सात्विक आहार और आत्म साधना

April 1986

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आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए प्रगति पथ पर पहला चरण बढ़ाने वाले को अपने आहार को सुधारने और उसकी मात्रा में कटौती करनी चाहिए। किसके लिए आहार की कितनी मात्रा पर्याप्त है? इसका निर्णय उसी को स्वयं करना होगा। क्योंकि हर व्यक्ति की स्थिति भिन्न होती है। उसके पाचन तन्त्र की क्षमता कितनी है? इसकी जानकारी जितनी अच्छी तरह अपने आप को होती है, उतनी दूसरे को नहीं। इसलिए निर्धारण भी स्वयं ही किया जाना चाहिए।

इसकी दो कसौटियाँ हैं। एक यह कि भोजन का भार इतना न बढ़े कि आलस्य आने लगे। लेटने सोने को जी करे। काम करने की इच्छा न रहे। यह बातें बताती हैं कि भोजन अनावश्यक मात्रा में किया गया। दूसरा यह कि पेट आधा ही आहार से भरे। आधा, पानी के लिए और साँस के आवागमन के लिए खाली छोड़ा जाना चाहिए। ठूँस-ठूँसकर इतना न खाया जाना चाहिए कि आग्रह करने पर थोड़ा और खा लेने की गुंजाइश न रहे। तीसरी परख यह है कि दूसरी बार भोजन करने से पूर्व पिछला खाया हुआ भली प्रकार पच गया हो और नया आहार ग्रहण करने की लालसा बलवती हो चले। पेट खाली प्रतीत हो। ऐसी स्थिति न बन पड़े तो समझना चाहिए कि पहले खाया हुआ अभी पचा नहीं है। अपच की स्थिति में आदत से विवश होने पर खाने की आदत भड़कते ही थाली परोसवा लेना गलती की बात है।

पेट की सामर्थ्य से अधिक खाते रहने, बार-बार जल्दी-जल्दी कुछ न कुछ मुँह में ठूँसते रहने की आदत से स्वभाव बिगड़ जाता है और वैसा ही मतत् करने की उत्कण्ठा उभरती है। यह आदत एक प्रकार से स्वभाव को ही बिगाड़ देती है और पता नहीं चल पाता कि भूख लगी भी है या नहीं? ऐसी दशा में एक दो दिन का उपवास केवल जल पर रखने और पेट की सफाई के लिए ऐनीमा आदि लेते रहने से कब्ज से छुटकारा मिल जाता है। उतरी हुई गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाती है।

आमतौर से देखा गया है कि लोग प्रायः आवश्यकता से दूना भोजन करते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य रोटी नहीं खाता वरन् रोटी मनुष्य को खाने लगती है। एक साधारण अनुमान यह है कि अभ्यस्त मात्रा से यदि आधी मात्रा घटा दी जाय तो काम मजे में चलता रह सकता है। पेट को जो अनावश्यक भार ढोने में अपनी सामर्थ्य समाप्त करनी पड़ती है, उस अनाचार से छुटकारा मिल सकता है।

जल्दी-जल्दी में उल्टे सीधे ग्रास निगलने नहीं चाहिए, वरन् ग्रास को इतना चबाया जाना चाहिए कि वह गले से नीचे सहज ही उतर जाय, उसमें मुँह के स्रावों का समुचित समावेश हो जाय।

भोजन में स्वाद के नाम पर मसाले, मिठाई, चिकनाई, मिर्च, खटाई, इतनी नहीं डालनी चाहिए जिससे स्वाद के चटोरपन में आहार की ज्यादा मात्रा पेट में चली जाय। भोजन का अपना निजी रुचिकर स्वाद है। ग्रास को अच्छी तरह चबा लेने पर उस स्वाद की अनुभूति स्वयं होने लगती है। जितना नमक, शकर आदि चाहिए उतना खाद्य पदार्थों में प्राकृतिक मिला रहता है। इसलिए बाहर से जायके के लिए कुछ भी मिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

गान्धीजी ने सप्त महाव्रतों में “अस्वाद” को प्रथम व्रत बताया है। अस्वाद का तात्पर्य है जायके के लिए आहार में ऊपर से कुछ भी न मिलना। ऐसा करने से पेट में उतनी ही मात्रा उतर पाती है, जितनी कि वस्तुतः आवश्यक है। नमक, मसाले और मिठाई ही वह रिश्वत है जिसे जीभ को देकर उससे पेट पर अत्याचार करने के लिए फुसलाया जाता है। अस्वाद आहार पेट में उतनी ही मात्रा में प्रवेश कर पाता है जितनी कि वस्तुतः आवश्यकता है।

