सावित्री साधना का स्वरूप एवं उससे जुड़ी मर्यादाऐं

April 1986

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शब्दार्थों की दृष्टि से गायत्री और सावित्री पर्यायवाचक माने जाते हैं पर जब साहित्यिक शब्दार्थ से आगे बढ़कर आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो दोनों की प्रकृति में भिन्नता आ जाती है। गायत्री का तप करके ब्रह्माजी ने उच्चस्तरीय ज्ञान प्राप्त किया था। पर जब सृष्टि संरचना की आवश्यकता पड़ी तो पदार्थ सम्पदा सावित्री का आश्रय लेना पड़ा। वह सामग्री भी साधारण नहीं, असाधारण थी जिससे ब्रह्माण्ड का विस्तार और परमाणु का अन्तराल इतना सशक्त बन सका कि उसकी समग्र कल्पना कर सकना भी मानवी बुद्धि से बाहर की बात है।

गायत्री, सावित्री इन दो शब्दों का प्रयोग इस प्रकार मिले-जुले रूप में होता रहता है, जिससे वे दोनों एक ही प्रतीत होती हैं। पर वस्तुतः दोनों की बीच जो अन्तर है, उसे उस कथा के आधार पर समझा जा सकता है जिसमें ब्रह्मा जी की दो पत्नियाँ बताई गई हैं जिनमें से एक थी सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री गायत्री और दूसरी पदार्थ प्रकृति के अनुदानों से भरी-पूरी सावित्री। दोनों के सम्बन्ध बताते हुए शास्त्र कहता है-

सावित्री जप्यनिरतः स्वर्गमाप्नोति मानवः।

गायत्री जप्यनिरतो मोक्षोपायं च विन्दति॥

“सावित्री के जप करने वाले को स्वर्ग और गायत्री के जप करने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।”

यों दोनों ही एक तथ्य के साथ जुड़ी हुई हैं। फिर भी उनके बीच द्विधा अवश्य है। गायत्री उपासना व्यक्तित्व को परिष्कृत करते हुए महानता की ओर अग्रसर करने के निमित्त की जाती है और सावित्री की साधना बल, पराक्रम वैभव प्राप्त करके सशक्त बनने के लिए। सावित्री को दूसरे शब्दों में जीवनी शक्ति कह सकते हैं। गायत्री को तो आत्म चेतना के परिष्कार और आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से अनिवार्य माना ही गया है।

शास्त्रकार कहते है :-

ओंकारद् व्याहृतिर्भवति, व्याहृतितो गायत्री भवति, गायत्र्याः सावित्री भवति, सावित्र्याः सरस्वती भवति, सरस्वत्या वेदा भवन्ति, वेदेभ्यो लोकः।

ऊँकार से व्याहृतियाँ हुईं। व्याहृतियों से गायत्री। गायत्री से सावित्री, सावित्री से सरस्वती, सरस्वती से वेद और वेद से लोक उत्पन्न हुए।

उपरोक्त शास्त्र विवेचन में गायत्री और सावित्री के प्रत्यक्ष स्वरूप में क्या अन्तर है, यह स्पष्ट किया गया है। चौबीस अक्षरों के साथ तीन व्याहृतियाँ (भूर्भुवः) लगाने में वह गायत्री मन्त्र रहता है और उनके साथ सप्त महा व्याहृतियाँ लग जाने पर उसकी संज्ञा सावित्री हो जाती है। गायत्री से भागीरथ द्वारा गंगावतरण की तरह अन्तरात्मा में ब्राह्मी चेतना की ज्ञान गंगा का अवतरण होता है सावित्री द्वारा वह प्रयोजन पूरा होता है जो दधीचि ने अपनी अस्थियों का वज्र बनाकर देवताओं को संकट से उबारा था।

