अपनों से अपनी बात

April 1986

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साधना में विराम तथा भावी योजना का स्पष्टीकरण

बसन्त पूर्व के दिन अपना संदेश और कर्तृत्व का स्वरूप समझाने, भावी योजना बताने के लिए गुरुदेव ने अपनी साधना में एक छोटा विराम दिया। बसन्त पर्व पर कार्यकर्ता, जीवनदानी, प्रज्ञा पुत्र मिलकर प्रायः पाँच हजार का समुदाय एकत्रित हो गया था। सभी के मन में था कि प्रायः दो वर्ष से उनके दर्शन न हो सके, उनके वचन सुनने को नहीं मिले। उनकी आतुरता एवं गुरुदेव की आत्मीयता का सम्मिश्रित रूप ऐसा बना कि साधना क्रम यथावत् चलाते हुए दो घण्टे नित्य किन्हीं वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों से मिलने का आदेश मिल गया। अस्तु वे गायत्री नगर के प्रवचन मंच पर आये। उन्होंने अब तक की अपनी साधना की सफलता पर प्रकाश डाला। कहा- “वह जीवन के पिछले दिनों की गई साधना से भिन्न है। इसे तपश्चर्या एवं योग साधना का वह स्तर कहा जा सकता है जो सिद्ध पुरुषों ने की और जन साधारण को उसका असीम लाभ पहुँचाया।”

उनकी साधना का आधा भाग 24 लाख प्रज्ञा परिजनों की सेवा, सहायता, प्रगति एवं प्रेरणा के लिए सुरक्षित है। ताकि परिजनों के साथ एक प्रकार का सम्बन्ध विच्छेद जैसा रहने से किसी को यह अनुभव न हो कि हम असहाय हो गये, मार्गदर्शन का सिलसिला टूट गया। कठिनाइयों के समय सहारा देने वाली और अपनी नाव पर बिठाकर पार लगाने वाली शक्ति के सहयोग का सम्बल टूट गया। गायत्री परिवार का सृजन घनिष्ठ आत्मीयता और भाव भरे आदान प्रदान के आधार पर हुआ है। जो लोग इस छाया में एकत्रित हुए हैं, वे पहले जन्मों में भी साथ रहे थे और इस जन्म में भी साथ हैं। सम्भवतः उन्हें अगले दिनों भी साथ ही रहना पड़े। ऐसी दशा में आवश्यक है कि उन्हें उपयुक्त दिशा, प्रेरणा और सामर्थ्य प्रदान करने का वैसा ही सिलसिला चलता रहे जैसा कि अवसर पिछले दिनों मिलता रहा है। गुरुदेव ने कहा कि हमारी अब तक की तथा भावी साधना रूपी सम्पदा में इस समूचे परिकर का हक है और वह भविष्य में भी मिलता रहेगा।

वरिष्ठ परिजनों से मात्र आध्यात्मिक चर्चाओं के लिए ही यह मध्याह्न काल में मिलन-जुलने का अवसर दिया गया है किन्तु यह सदा नहीं चलता रहेगा।

लोगों ने देखा कि गुरुदेव का स्वास्थ्य बिलकुल अच्छा था। उसमें कहीं राई रत्ती भी अन्तर नहीं आया था। जो लोग यह कल्पना या आशंका करते थे कि उनका स्वास्थ्य एकाकी कठोर साधना या अन्य किसी कारण से बिगड़ गया है, उन सभी को गुरुदेव का चेहरा और शरीर देख, ओजस्वी वाणी सुन यह विश्वास हो गया कि वे चाहें तो सौ वर्ष जीवित रहने लायक उनका संयमी जीवन है। उनके मार्गदर्शक ने कोई विशेष मोर्चे पर भेजा या शरीर बदलने को कहा तो वह आदेश तो समर्पित और सच्चे शिष्य की तरह पूरा करेंगे ही, अन्यथा स्वास्थ्य के किसी कारण से उन्हें देह छोड़नी पड़े, ऐसी कोई और बात नहीं है। पिछले दो वर्षों में दो दाँत भर उनके और उखड़े हैं।

साधना उनकी आगे भी चलती रही है। अब तक के दो वर्षों में जो हस्तगत हुआ है, उसे अधिकाधिक मात्रा में नियोजित करना है। संसार की परिस्थितियाँ बिगड़ रही हैं। आस्था संकट की चपेट में आने से बिरले ही बचे हैं। लौकिक दृष्टि से वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, विकिरण, प्रकृति प्रकोप, अदृश्य जगत का असन्तुलन, महायुद्ध की तैयारी, महामारी, बेरोजगारी, बढ़ती हुई अनीति और अपराधों की वृद्धि आदि ऐसे कारण हैं, जिनके चलते गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित सभी को हर घड़ी आशंकाओं तथा आतंक से ग्रसित रहना पड़ रहा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प ज्वालामुखी आदि के उपद्रव आये दिन खड़े होते रहते हैं। इन सब विपत्तियों ने 500 करोड़ मनुष्यों का भाग्य एवं भविष्य अंधकारमय बना दिया है। जनसंख्या जिस हिसाब से बढ़ रही है, उस हिसाब से आवश्यक साधन नहीं बढ़ रहे हैं। फलस्वरूप दरिद्रता और महंगाई बराबर बढ़ती जा रही है। इन सबको मिलाकर खतरा इतना बढ़ गया है कि समूची पृथ्वी का विनाश तक हो सकता है।

