ईश्वर के अनुग्रह से वंचित न रहें।

April 1986

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मनीषी कहते हैं कि ईश्वर को अपने से जितना दूर समझोगे वह उतनी ही दूर रहेगा। ब्रह्मलोक, गौलोक, शून्यलोक आदि में रहने और अवसर मिलने पर किसी की याद कर लेने का स्वभाव भी उसका माना जा सकता है। पर अच्छा यही है कि उसे अपने निकटतम समझा जाय। अन्तःकरण में अवस्थित उस परम सत्ता के आगे भिखारी की तरह कुछ माँगते रहने के लिए पहुँचेंगे तो वह गुब्बारा, चाकलेट, झुनझुना जैसा कुछ देकर बहला देगा। पर यदि उसके राजकुमार और सेनापति बनकर रहेंगे तो उस पद के अनुरूप अनुदान-आदर भी पायेंगे और वेतन भी। वार्ता करने में उसके साथ रस आना चाहिए, वैसा जैसा बालक को अपने अभिभावक के साथ आता है।

ईश्वर को जो देना था, दे चुका। मनुष्य जन्म से बढ़कर और कोई कलाकृति उसके पास है नहीं। इतना देने के बाद वह तुमसे अनुदान का प्रतिदान चाहता है। वृक्ष जमीन के माध्यम से जीवन रस प्राप्त करते हैं पर उसे स्वयं पचा नहीं जाते। विकसित पल्लवित होते और फूलते फलते हैं। पर उस सम्पदा को वे ईश्वर के निमित्त, उसे प्राणि पुत्रों के निमित्त उन्हें जो मिला है उस सब कुछ को वापस लौटाते रहते हैं।

कोयल आम का रसपान करती है, पर बदले में उसे सुरीली कूक सुवासित पुलकित कर देती है। भौंरा पुष्प का पराग पाता है पर अपने गुँजन से उसके समूचे परिकर को गुँजित कर देता है। हमें भी कुछ ऐसा ही करना चाहिए।

ईश्वर की उपासना, कर्मकांडों से नहीं, भावनाओं से की जाती है। उसे केवल भक्त की भावनाओं का स्वाद सुहाता है। ईश्वर के प्रति भक्ति-भाव रखने का तात्पर्य है उसके इस विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य- अधिक सुविकसित बनाना। मात्र भावुकता प्रकट करने की प्रवंचना उसे लुभाने फुसलाने में समर्थ नहीं होती।

जो ईश्वर से चाहते हो, उसके लिए प्रयत्न पुरुषार्थ करो। वह तुम्हारी सहायता करेगा। अकर्मण्यों को भिक्षा भी नहीं मिलती। मिलती भी है तो इतनी तुच्छ और क्षुद्र जिससे ग्रहीता और दानी दोनों का मान घटे। अपनी पात्रता विकसित करो ताकि अधिकर पूर्वक माँगने और उदारतापूर्वक पाने का सुयोग उपलब्ध कर सको।

ईश्वर आपके घर आँगन में आने और निवास करने के लिए आतुर है। आप उसमें भरी सड़न और गन्दगी को बुहार डालें ताकि उसे बहुत देर अपने बैठने लायक जगह तलाश करने का इन्तजार न करना पड़े।

अपने हृदय को करुणा से, हाथों को उदारता से, वचनों को मधुरता से और मन को प्रफुल्लता से स्वच्छ कर डालें, इतनी भर स्वच्छता उससे गले मिलने के लिए पर्याप्त है।

दोषों से छुटकारा पाना भक्ति को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है। न ईर्ष्यालु बनो, न स्वार्थी, न अशांत रहो, न असन्तुष्ट। पापों का प्रायश्चित करो और उस वातावरण से, संपर्क से दूर रहो जो तुम्हें गिराता और लुभाता है। न किसी ठगो, न अपने को ठगाओ। न अनीति बरतो और न अनीति के सामने सिर झुकाओ। दूसरों के साथ ऐसी भलाई बरतो जो ईश्वर ने तुम्हारे साथ बरती है।

ईश्वर न किसी को भटकाता है और न मिलने के लिए आतुर को तरसाता है। आप ही हैं, जो उसे द्वार बन्द करके प्रवेश होने से रोकते हैं। आप ही हैं जो कुपात्रता का प्रदर्शन करक उसे चोट पहुँचाते और वापस लौटाते हैं।


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