सृष्टा का सुव्यवस्थित किन्तु अद्भुत संसार

April 1986

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योग साधनाओं के माध्यम से अध्यात्म जीवन की उच्च कक्षाओं में पहुँचे योगी महापुरुष अनेक अलौकिक शक्तियाँ क्षमताएँ विकसित कर लेते हैं। परन्तु प्रकृति ने कई जीव जन्तुओं को भी ऐसी अलौकिक शक्तियाँ दी हैं- जिनके बिना उनका काम ही नहीं चल सकता था। उन शक्तियों और क्षमताओं के सम्बन्ध में जानकर तो आश्चर्य ही होता है और परमात्मा की अनन्त अनुकम्पा के सम्मुख नतमस्तक हो जाना पड़ता है।

शीत प्रधान देशों में जहाँ बर्फीले तूफान आते हैं और सामान्य मौसम में भी जहाँ कोई मनुष्य मुश्किल से रह पाता है, वहाँ कई जातियों के पक्षी रहते हैं। बर्फीले तूफान वर्ष में किन दिनों आते हैं, यह कोई निश्चित नहीं है और उनमें जीवन के अस्तित्व की सम्भावना बिल्कुल ही नहीं है। फिर भी कुछ जाति के पक्षी वहाँ रहते हैं और बर्फ गिरने के एक माह पूर्व ही वहाँ से उड़ जाते हैं। कोई दस दिन पहले भी उड़ता है और कोई दो माह पूर्व भी, परन्तु प्रतिवर्ष वे अपने स्वाभाविक नियत अवधि में ही उड़ जाते हैं। बर्फ कब गिरेगी- प्रायः यह अनिश्चित ही रहता है फिर भी उनके उड़ने के समय में कोई भूल नहीं होती।

इसी प्रकार शीत प्रधान देशों में जब बर्फ गिरने लगती है तो रीछ कई दिनों पहले गुफा में चले जाते हैं और अपना आवश्यक आहार इकट्ठा कर लेते हैं। इसी प्रकार एक जापानी चिड़िया है, वह भूकम्प आने के चौबीस घण्टे पहले उस क्षेत्र को छोड़ देती है। हमारे देश में साधारण चिड़िया की भाँति यह जापान में सर्वत्र पायी जाती है, गाँवों में भी। गाँव के लोग उसे उड़ते और गाँव छोड़कर जाते देख समझ जाते हैं कि भूकम्प आने वाला है और वे भी गाँव छोड़ जाते हैं। आश्चर्य है कि अब तक विकसित वैज्ञानिक संयन्त्र भी कुछ घन्टे पूर्व ही भूकम्प की भविष्य वाणियाँ करते हैं फिर इस चिड़िया को चौबीस घण्टा पहले ही कैसे पता चल जाता है।

उत्तरी कनाडा में शीत ऋतु के समय झीलों पर बर्फ की मोटी सतह जम जाती है। लेकिन वहाँ की झीलों में रहने वाली मछलियाँ इससे पूर्व ही गर्म जगह की ओर चली जाती हैं जहाँ बर्फ नहीं जमती। अब उन्हें कैसे पता चलता होगा कि यहाँ बर्फ जम जायेगी और अमुक स्थान पर नहीं जमेगी। टिटहरी- एक भारतीय पक्षी है जो कभी वृक्षों पर अण्डे नहीं देता वह अकसर नदी, तालाबों के किनारे पर ही अण्डे देता है वह समय भी प्रायः वर्षा ऋतु के आस-पास होता है, परन्तु नदी तालाब के तट पर भी वह पानी से इतनी दूर और इतना ऊँचे अण्डे देता है कि बाढ़ आ जाने पर भी जल वहाँ तक पहुँचता नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में इसीलिए यह मान्यता है कि जिस वर्ष टिटहरी के अण्डे पानी में बह जायें वह वर्ष अति विनाशकारी होता है।

जलचर प्राणी पृथ्वी या आकाश में मर जाते हैं और नभचर अथवा थलचर पानी में नहीं बचते परन्तु एक पक्षी है आरिब्डक। जो आकाश में भी उड़ता है और पानी में भी महीनों तैरता रह सकता है।

जीव विज्ञान के आचार्य विलियम जे. लॉग ने वर्षों तक प्राणियों की अतीन्द्रिय शक्तियों के सम्बन्ध में खोज की और उन निष्कर्षों को पढ़कर यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि मनुष्य बुद्धि कौशल में भले ही पशुओं से काफी आगे निकल गया हो परन्तु अतीन्द्रिय शक्तियों के क्षेत्र में पशु-पक्षी ही उससे बढ़े-चढ़े हैं।