इन परिस्थितियों से लोहा लेने और उन्हें परास्त करने के लिए अध्यात्म शक्ति ही काम देती है। वृत्रासुर के आतंक से छुटकारा पाने के लिए तपस्वी दधीचि की अस्थियों का वज्र बनाया गया था और उसके प्रहार से अनाचार को परस्त किया गया था। दधीचि ने अनौचित्य का ध्वंस किया था और भागीरथ द्वारा पृथ्वी पर लाई गई गंगा ने विविध प्रकार के सृजन कार्यों का दायित्व निभाया था। हमें इन दिनों अकेले ही ध्वंस से जूझने और सृजन को व्यापक समुन्नत बनाने की अध्यात्म भूमिका निभानी पड़ रही है, इसलिए हमारी विशिष्ट साधना चल रही है। इस कड़ी अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होने की बेला में न हम विचलित हो रहे हैं और न किसी दूसरे को ही विचलित होना चाहिए। प्रहलाद और ध्रुव जिस कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे, उसमें हमें भी असफल होते नहीं देखा जाएगा।

साथ ही हम अपने निजी परिवार के अण्डे बच्चों का भी परिपोषण यथावत् करते रहेंगे। किसी को भी जुदाई की व्यथा सहन न करने देंगे। शरीर का बार-बार साक्षात्कार न होने या वार्त्तालाप का अवसर न मिलने से ही किसी को यह नहीं सोच लेना चाहिए कि सम्बन्ध सूत्र टूट गया। सच तो यह है कि वह और भी अधिक सघन हुआ है। उसमें और भी अधिक दृढ़ता आई है।

फिर भी किसी को सान्निध्य की, प्रत्यक्ष विचार विनिमय की आवश्यकता हो तो उसका तरीका यह है कि दस बार गहरे प्राणायाम करें। इसके उपरान्त दाहिना हाथ दस बार सिर पर फिरायें। इसमें अपने निजी विचार तिरोहित हो जायेंगे और हमारे विचार आपके मस्तिष्क में गूँजने लगेंगे। इस कार्य के लिए प्रातःकाल का समय ही सर्वोत्तम है। यह सबसे सस्ता वायरलैस है। इसका प्रयोग कोई भी कर सकता है। हमारे विचार ऊँचा उठाने वाले, सन्मार्ग दिखाने वाले ही हो सकते हैं। यदि कभी कुविचारों की प्रेरणा मिले तो समझना चाहिए कि बीच में ही कोई शैतानी करतूत आ धमकी। ऐसी दशा में अदृश्य विचार विनिमय को पर्याप्त न मानकर पत्र द्वारा शान्ति-कुंज से अपने प्रसंगों का समाधान कर लेना चाहिए।

इस वर्ष के लिए हमने जो कुछ कार्य अपने परिवार के लिए, परिजनों के लिये निश्चित किये हैं, वे बाल सुलभ हैं। नितान्त सरल हैं तो भी बहुत ही महत्व के हैं और उनसे हमारी निज की साधना में तथा उठाई हुई जिम्मेदारी को पूरा करने में असाधारण सहायता मिलेगी।

इस वर्ष के संकल्पों में प्रथम है एक लाख कुण्डों का यज्ञ। यह कहीं एक जगह या बड़े रूप में नहीं होगा। एक लाख वरिष्ठ परिजन अपने-अपने घरों पर अपना जन्मदिन मनायेंगे। एक-एक कुंड की वेदी, सुसज्जित यज्ञ मण्डप, कथा कीर्तन का प्रबन्ध सरलता से हो सकता है। यह परिवार निर्माण की प्रक्रिया है। इससे उस घर परिवार की सुरक्षा एवं प्रगति में सहायता मिलेगी। व्यक्तित्व का उभार या प्रतिभा का प्रसार होगा। प्रगति का द्वार खुलेगा।

इसके लिए स्थानीय शाखा संगठन को सारा सरंजाम सामूहिक रूप से लेना चाहिए ताकि हर जन्मदिन मनाने वाले को अनावश्यक दौड़-धूप न करनी पड़े।

जनक और याज्ञवल्क्य संवाद में आता है कि यदि यज्ञ को आवश्यक माना गया है तो उसके लिए खर्च की राशि और साधन कैसे जुटें? गरीब उसे कैसे कर सके? तो उसके उत्तर में याज्ञवल्क्य ने कहा मात्र समिधाओं का हवन करते हुए भी यज्ञ हो सकता है कि गुड़, घी और स्थानीय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली सौम्य वनस्पतियों को मिलाकर हवन कर लिया जाय। आशा की जानी चाहिए कि इतनी गरीबी किसी के भी आगे न आएगी और वनस्पतियों की हवन सामग्री से ही प्रत्येक परिजन का जन्म दिवसोत्सव मनाया जा सकेगा।

