रोगग्रस्त होना कष्टकर हानिप्रद तो है ही, उससे मनुष्य का मनोबल भी क्षीण होता है और चिन्तन की दिशाधारा डगमगाती है। उससे व्यक्तित्व का स्तर भी गिरता है। साथी सहयोगियों पर भार पड़ता है। जीवन में ऐसा रस नहीं रह जाता जो स्थिरता एवं प्रगति का पोषण करता रहे।
अस्तु रोग आने से पूर्व ही उसका उपचार करना चाहिए। यह उपचार आहार-बिहार की नियमितता के रूप में हो सकता है। यदि कुकृत्यों के दुष्परिणामों की बात ध्यान में बनी रहे तो वह कुयोग न आये जिसमें रुग्णता का सामना करना पड़े और संपर्क क्षेत्र का सारा वातावरण बिगाड़ना पड़े।
आहार के सम्बन्ध में हमें बराबर ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य शाकाहारी है। उसे स्वादों के कुचक्र में न पड़कर यह देखना चाहिए कि क्षणिक उत्तेजना के फेर में पड़ने की अपेक्षा दीर्घकालीन हित देखना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि असंयम अपना कर रोगों के फेर में पड़ना उचित है या अपने आपको समर्थ सुरक्षित रखते हुए भविष्य को स्थिर एवं सुखी समुन्नत बनाना ठीक है। यदि असंयम पर नियन्त्रण किया जा सके तो मनुष्य तीन चौथाई आधि-व्याधियों से बच सकता है। मात्र प्रकृति प्रकोप या दुर्घटनाएँ ही ऐसा कारण रह जाती हैं, जो दीर्घायुष्य के मार्ग में बाधक बनें।
सन्तुलित भोजन के फेर में अस्त-व्यस्त आहार क्रम बनाना अनुचित है। शाकाहारी प्राणी अपने शरीर के लिए आवश्यक तत्व वनस्पतियों से उपलब्ध कर लेते हैं। हाथी, गैंडा, बैल, हिरन आदि के शरीर में कोई ऐसी कमी नहीं पाई जाती, जिसके कारण उसे अन्यान्य प्रकार की वस्तुओं का साधन जुटाना पड़े। उन्हें जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, वे सभी उन्हें घास-पात से मिल जाती हैं। इनमें पौष्टिकता एवं क्षति पूर्ति की सभी आवश्यक क्षमताऐं मौजूद हैं।
रोग यदि उपस्थित हो तो चिकित्सक और रोगी दोनों का ही उत्तरदायित्व यह होता है कि उस भूल को सुधारें, जिसके कारण बीमारी के कुचक्र में फँसना पड़ा। इसके लिए यह आवश्यक है कि अपनी आहार-विहार समेत दिनचर्या को सही तरह से सुधार लिया जाय। उपवास से आमाशय को राहत मिलती है। आँतों में संचित मल के निष्कासन के लिए रेचक औषधियाँ लेने की अपेक्षा यह कहीं अधिक अच्छा है कि ऐनीमा लेकर आँतों को- विशेषतया बड़ी आँत को साफ कर लिया जाये। इतना भर कर लेने से संचित विकारों से बड़ी सीमा तक छुटकारा मिल जाता है।
उपचार के लिए वनौषधियों पर ही निर्भर होना चाहिए। ऋषियों ने इस संदर्भ में भारी खोज की है। उन्होंने जड़ी-बूटियों का न केवल रासायनिक विश्लेषण के आधार पर इस सिद्धान्त को आविष्कृत किया है कि किस रोग में क्या औषधि क्या काम करती है वरन् अपनी सूक्ष्म आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह देखा है कि अन्तरंग के मर्मस्थलों, जीव कोशाओं तथा जीव रसायनों पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है? चरक, सुश्रुत, वाग्भट्ट आदि का जीवन इसी विद्या को खोजने में लगा है। उनके जो निष्कर्ष पुरातन काल में थे, वे अभी भी यथार्थता यथावत् बनाये हुए हैं। उनमें कोई ऐसे तत्व नहीं हैं जो एक रोग को निवारण करने से ही इतने मारक तत्व भर दें कि पीछे उनसे निपटना ही एक समस्या बन जाय।