शक्ति का प्रतिनिधित्व करने के कारण उसके साथ अनेक प्रकार की अनेकों स्तर की शक्ति धाराओं का समावेश होता है। व्यक्तिगत जीवन में वही कुंडलिनी भी बन जाती है। अपनी या दूसरों की भौतिक परिस्थितियों में हेर-फेर करने की दृष्टि से ही सावित्री का आश्रय लिया जाता है।

जिस प्रकार गायत्री का युग्म यज्ञ है, उसी प्रकार सावित्री का देवता सविता है। सविता मोटे शब्दों में प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य को कहते हैं। पर अध्यात्म क्षेत्र में उसे ब्रह्मतेजस् के रूप में जाना जाता है। अग्नि पिण्ड सूर्य जड़ है। परन्तु सविता विश्वात्मा के रूप में चेतन तेजस्विता से भरा पूरा है। दूसरे शब्दों में उसी को व्यक्तिगत प्रयोजनों में प्राण और सार्वभौम क्षेत्र में महाप्राण कहते हैं। सावित्री का युग्म- शक्ति स्रोत सविता है। जिस प्रकार बिखरी हुई धूप को छोटे से आतिशी कांच द्वारा एकत्रित करके अग्नि प्रकट की जा सकती है, उसी प्रकार सावित्री का उपासक सविता का ब्रह्मतेजस् उपलब्ध करता है। ब्रह्मतेजस् का ही दूसरा नाम ब्रह्मवर्चस् है।

सूर्य अनन्त शक्तियों का स्रोत है। भौतिक विज्ञानी जानते हैं कि जीवों का विकास जल से नहीं, सूर्य ऊर्जा से ही सम्भव हुआ है। जल भी उसी के कारण बना। उसी से समुद्र बने। जलचर बने और विकासवादियों के अनुसार उन्हीं से प्राणी विकसित होते हुए मनुष्य स्तर तक आ पहुँचे। इसलिए वे भी अध्यात्मवादियों के स्वर में स्वर मिलाकर “सूर्य आत्मा जगत स्थुश्च” स्वीकार करते हैं।

सावित्री का अधिष्ठाता सूर्य है। यह सूर्य जो दिन में चमकता है, साधारण नहीं है। पृथ्वी को जीवन उसी से मिला है। सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों को गुरुत्वाकर्षण, चुंबकत्व, ताप, प्रकाश और ध्वनि की तरंगें उसी महा भण्डार से उपलब्ध होती हैं। साथ ही वह इन सब बाल-बच्चों को साथ लेकर महा सूर्य की परिक्रमा के लिए भी द्रुतगति से दौड़ रहा है। उसकी सामान्य गतिविधियों में तनिक भी असामान्यता आते ही पृथ्वी पर हाहाकार मच जाता है।

यह सूर्य की बात हुई। यह प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान है। इसकी एक अदृश्य आत्मा है, जिसे सविता कहते हैं। उस सविता को परब्रह्म कहा गया है और चेतन जगत पर अजस्र अनुदान बरसाने वाला भी। उस परम शक्तिमान की प्रार्थना करते हुए शास्त्र कहता है-

एष लोकनुलोकश्च सप्तदीपश्चसागरोः एष पाताल सप्तस्पो दैत्य दानव राक्षसाः। एष भूतात्मको देवः सूक्ष्मो व्यक्तः सनातनः ईश्वरः सर्वभूतानां परमेष्टि प्रजापतिः। - आदित्य हृदय

- समस्त लोक-लोकांतरों, सप्त द्वीपों, सप्त समुद्रों, सप्त पातालों, दैत्य दानव, राक्षसों आदि को आप सन्तुलित रखते हैं। प्राणियों की दृश्य और अदृश्य स्थिति आप में ही समाहित हैं। आप ही जीवधारियों के प्राण हैं। आप ही परमेष्टि प्रजापति हैं।

अन्य शास्त्रों में भी यह उल्लेख आता है-

प्राणो वै अर्क। - शतपथ 10।4।6।23

-“प्राण ही सूर्य है।”

