अन्तःकरण की उत्कृष्ट भाव संवेदना

April 1986

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ऋषि ने पुकारा है - “तमसो मा सदगमय”। हे प्रभु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। असत् से सत की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर। देखना है कि यह अमृत कहाँ है? सत् कहाँ है? और ज्योति कहाँ है? उन तक कैसे पहुँचा जा सकता है। इन तीनों देव विभूतियों को पाकर किस प्रकार कृत-कृत्य हुआ जा सकता है।

यह तीनों हृदय गुफा में अवस्थित हैं और अंतर्मुखी होकर इस रत्न राशि को कोई भी विवेकशील व्यक्ति सरलता पूर्वक बटोर सकता है।

गुफा निवास एक बात है और गुफा की उपलब्धि दूसरी। भौतिक क्षेत्र की गुफाएँ पर्वतीय प्रदेशों में जगह-जगह पाई जाती हैं। वे प्रकृति की संरचनाएं हैं। उनमें वन्य पशु अपने आश्रय बनाते हैं और अपना विश्राम काल उन्हीं में बिताते हैं। प्राचीन काल में आत्म चिन्तन, अन्तःक्षेत्र के अनुसन्धान के लिए ऐसा वातावरण अधिक उपयोगी माना जाता था। तब उसमें स्थान-स्थान पर अनेक योगी-यती रहते थे। उनका आत्म-बल ऐसा होता था कि शरीर निर्वाह के साधन भी अनायास ही मिल जाते थे और सुरक्षा संकट उत्पन्न नहीं होता था।

अब वैसी स्थिति नहीं रही। तो भी लोग नकल बनाने में ही अपनी महत्ता समझते हैं। असली राजा या ऋषि बनना यदि सम्भव न हो तो लोग रंग मंचों पर उन्हीं वेषों का वस्त्र विन्यास के आधार पर मुखौटे लगाकर वैसा ही प्रदर्शन करते हैं। इमारतों की तरह तहखाने की डिजाइन भी बना लेते हैं और उसी को गुफा कहते हैं। उसमें बैठे-बैठे समय गँवाते हुए सोचते हैं कि वे भी पुरातन काल के ऋषियों जैसी सिद्धियाँ प्राप्त कर रहे हैं। वे भूल जाते हैं कि चिन्तन और लक्ष्य में जमीन आसमान जितना अन्तर रहते हुए भी असली और नकली की एक जैसी स्थिति कैसे हो सकती है? यदि गुफा में रहने से ही सिद्धियाँ मिली होतीं तो सभी चूहे सिद्ध पुरुष हो गये होते। शीत आतप का जहाँ अधिक दबाव होता है, या दृष्टि से बचने की आवश्यकता होती है, वहाँ वन्य पशु प्रायः गुफाओं में रहते हैं या उसे अपने पंजों से खोदकर बना लेते हैं। नेवला, गोह, साँप आदि का अधिकांश जीवन गुफाओं में ही समय काटते हुए बीतता है।

अध्यात्म क्षेत्र में वातावरण की महत्ता तो है ही पर उस दिशा में प्रगति करने के लिए इतने भर से काम नहीं चल जाता। इससे अधिक भी कुछ करना होता है। अन्यथा वातावरण का लाभ शारीरिक स्वस्थता तक ही सीमित होकर रह जाता है।

तत्त्वदर्शियों ने हृदय क्षेत्र में गुफा कहा है। यहाँ हृदय के भौतिक और आत्मिक पक्ष के अन्तर को समझना होगा। भौतिक हृदय सीने में बाँई ओर नाशपाती जैसे आकार की एक छोटी सी माँसल संरचना है, जो अपने रचना प्रयोजन के अनुसार को धमनियों, और छोटी नलिकाओं द्वारा निरन्तर रक्त फेंकती और खींचती रहती है। इसकी धड़कन उस स्थान पर हाथ रखकर आसानी से पहचानी जा सकती है। इसी पर रक्तचाप की न्यूनाधिकता का प्रभाव पड़ता है और क्रिया-कलाप थोड़ी देर के लिए रुकते ही प्राणान्त हो जाता है।

अध्यात्म क्षेत्र की हृदय गुफा इससे भिन्न है। वह मेरुदण्ड में अनाहतचक्र के समीप है। पंचकोश गणना में यही विज्ञानमय कोश है। इसे भौतिक हृदय की सीध में तनिक पीछे हटकर अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रहने वाला माना गया है। संक्षेप में यही अन्तराल या अन्तःकरण है- भाव सम्वेदनाओं का केंद्र। कविता में किसी को दिल दे बैठना उस पर निछावर होने को कहते हैं। उर्दू का एक शेर है- “दिल के आइने में हैं तसवीरें यार, जब जरा गरदन झुकाई देखली।” यह आइने जैसा दिल रक्त संचार ग्रन्थि से सर्वथा भिन्न है। हिम्मत, साहस, बहादुरी आदि के संदर्भ में भी उसी आत्मिक हृदय का उल्लेख किया जाता है।