आयुर्वेद का मूलभूत आधार जड़ी-बूटियाँ हैं। उसमें खनिजों, रसों, भस्मों, विषों का सम्मिश्रण मध्य कालीन है। जब सामन्तों को अपनी अहन्ता का पोषण करने तथा चिरकाल तक भौतिक सुख उठाते रहने की ललक जगी। साथ ही विलासी जीवन क्रम को यथावत बनाये रहने की ललक रही तो उनकी इच्छा पूर्ति के लिए रसायनों की ओर चिकित्सकों का ध्यान मुड़ा। वे वाजीकरण प्रयोग हेतु उस प्रयास में लगे पर लाभ मात्र इतना ही हुआ कि तात्कालिक उत्तेजना उत्पन्न करके चमत्कार दिखाया जाने लगा। पर वह ऐसा था जो जीवनी शक्ति में उफान या उछाल ला दे और अनुभव करादे कि जादू जैसा प्रतिफल भी इससे हार सकता है। किन्तु जादू स्थिर कहाँ होता है। वह हथेली पर सरसों जमाने जैसी भ्रान्ति ही उत्पन्न करता है। स्थायित्व उसमें कहाँ होता है।
एलोपैथी का आधार भी वही है। स्थायित्व को भड़काना, उभरे लक्षणों को दबाना, संरक्षक तत्वों को कमजोर करना ताकि वे पीड़ा की अनुभूति न होने दें। यह सिद्धान्त चमत्कारी तो है पर है ऐसा जैसे थके घोड़े की असमर्थता का कारण और निवारण सोचने की अपेक्षा उसकी अन्धाधुन्ध पिटाई शुरू कर देना और जब वह उस असह्य आघात से तिलमिलाकर दौड़ने लगे तो अपने चाबुक की प्रशंसा के पुल बाँध देना।
वनौषधियों के सम्बन्ध में लोगों की उपेक्षा इसलिए पनपी है कि इन्जेक्शनों, कैपसूलों की तुलना में उसका उपयोग सीधा सादा-सा दीख पड़ता है। लागत भी अधिक नहीं लगती। समझा यह जाने लगा है कि जो वस्तु जितनी महंगी होगी, वह उतनी ही अच्छी होनी चाहिए।
चूँकि जड़ी-बूटियाँ सस्ती होती हैं, इसलिए समझा जाता है कि वे वैसी गुणकारी सिद्ध न हो सकेंगी। अश्रद्धा और उपेक्षा से देवता तक पत्थर बन जाते हैं जबकि श्रद्धा का पुट लगने से पत्थर भी देवता हो जाते हैं। हम अपने देश में उत्पन्न अमृतोपम वनस्पतियों की गरिमा समझी तो प्रतीत हुआ कि उनमें बूढ़े च्यवन को युवा बना देने और मूर्छित लक्ष्मण में पुनः चेतना लौटा लाने जैसी क्षमता अभी भी मौजूद है।
रोगी आतुर होता है। उसे यथाक्रम रोगों के निवारण का धैर्य नहीं होता। इसलिए वह वहाँ जाता है जहाँ चमत्कारी गुणों का बखान किया जाता है। पर इसमें आयुर्वेद चिकित्सकों की भूल भी कम नहीं है। वे शुद्ध और ताजी वनौषधियों का प्रबन्ध करने की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। पंसारियों के यहाँ रखी वर्षों पुरानी सड़ी-गली वस्तुऐं खरीद लाते हैं और यह भी नहीं देखते कि समय गुजर जाने के उपरान्त उसके गुण समाप्त तो नहीं हो गये। इसी प्रकार ऐसा तो नहीं हुआ कि समान आकृति वाली कोई दूसरी वस्तु दे दी गई हो। भूमि का प्रभाव भी उन पर रहता है। जिस भूमि में जो बूटी पूरे गुण लाती है वह परिपक्व होने पर समुचित लाभ देती है। उखाड़ने वाले उसे कच्ची भी उखाड़ लाते हैं। प्रयोग्य अंग का इस्तेमाल नहीं करते ऐसी दशा में भी उसमें समुचित प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रहती। इसका समाधान चिकित्सकों को भी इस प्रकार करना चाहिए कि वे शान्ति-कुंज जैसे जड़ी-बूटी उद्यान अपने-अपने यहाँ खड़े करें और उनके गुणों में कोई अन्तर तो नहीं आया है यह रोगियों पर प्रयोग कर परखें।