सएष वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणेकग्निरुदयते। - प्रश्नोपनिषद् 1।6

“सूर्य के उदय होने पर सारे विश्व में प्राणाग्नि का संचार होने लगता है।”

सहस्ररश्मि शतधा वर्तमानः। प्राणः प्रजानामुदंयत्येष सूर्यः॥

-प्राण ही सहस्र रश्मियों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान प्रजा को उत्पन्न करने वाला सूर्य है।

भोsसो तपन्नुदेति ससर्वेषां भूतानाँ प्राणाना दायो देति। - श्रुति

- “इस सूर्य से ही सब प्राणियों को प्राण प्राप्त होता है।”

आदित्यों वै बाह्यप्राण उदयत्येषत्द्येनं चाक्षुषं प्राणामनुग्रह्णीते। -प्रश्नोपनिषद् 1।7

“ब्राह्म जगत् में यह प्राण आदित्य रूप होकर दसों दिशाओं में विद्यमान है।”

आग से लेकर बिजली तक, अणु शक्ति से लेकर लेसर किरणों तक का अपार शक्ति भण्डार पृथ्वी तक सूर्य के स्रोत से ही आता है। अब भी उसी के कारण अन्न, जल और वायु की जीवन सम्पदा उसी के द्वारा प्राप्त होती है और भविष्य में भी महती समस्याओं के समाधान के लिए उसी की ओर निहारा जा रहा है। पेय और सिंचाई के जल की दिन-दिन कमी पड़ती जाती है। इसके लिए सूर्य शक्ति का केंद्रीकरण कर समुद्र जल को भाप बनाने का एकमात्र विकल्प है। ऊर्जा के स्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। भविष्य में यह आवश्यकता भी सूर्य का आश्रय लेने से ही हल होगी। अभी इस ओर ध्यान गया नहीं है कि यह दोनों अत्यन्त कठिन कार्य कैसे सिद्ध किये जा सकते हैं। पर वह दिन दूर नहीं जब सविता का अनुग्रह उपलब्ध कर लिया जायेगा। तब वे आधार भी हस्तगत हो जायेंगे जिनके कारण पृथ्वी निवासियों की जल तथा ऊर्जा की समस्याओं का समाधान हो सकेगा। रोग चिकित्सा में भी अगले दिनों सूर्य किरणों को ही महत्व मिलने वाला है।

आत्मिक चेतना और सविता चेतना का तारतम्य बनाने वाला आध्यात्मिक आधार सावित्री साधना है। सूर्य हमसे बहुत दूर है। लगभग दस करोड़ मील दूर। उसका प्रभाव पृथ्वी तक उसकी किरणों द्वारा ही आता है। माध्यम वे ही हैं। सूर्य की किरणों में सात रंग हैं। इन्हीं को पौराणिक भाषा में सूर्यरथ के सात घोड़े कहा गया है और उसी को तत्वज्ञानी सावित्री के साथ जुड़ी हुई सप्त व्याहृतियाँ (भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्) मानते हैं। संक्षेप में सावित्री साधना सूर्य साधना है। उसका माध्यम सावित्री मंत्र है। उसके माहात्म्य में शक्ति की प्रचण्ड धाराऐं उपलब्ध होने की बात कही गई है। भौतिक दृष्टि से सूर्य की शक्ति के 1/220 करोड़ वें भाग मात्र से जीव सत्ता का पोषण होने की बात कही जाती है।

गायत्री के चौबीस अक्षरों में भगवान से सद्बुद्धि की प्रेरणा का अनुरोध किया गया है, वह कम आवश्यक नहीं है। प्राथमिकता उसी की है। उसके बिना शक्ति का दुरुपयोग होने लगता है और विनाश का वातावरण बनता है। किन्तु सद्बुद्धि के रहते उस सामर्थ्य का सदुपयोग बन पड़ना ही निश्चित है।