कुत्तों और भेड़ियों की घ्राण शक्ति इतनी तीव्र होती है कि वे मीलों दूर की गन्ध ले लेते हैं। गन्ध के आधार पर तो मनुष्य दो फुट दूर खड़े इनसान को नहीं पहचान सकता लेकिन कुत्ता गन्ध के मामले में इतना होशियार है कि पहने हुए कपड़ों को यहाँ तक कि पद चिन्हों के आधार पर भी वह उस व्यक्ति को कहीं भी पहचानने में सफल हो जाता है। संगीन मामलों में अपराधियों की खोज के लिए कुत्तों का सहारा इसी प्रकार लिया जाता है- पाठक इससे तो भली-भाँति परिचित हैं।

इसी प्रकार उल्लू, चील ओर गिद्ध की दृश्य शक्ति अपने ढंग की अनूठी ही होती है। उल्लू के नेत्रों में प्रचण्ड रोशनी भरी पड़ी है कि वह केवल रात में ही देख पाता है। किसी वस्तु का न दिखाई देना अंधकार के कारण ही नहीं होता वरन् तीव्र प्रकाश हो तो भी आँखें देखने में असमर्थ होती हैं। जो प्रकाश हमारी आँखों के लिए सामान्य है और उसमें हम आसानी से देख सकते हैं वही प्रकाश उल्लू की आँखों के लिए चौंधिया देने वाला बन जाता है और उल्लू इसी कारण दिन में देख नहीं पाता।

चील और गिद्ध मीलों ऊपर उड़ते हुए भी नीचे पड़े माँस के टुकड़े को देख लेते हैं। बाज हजारों फीट ऊपर उड़ते हुए भी घास या झाड़ियों में छुपे मेंढक, चूहे और साँप को आसानी से देख लेता है। हमारे लिए तो पाँच फीट ऊपर से भी घास के नीचे छुपे मेंढक चूहों को देख पाना असम्भव है। खरगोश और मछलियाँ भी बिना सिर हिलाये चारों तरफ देख लेते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय की दृष्टि से हरिण सबमें अद्वितीय है। वह मीलों दूर की आहट सुन लेता है। न सुनायी पड़ने वाली शेर की दहाड़ वह तुरन्त सुन लेता है और उसके कान खड़े हो जाते हैं।

कई प्राणियों में इस प्रकार की शक्तियाँ और क्षमतायें विकसित हैं जिनकी तुलना में मनुष्य बौना सिद्ध होता है। इस दृष्टि से मनुष्य को प्रकृति का सबसे बड़ा पुत्र और सर्वोपरि अनुदानों से युक्त कहा जाना अनुपयुक्त लग सकता है परन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं। वस्तुतः ये शक्तियाँ मनुष्य को जन्म-जात मिली हैं। मनुष्य की संरचना का आध्यात्मिक अध्ययन सिद्ध करता है कि सूक्ष्म शरीर में विद्यमान षट्चक्रों में वे सभी सम्भावनाऐं और शक्तियाँ अन्तर्हित हैं जो पिछले किन्हीं जन्मों से विकसित हो चुकी थीं। यह तो एक तथ्य है ही कि सभी जीव योनियों में भ्रमण कर चुकने के बाद यह मनुष्य को मिली है।

मानवी कलेवर के सूक्ष्म शरीर में विद्यमान षट्चक्रों में जीवात्मा की यात्रा के समस्त अनुभव और उपलब्धियां किसी टेप रिकार्डर में रिकार्ड की गई आवाज की तरह टेप है आवश्यक है तो उन्हें जागृत भर करना। वे सुप्त इसलिए हैं कि मनुष्य की लम्बी यात्रा के कारण वे पीछे छूट गयी हैं और अप्राकृतिक रहन-सहन तथा विकृत जीवन विकृत मनोभूमि के कारण उनकी अनुभूति भी निष्पद पड़ चुकी है।

कहा जा सकता है कि प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ अनुदानों का अधिकारों मनुष्य है तो उसे वे इस जीवन में भी प्रदत्त की जा सकती थीं। लेकिन प्रकृति का यह नियम है कि जिन परिस्थितियों में जिस वस्तु या शक्ति की आवश्यकता हो वह उपलब्ध करा दी जाय। अनावश्यक और अनपेक्षित शक्तियों के दुरुपयोग की ही सम्भावना अधिक रहती है। इसलिए जब तक कोई अपनी पात्रता सिद्ध नहीं कर देता वे मिल नहीं सकतीं। यह सृष्टा का एक अनिवार्य शाश्वत सिद्धान्त है।


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