककर अंधकार जैसी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं।

शास्त्रकार ने आगे कहा है-

‘एतद्वै ब्रह्म दीप्यते यथादित्यो दृष्यते।’ (कौशीतकि ब्राह्मण 12)

अर्थात्- “यह ब्रह्म ही दीपित हो रहा है जो आदित्य दिखाई पड़ता है।”

सूर्य ऊर्जा और आभा का प्रतीक है। उसमें रोशनी भी है और गर्मी भी। सद्ज्ञान को सूर्य की उपमा देने की ठीक स्थिति तब बनती है, जब विवेकवान में न केवल आत्मबोध का उदय हो वरन् ऐसी प्रखरता- ऊर्जा भी उत्पन्न हो जिसके सहारे अपने को भटकाव के दलदल में से निकाल कर सही मार्ग अपना सके और गर्त में गिरने की अपने उबरने की स्थिति अपना सकें।

ज्ञानवान होने के दो लक्षण बताये गये हैं एक आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना और दूसरे “विश्व बन्धुत्व” की अनुभूति। अपने को सबमें और सबको अपने में देखने का व्यावहारिक स्वरूप यही बनता है कि हँसते-हँसाते जिऐं और मिल बाँटकर खायें। जो अपने सुखों को दूसरों के निमित्त बाँट सकता है और दूसरों के दुःखों में हिस्सा बँटा सकता है तो समझना चाहिए कि दूसरी सद्बुद्धि का आविर्भाव हुआ और ज्ञान ने कार्य में- मान्यता ने प्रयास में परिवर्तित होने का साहस भरा कदम उठाया।

सद्ज्ञान इसी का नाम है जो जीवन का प्रकाश है। सही मार्ग अपनाने की प्रेरणाएँ प्रदान करें और साथ ही इतना शौर्य, साहस, विवेक और पराक्रम भी प्रदान करे जो पथ भ्रष्ट, आलसी, प्रमादी, उन्मादी और अर्धविक्षिप्त लोगों द्वारा अपनाई गई रीति-नीति से अलग हटकर अपने निमित्त अपना निर्धारण स्वयं कर सके। अन्धानुकरण का परावलम्बन छोड़ें उस ऊर्जा से उनके मानस को छुटकारा मिल सके और अकेला चल पड़ने का साहस उमंगे। समझना चाहिए कि उसी के अंतराल में विवेक रूपी सूर्य का उदय हुआ और उसी के श्रेय सौभाग्य का उदय हुआ।


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