व्यक्ति का आत्मज्ञानी होना पर्याप्त लगे तो सावित्री साधना की आवश्यकता नहीं है। पर जब मानवी पुरुषार्थ से काबू में न आने वाले संकट सामने हों, बड़े विनाश से टक्कर लेनी हो और सृजन के बड़े साधनों एवं अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता हो तो सावित्री की साधना अपनाना ही आत्म विज्ञान की दृष्टि से एकमात्र आधार है।

सप्त वचन भी इसकी साक्षी देते हैं-

सामर्थ्य प्राप्यचात्पुच्चैरन्यद भुवन सर्जन किंकि दयाद् सावित्री सम्यगेव मुपासिता।

अर्थात्- विश्वामित्र ने एक नई सृष्टि स्व जलने की सामर्थ्य सावित्री के अनुग्रह से ही प्राप्त की थी। इस संसार में और क्या-क्या ऐसा है जो सावित्री द्वारा उपलब्ध न हो सके।

इन दिनों संसार की स्थिति हर क्षेत्र में जितनी विषम है उतनी धरती के जन्मकाल से लेकर इतनी विषम कभी नहीं हुई। इसे व्यवस्थित बनाने के लिए शक्तिशाली उपकरण चाहिए। वही है सविता युक्त सावित्री जिसके तेजस् को यदि व्यवस्था के सन्तुलन में लगाया जा सके तो सर्वनाश का मुँह पीछे की ओर मोड़ने के लिए विवश किया जा सकता है। इस सम्भावना को चरितार्थ करने का ठीक यही समय है।

जैसा कि बताया जा चुका है, सावित्री उपासना पंचकोशों के जागरण विधान पर निर्भर है। इसका आरम्भिक परिचय हम पंचमुखी गायत्री के रूप में समय-समय पर देते रहे हैं। सर्वसाधारण से जितना बन पड़े, जितना बेजोखिम का हो, उस मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही यह विवरण छपा रहा है ताकि किसी अनजान द्वारा उत्साह में भरकर किसी परमाणु विस्फोट जैसे भयंकर कृत्य कर बैठने की आशंका न हो। अन्नमय कोश के लिए आहार-विहार की पवित्रता (2) प्राणमय कोश के लिए छोटे-छोटे व्रत लेकर साहसिकता बढ़ाने का प्रयास (3) मनोमय कोश के लिए एकाग्रता और सन्तुलन (4) विज्ञानमय कोश के लिए सहृदयता विवेकशीलता (5) आनन्दमय कोश के सर्वत्र बिखरे हुए सौंदर्य को दृष्टिगत रखते हुए प्रफुल्लित पुलकित रहने का सरल तत्वज्ञान और विधान बताया जाता रहा है और आगे भी बताया जाता रहेगा पर वह होगा उतना ही, जितना भार वहन करने वालों की क्षमता होगी। जिनका स्तर ऊँचा उठ सका है, उनके लिए मार्गदर्शक की कमी न अखरेगी। न हमें अखरी और न किसी सत्पात्र को अखरेगी।

सामान्य व्याख्या में सावित्री साधना को कुंडलिनी का उच्चस्तरीय जागरण भी कहते हैं। जननेन्द्रिय मूल में शक्ति का और मस्तिष्क के मध्य सहस्रार ब्रह्मरन्ध्र का निवास माना गया है। यों एक सीमा तक इन दोनों का मिलन, संयोग मेरुदण्ड मार्ग से चलता रहता है और उसी के आधार पर शरीर एवं मन की रहस्यमयी क्रियाऐं चलती रहती हैं। पर इसको यदि ऊँचे स्तर पर जागृत किया जा सके तो प्रसुप्त शक्ति भण्डार उभरने और ऐसे क्रिया-कलाप करने लगते हैं जिन्हें देवोपम या दैत्योपम कहा जा सके।

