स्मारक एवं देवालय

April 1986

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लोगों में एक कमजोरी या महत्वाकांक्षा यह रहती है कि उन्हें जीवित रहते यश मिले और मरने के बाद भी किसी स्मारक के बहाने उनकी स्मृति बनाये रखें। शरीर से अमर होना तो सम्भव नहीं, पर यश शरीर से जीवित रहने की महत्वाकांक्षा भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं। क्योंकि इस बहाने मनुष्य को कुछ न कुछ ऐसे काम करने पड़ते हैं जिन्हें लोग उपयोगी समझें। जिनके बहाने उसे अन्य लोगों की तुलना में उसे श्रेष्ठ, धर्मात्मा आदि समझा जाने लगे।

जिन दिनों देश में विवेकशीलता थी, उन दिनों यश कामना को लोकोपयोगी कार्यों के निमित्त जगाया जाता था। अपने यश के लिए अथवा पूर्वजों का नाम प्रख्यात रखने के लिये लोग कुएं, तालाब, बाबड़ी बनाते थे। उन दिनों बाँध, नहर जैसे प्रचलन नहीं थे। पानी का मनुष्यों और पशु-पक्षियों के लिए अभाव रहता था। इस हेतु जलाशय बनाने की, पुण्यकर्मों की गणना उचित ही होती थी।

पेड़ लगाने या उद्यान लगाने का कार्य भी ऐसा था जिससे शुद्ध वायु, छाया, पक्षियों के लिए आश्रय, फल आदि के कितने ही लाभ दूसरों को मिलते थे। जिनके पास भूमि थोड़ी अधिक थी वे उसका एक भाग पेड़ लगाने के लिए निकालते थे और उस बहाने लकड़ी से लेकर अनेक प्रकार की सुविधाऐं सर्वसाधारण को मिलती थीं।

वृषभोत्सर्ग भी एक पुण्य कार्य था। बैल तो खेती के काम में लगे रहते थे, दुबले भी होते थे। इसलिए बैल को साँड़ के रूप में चिन्हित करके छोड़ दिया जाता था। वह उपयोगिता अभी भी अपने स्थान पर विद्यमान है। कृत्रिम गर्भाधान से मादा-पशुओं को हानि पहुँचती है और वंशज भी दुर्बल होते थे। प्राकृतिक क्रम सदा ही उपयोगी होता है। वृषमोत्सर्ग की स्थानापन्न प्रणाली दूसरी नहीं हो सकती।

उपरोक्त ऐसे काम थे जिनका लाभ प्रत्यक्ष दीख पड़ता था और उनके निर्माण में जो राशि लगती थी वह इतनी बड़ी नहीं होती थी कि एकाकी व्यक्ति अपने स्वजन परिजनों का श्रम संग्रहित करके उसे पूरा न कर सके। बिहार प्रान्त के एक मध्यवर्ती हजारी नामक किसान ने अपने क्षेत्र में आम्र उद्यान लगाने का व्रत लिया था और एक हजार आम्र उद्यान जनसाधारण को प्रोत्साहित करके खड़े कर दिये थे। कुंए, तालाब भी इसी प्रकार की श्रमदान से सहयोगपूर्वक बन जाते थे। उनमें कोई बहुत बड़ी पूँजी नहीं लगानी पड़ती थी। दुर्भिक्ष के दिनों में सम्पन्न लोग कष्ट पीड़ितों की सहायता के लिए ऐसे ही परमार्थ कामों के लिए अपना खजाना खाली कर देते थे। शासन का ध्यान तो सेना के उपयोग की सर्हद बनाने में रहता था, पर व्यापारी नगरों को जोड़ने में और साधु, सन्त तीर्थस्थान के मार्ग और निवास बनाने में अपनी भक्त मंडली का सहयोग लेते थे। दान में विवेक का समावेश रहता था कि कोई ऐसा काम बन पड़े जो लोकोपयोगी हो।

मध्यकाल के अंधकार युग में पुरातन प्राचीन काल ने करवट ली और मृतक के शव संस्कार का स्मरण दिलाने वाले मकबरे बनने लगे। छोटे श्मशानों में भी पत्थरों पर स्मृति की जाने लगी। यद्यपि ऐसे कार्यों से दर्शकों का ध्यान खिंचने, कौतूहल बनने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता था।

एक और जमाना चल पड़ा। पितरों की सुविधा के लिए उनके बैठने की चबूतरी या मठिया बनाई जाने लगी। उनमें कोई उपयोगिता तो नहीं थी, पर अपनी मान्यता के अनुसार यह विचार कर लिया जाता था कि पूर्वज इस कृत्य से सुविधा अनुभव करेंगे और बदले में साँसारिक सुविधा सहायता प्रदान करेंगे।