मनुष्य वानर बिरादरी का प्राणी है। उसके स्वाभाविक आहार फल और शाक है। ऊँचे दर्जे के फल ही महंगे होते हैं। ऋतु फल प्रायः अनाज के भाव ही पड़ जाते हैं। आम, अमरूद, खरबूजा, तरबूज, बेर, जामुन आदि फल अपने समय पर सस्ते ही बिकते हैं। टमाटर, ककड़ी, भिण्डी, गाजर, मूली आदि शाक कच्चे ही खाये जा सकते हैं। कुछ हरे शाक ऐसे हैं, जिन्हें उबाल लेने से काम चल जाता है।

इनसे काम न चलता दीखे तो अन्न को उबालकर खाया जाना चाहिए। उन्हें बारीक न पीसा जाय तो ही अच्छा है। दालें साबुत ही पकानी चाहिए। चावल तो साबुत पकता ही है। गेहूँ, मक्का, ज्वार, बाजरा आदि का दलिया बनाया जा सकता है। उबले अन्न को अमृताशन कहते हैं। वह सुपाच्य भी होता है और सात्विक भी। आधी मात्रा फल शाक की और आधी अमृताशन की ली जा सके तो पर्याप्त है।

पानी भी आहार है। उसे गहरे कुओं से लिया जाय। कृमि कीटकों का सन्देह हो तो उबाल लिया जाय। छानकर तो हर हालत में पीना चाहिए। भोजन के समय तो कम पानी लिया जाय, पर बाद में एक-एक ग्लास पानी लेते रहने का सिलसिला जारी रखना चाहिए और दिन भर में 15-20 ग्लास पानी पी लिया जाय। इससे पेट की सफाई में मदद मिलती है।

आहार को भगवान का प्रसाद या औषधि की भावना से लिया जाना चाहिए। स्वाद के अभाव में नाक भौं सिकोड़ने की आदत न डाली जाय। जो चीज अपने अनुकूल न पड़ती हो, उसे पहले ही हटा देना चाहिए। ताकि जूठन छोड़ने का अवसर न आये। साधारणतया दोपहर और शाम को दो ही बार भोजन करना चाहिए। प्रातःकाल दूध, छाछ, नींबू, शहद जैसी हल्की वस्तुएँ हल्का पेय लिया जा सकता है। बीच-बीच में कुछ खाते रहने की आदत तो डालनी ही नहीं चाहिए।

शास्त्रकारों ने हर साधक को- आरोग्याकांक्षी, संयमी, विचारशील को आहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष ध्यान देने योग्य परामर्श दिये हैं। छांदोग्य उपनिषद् का कथन है- “जो खाया जाता है उसके तीन भाग बनते हैं- निरर्थक अंश का मल, सार्थक भाग का रक्त-माँस और उसके सूक्ष्म भाग से मन बनता है। यह मन अन्नमय है।”

देवी भागवत का कथन है- “आहार शुद्ध होने पर चित्त निर्मल होता है और निर्मल चित्त से ही धर्मधारणा बन पड़ती है।

तैत्तिरीय का कथन है- “अन्न ही सर्वश्रेष्ठ औषधि है। इसे बुद्धिमान विचारपूर्वक खाते हैं। अविचारी असंयमी इस अन्न द्वारा ही खा लिये जाते हैं।”

वाल्मीकि रामायण का कथन है- “जैसा जिसका आहार होता है, वैसे ही उसके देवता होते हैं।”

गायत्री उपनिषद् में कहा गया है- “यज्ञ वेदों पर निर्भर है। वेद वाक् पर। वाक् मन पर। मन प्राण पर और प्राण अन्न पर निर्भर है। इसलिए सत्व भोजी ही याज्ञिक हो सकता है।

तैत्तिरीय का एक और कथन है- “आश्चर्य है कि मैं इतना भी नहीं समझा पाया कि व्यक्तित्व आहार पर ही निर्भर है।”

घेरंड संहिता की उक्ति है- “अन्न को अमृतमय बनाकर खाने वाले सिद्ध पुरुष हो जाते हैं। छान्दोग्य का कथन है- “यह अन्न ही ब्रह्म है, यही मन है, यही तप है।” मनु कहते हैं- “आलस्य और अन्नदोष से लोग बेमौत मरते हैं।

पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् में कहा गया है- “अभक्ष्य आहार त्याग देने से अन्तःकरण पवित्र होता है। ज्ञान का उदय होता है और बन्धन टूट जाते हैं। ब्रह्म पुराण में लिखा है- “दलिया, खिचड़ी और सात्विक पदार्थों का सेवन उपवास माना गया है। उनसे आत्म शुद्धि होती है और आत्मतेज प्राप्त होता है। कर्म पुराण में लिखा है- “जो पर उपार्जित अन्न खाता है। वह उसके पाप ही खाता है। ऋग्वेद का वचन है कि अन्न का एक अंश परमार्थ के निकालकर तब बचे हुए को ही खाना चाहिए।

ऐसे अगणित शास्त्र वचन हैं, जिनमें न्यायोपार्जित सात्विक आहार पर निर्भर रहकर ही योग साधना करने का निर्देशन है।


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