कुंडलिनी जागरण वस्तुतः एक प्रकार का समुद्र मन्थन है। समुद्र में नीचे कूर्म भगवान बैठे हैं। ऊपर मदराचल पर्वत रखा गया है। यह जननेन्द्रिय और उसके ऊपर मेरुदंड के बीच में सुषुम्ना चलती है जो इड़ा पिंगला से मिलकर बनी है। इसे शेषनाग की राई बनाये जाने के रूप में समझा जा सकता है। इस तत्वज्ञान के देव एवं साधनात्मक पराक्रम के दैत्य मिलकर मथते हैं जिससे समुद्र मंथन से निकले बहुमूल्य रत्नों की तरह अनेकों विभूतियाँ साधक को उपलब्ध होती हैं।

कुंडलिनी विवरण की एक उपमा और भी है। मस्तिष्क को उत्तर ध्रुव माना गया है और मूलाधार को दक्षिणी ध्रुव। पृथ्वी सूर्य की तथा अन्यान्य ग्रह नक्षत्रों की दिव्य सम्पदा अन्तर्ग्रही शक्ति वर्षा के रूप में ग्रहण करती है। उसमें से उपयोगी अंश अपने लिए रखकर दक्षिण ध्रुव मूलाधार से होकर बाहर फेंक देती है। मनुष्य मस्तिष्क से ग्रहण करता है और जननेन्द्रिय से क्षरण कर देता है। जो बचत अंश हाथ में रह जाता है, उसी से साधक में ओजस्, तेजस, और मनस् दृष्टिगोचर होता है।

कुंडलिनी जागरण हठयोग की एक प्रक्रिया है जिसमें षटचक्रों का वेधन करना होता है। तब वह सर्प की तरह फुसकारती हुई अपनी क्षमता का परिचय देती है। शिव और पार्वती के गले में सर्प लिपटे होने की छवियाँ इसी कारण विनिर्मित होती हैं।

कुंडलिनी जागरण का प्रभाव भी व्यक्तिगत तेजस्विता के रूप में ही दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह जननेन्द्रिय मूल, मेरुदण्ड और ब्रह्म रन्ध्र के माध्यम से शरीर में ही उत्पन्न होती है और वहाँ तक प्रभाव दिखाती है, जहाँ तक कि शरीर संपर्क का कार्यक्षेत्र है।

सावित्री साधना और कुंडलिनी जागरण की थोड़ी-सी संगति तो बैठती है। उसमें षटचक्रों का वेधन करना पड़ता है। उसमें पंचकोशों का जागरण हाता है। यह सभी शक्ति भण्डार हैं, पर इनमें भरी हुई सम्पदा भिन्न-भिन्न प्रकार की है। जागृत कुंडलिनी उतने ही क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखाती है जितने में कि साधक का निकटवर्ती संपर्क क्षेत्र होता है किन्तु सावित्री विश्वव्यापी है। उसके प्रभाव से भूमण्डल का सम्पूर्ण क्षेत्र एवं प्राणि समुदाय का समूचा वर्ग प्रभावित हो उठता है। वह जन-जन के मन-मन में प्रेरित प्रेरणा की तरंगें उत्पन्न कर सकती है। वह अनर्थ सँजोने वाले को टक्कर मारकर नीचे गिरा सकता है और साथ ही दिशा भूले लोगों को सही रास्ते पर उसी प्रकार चला सकता है जिस प्रकार झुण्ड से बाहर जिधर-तिधर भागने वाली भेड़ों को ग्वाला डण्डा दिखाकर सीधे रास्ते पर ले आता है। आज की परिस्थितियों में असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ऐसी ही समर्थता अवतरित करने की आवश्यकता है। सावित्री साधना में, सूर्य उपासना में, समय के अनुरूप तेजस् धरती पर खींच बुलाने के लिए यह प्रयत्न ऐसा ही है जैसे कि भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से जमीन पर खींच बुलाने के लिए बाधित किया था।

(क्रमशः)


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