यह मान्यता भूत-पलीतों से आगे बढ़कर उसी स्तर के देवी-देवताओं तक चली गई। पितर कहीं दूसरी जगह जन्म भी ले सकते हैं और सहायता भी सीमित ही कर सकते हैं, पर उनसे थोड़े ऊंचे दर्जे के देवी-देवता बहुत दिन तक बने रहते और अपने को तथा वंशजों को उस निर्माण के बदले कृतज्ञतापूर्वक सहायता कर सकते हैं। चूँकि हर आदमी कम खर्च में अधिक लाभ उठाना चाहता है इसलिए देवी-देवताओं की छोटी-छोटी मठिया बनाने की प्रथा चल पड़ी और एक की देखा-देखी दूसरे ने वही राह अपनाई।

विशाल देवालयों- धर्म संस्थानों और धर्मशालाओं का उद्देश्य इससे ऊँचा था। ऋषि युग में बौद्ध भिक्षुओं और जैन श्रवणों की तरह साधु सन्तों का प्रवास और धर्मधारणा के निमित्त सत्संगों एवं रचनात्मक कार्यों का प्रयास निरन्तर चलता था। वे भ्रमण करते थे तो स्थान की आवश्यकता पड़ती थी। धर्मशालाएं ऐसे ही सत्संग भवनों और सृजन कृत्यों के केंद्र रूप में बनती थी। देव प्रतिमा इसलिए मन्दिरों में स्थापित की जाती थी कि उनके भोग प्रसाद के नाम पर आगन्तुक अतिथियों की भोजन तथा निर्वाह व्यवस्था चलती रहे। सन्त गण अपने अपने सेवा क्षेत्र भी बाँट लेते थे और उस प्रवेश सज्जनता सेवा भावना बनाये रहने के लिए निरन्तर कार्यरत रहते थे। मिलन परामर्श के लिए- सामयिक आयोजनों के लिए वे धर्म स्थान काम देते रहते थे जिन्हें धर्म प्रयोजन के लिए- आस्तिकता, आध्यात्मिकता की फसल उगाने हेतु बनाया गया।

जब तक ऐसे निर्माण विवेकपूर्वक बनते रहे तब तक उनमें सत्प्रवृत्तियां चलने और चलाये जाने का दबाव डालने का क्रम बना रहा। वह बहुत ही उत्तम व्यवस्था थी। परिव्राजकों का अपना निर्वाह माँगने में समय खर्च नहीं करना पड़ता था वरन् एक ही स्थान पर अनेक लोक सेवियों को निर्वाह की आवश्यक सुविधाएं मिल जाती थीं। यह प्रयत्न व्यक्तिगत रूप से किये गये हों या सामूहिक रूप से, थे उपयोगी और लोकहित की भूमिका निभाने वाले।

विकृतियाँ इस क्षेत्र में भी घुस पड़ीं। धर्म सेवा के स्थान पर जिस देवता का मन्दिर बनाया है उसे अनुगृहीत करने और बदले में मनोकामनाएं पूरी करने की क्षुद्रता ने लोगों के मनों में स्थान बनाया। धर्मशालाएं फोकट की सरायें बन गईं जिसमें सैनानी, व्यवसायी और आवारा लोग अपना अड्डा जमाने लगे। धर्मशाला का अर्थ धर्म प्रयोजनों के निमित्त बना हुआ आश्रय स्तर का निवास होता है, पर किन्तु जब धर्म समागमों का विचार और क्रम समाप्त हो गया तो लोगों ने उन बेकार इमारतों को मुफ्त की सराय के रूप में प्रयोग करना आरम्भ कर दिया। बनाने वालों ने अपना मन यह सोच कर बहला लिया कि मुफ्त सुविधा देने का अर्थ पुण्य होता है। भले ही उस सुविधा का लाभ पात्र, कुपात्र कोई भी क्यों न उठाये? यह तथ्य विस्मृत हो गया कि रिश्वत देने लेने की तरह कुपात्रों को दान देना भी हेय माना गया है। जो व्यवसायी, सैतानी या बराती गुलछर्रे उड़ाने आया है उससे तो होटलों जैसा किराया वसूल किया जाना चाहिए।

धर्म का सीधा-सा अर्थ है- लोक-मंगल, सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन जो भवन इस काम आये उसे धर्मशाला कहना चाहिए अथवा वह दीवारों पर विज्ञापन पेन्ट कराने की तरह लोकेषणा मात्र हुई। जो भवन यही प्रयोजन करते हों, उनसे लाभ उठाने वाले यदि उचित किराया दें तो यह हर दृष्टि से उचित ही होगा।


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