भावनाओं का तो केंद्र ही यह है। यहाँ भावनाओं से तात्पर्य आदर्शवादी, पुण्य परोपकार में मिश्रित भाव सम्वेदनाओं से है। यह कार्य बुद्धि नहीं कर सकती। बुद्धि का आधार प्रत्यक्ष लाभ हानि है। घाटा पड़ने पर उसे झटका लगता है और लाभ होने पर गर्व का उभार आता है। किसी वृद्धजन के मर जाने पर खुशी मनायी जाती है उसकी अर्थी को सजाया जाता है। मृत्युभोज में पैसा खर्चा जाता है। मानो कोई आकस्मिक लाभ हुआ हो। बुद्धि का यह निर्णय ठीक ही है कि एक बेकार आदमी घर घेरे हुये था, पैसा खर्च कराता था और आये दिन सेवा सहायता की माँग करता था। ऐसे झंझट से पीछा छूटा तो अच्छा ही हुआ। उस घटना पर खुशी होनी ही चाहिए। किन्तु उसकी धर्मपत्नी को विछोहजन्य जो दुःख होता है उसे वही जानती है। छोटे बच्चों भी बुद्धि की दृष्टि में व्यर्थ ही होते हैं। माता को सदा हैरान ही करते रहते हैं। खर्च भी कराते ही हैं पर उनकी मृत्यु पर माता को कितना कष्ट होता है, यह भावना है। किन्तु विडम्बना यह है कि लड़की के मर जाने पर बाप मन ही मन प्रसन्न होता है कि एक बड़े ऋण भार से छुटकारा मिला। यही है तार्किक बुद्धि लाभ देखने वाली बुद्धि और भावना का अन्तर, उस भावना का जो अन्तःकरण कहलाती और हृदय गुफा में रहती है।

बुद्धि को तक के आधार पर प्रभावित किया जा सकता है और प्रलोभन या दबाव से उसकी दिशा बदली जा सकती है किन्तु वह लुढ़केगी सदा स्वार्थ साधन की दिशा में ही। उसे मोड़ना इसी पक्ष में सम्भव है। घाटे का सौदा वह नहीं करना चाहती। इसलिए ऐसे उच्च आदर्शों के परिपालन में उसे कटिबद्ध नहीं किया जा सकता जिसमें प्रत्यक्षतः घाटा पड़ता हो। यही कारण है कि बुद्धिवादी धर्मोपदेशक आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातें तो कहते हैं। उनके भाषण बड़े लच्छेदार होते हैं, पर जब उस कथन को निजी जीवन में कार्यान्वित करने के अवसर आते हैं तो पीछे हट जाते हैं। इसका कारण एक ही है कि उनने धर्मचर्चा को बुद्धि क्षेत्र में तो अपनाया है पर अन्तःकरण में भावना क्षेत्र में स्थान नहीं दिया।

संसार में अनेकों व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आदर्शों को प्रमुखता देते हैं। उनकी भावनाएं उस रंग में रंग जाती हैं और उस उत्कृष्टता को अपनाने में बड़े से बड़ा जोखिम उठाते हैं। शारीरिक कष्ट, पैसे की हानि, विरोधियों द्वारा त्रास उपहास आदि की घटनाएँ उनके सामने आती हैं। यहाँ तक कि अपने पिछले कुसंस्कारों को उलट-पुलट करते देखा गया है। किसी के तनिक से बहकने पर बहक जाते हैं। स्वार्थ त्यागने परमार्थ अपनाने का श्रेय तो लेना चाहिए, पर उसके लिए जो त्याग बलिदान करना पड़ता है, उसके लिए कदम बढ़ाने का साहस नहीं करते। करते हैं तो कुछ ही दिनों में क्षणिक उत्साह का बबूला फूटते ही पीछे लौट जाते हैं। इस लौटने में अपनी कमजोरी स्वीकार न करके किसी न किसी अन्य पर दोषारोपण करते हैं। परिस्थितियों की मजबूरी बताते हैं। यह भावनाओं का अधूरापन ही है।

भाव संवेदना का क्षेत्र यदि समुन्नत सुसंस्कृत हो तो उसमें सच्ची सहानुभूति उपजती है। दूसरों के कष्ट बँटा लेने और अपनी सुविधाओं को बाँट देने के लिए मन करता है, मन ही नहीं करता साहस भी उभरता और वे तथाकथित मित्र स्वजनों को असहमत होते हुए भी वैसा आदर्शवादी साहस कर गुजरते हैं।


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