इस वर्ष समर्थ शाखाओं की महीने में एक पाँच वेदी का हवन सामूहिक रूप से अवश्य करना चाहिए। उससे सारे गाँव की परिकर की सुरक्षा होगी।

स्मरण रहे कि एक कुंडी, पाँच कुंडी यज्ञ से बढ़कर बड़ा यज्ञ कहीं भी किसी को भी नहीं करना चाहिए। उसके विशेष कारण हैं। समय आने पर उसे भी प्रकट करेंगे। बड़े यज्ञों में- बहुत चन्दा इकट्ठा करने में चोरी चालाकी की पूरी-पूरी गुंजाइश रहती है। हम चाहते हैं कि सात लाख भारत के गाँवों में से प्रत्येक में यज्ञ हो, पर वे हों इस महान परम्परा को जीवन्त रखने एवं वातावरण में उपयुक्त प्रभाव उत्पन्न करने के लिए ही। उसका आकार इतना न बढ़ाया जाय कि उसमें शैतान की आँत घुस पड़े।

दूसरा संकल्प हमारा यह है कि एक लाख प्रज्ञा प्रचारक तैयार किये जायें जो देश और विश्व के कोने-कोने में युग चेतना का आलोक वितरण कर सकें। इसके लिए संगीत को माध्यम चुना गया है। वह शिक्षितों और अशिक्षितों को समान रूप से प्रभावित करता है। भावनाओं के मर्मस्थल तक जा पहुँचता है। संगीत के साथ भी प्रवचन के छोटे-छोटे टुकड़े जोड़े जा सकते हैं और उससे भजनोपदेशक की शैली निखर सकती है। मध्यकाल के प्रायः सभी सन्तों ने अपना प्रचार क्षेत्र प्रवचन संगीत, के माध्यम से ही व्यापक बनाया था। अपनी शैली भी भविष्य में यही होगी। गायकों को प्रथम और वक्ताओं को दूसरा स्थान दिया जायगा।

धर्म प्रचारक विद्यालय हर गाँव में चलना चाहिए। इनके जिम्मे स्थानीय कार्य होंगे और वे किस तरह पूरे किये जा सकेंगे, इस विधा को उन्हीं प्रज्ञा विद्यालयों में सिखाया जाएगा, जो हर गाँव में- 1 लाख गाँवों में इसी वर्ष खुलने चाहिए।

इसके लिए यह नितान्त आवश्यक है कि हर गाँव में हर क्षेत्र से शान्ति-कुंज में एक महीना प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए एक प्रतिभाशाली व्यक्ति भेजा जाएगा। शान्ति-कुंज में ऐसी व्यवस्था की गई है कि एक महीने का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए बड़ी संख्या में कार्यकर्ता आ सकें और इस योग्य बनकर जा सकें कि अपने यहाँ और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में प्रज्ञा प्रचारक विद्यालयों का संगठन, शिक्षण एवं सूत्र संचालन कर सकें।

यह नये ढंग की नई योजनाओं का प्रशिक्षण है। जो पिछले वर्षों में कभी युग शिल्पी सत्रों में आ चुक हैं, उन्हें भी सन् 89 के सत्रों में सम्मिलित होने की तैयारी करनी चाहिए। अपना पूर्व परिचय लिखकर ही समय से पूर्व स्वीकृति प्राप्त करनी चाहिए। बिना स्वीकृति के प्रवेश न मिल सकेगा।

तीसरा संकल्प यह है कि इस वर्ष न्यूनतम 24 लाख पेड़ लगाये जाएं। यज्ञ की तरह वृक्ष भी वायु शोधन का कार्य करते हैं या उनकी बहुलता से जन साधारण पर मानसिक सत्प्रभाव पड़ता है। वर्षा आने से पूर्व ही इसकी तैयारी करके रखनी चाहिए।

मिशन का प्रभाव और प्रयास को बढ़ता देखकर जन श्रद्धा का शोषण करने के लिए कई आडम्बरी अपने-अपने अलग शितून खड़े कर रहे हैं। मिशन को छिन्न-भिन्न करके निजी महत्वकांक्षाओं को पूरी करने वाली आत्मघाती विडंबनाएं रच रहे हैं, दुष्प्रचार कर रहे हैं। इन पंक्तियों में तो उनसे सतर्क रहने भर का संकेत किया गया है। आवश्यकतानुसार अगले अंक में उनका भण्डा-फोड़ भी करेंगे जिससे रंगे सियारों की करतूतों से जन-साधारण को आवश्यक जानकारी प्राप्त हो सके। वे दिग्भ्रान्त होने से बच सकें।

यों पुराने मन्दिरों की जीर्णोद्धार और तीर्थयात्रा के युगधर्म के अनुरूप प्रचलन की योजना भी सामने है। पर अभी इतना ही पर्याप्त होगा कि उपरोक्त तीन कार्यों को हाथ में लिया जाय और उन्हें पूरा करके दिखाया जाय। प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक से यह अनुरोध, आग्रह, निर्देशन एवं मार्गदर्शन है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118