अग्निहोत्र और यज्ञाग्नि

April 1986

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दृश्यमान अग्नि का कितना महत्व है, हम सभी जानते हैं। चूल्हा जलने, मिट्ठी पकने, धातुऐं शोधने एवं ढालने जैसे अनेकों कार्य उसी के सहारे होते हैं। छोटी बड़ी मशीनों के पुर्जे ढालने के लिए अग्नि ऊर्जा ही काम आती है। यह मनुष्य द्वारा उत्पादित अग्नि की बात हुई। सौर ऊर्जा से वनस्पति उगती तथा पकती है। बादलों के बनने और बरसने का समूचा दायित्व सौर ऊर्जा ही वहन करती है। सीलन और सड़न से उबारना उसी का काम है।

इन प्रत्यक्ष अग्नियों के अतिरिक्त एक रासायनिक अग्नि भी है, जिससे वनस्पतियों में विभिन्न गुण और शरीरगत रसों की पाचन क्षमा का उत्पादन होता है। इसे शास्त्रों में वैश्वानर कहते हैं। शरीर में यह सन्तुलित मात्रा में रहती है। इसके घट या बढ़ जाने से मृत्यु निश्चित है। इसे जीवन भी कहते हैं और जीव ऊर्जा भी। शरीर में विभिन्न अनुपात के विभिन्न रसायनों की मात्रा भी विद्यमान है। उसे रासायनिक ऊर्जा कहते हैं, दूसरे शब्दों में उसे प्राण भी कहा गया है।

रासायनिक अग्नि प्रायः जीव सत्ता को ही प्रभावित करती है। इससे विभिन्न उपयोगों द्वारा रोगोपचार किया जाता है और बलवर्धन भी। आरोग्य शास्त्र उसी की देन है। प्रकृति प्रदत्त शरीर शुक्राणु से लेकर भ्रूण स्थिति तक गतिशील रहता है। प्रसव के उपरान्त ठोस, द्रव और वायुभूत खाद्य-पदार्थों द्वारा शरीर का अभिवर्धन होता है। नियत मात्रा में कमी आ जाने से कुपोषण स्तर की व्यथाऐं क्या को सताने लगती हैं।

इस सबका सार तत्व प्राण है। उसी के स्तर एवं अनुपात से मनुष्य में बलिष्ठता, सुन्दरता, जीवनी शक्ति, आदि का वर्चस्व बढ़ता है। इसी का एक पक्ष ओजस्, तेजस्, मनस् एवं वर्चस् कहलाता है। यह विश्वव्यापी दिव्य अग्नि है। वह पदार्थों को क्रियाशील रखती है और चेतना विभिन्न स्तर की भावनाओं कि उद्भव करती है। इन्हीं को प्रेरणा भी कहते हैं। अन्तरंग की प्रेरणाएं बहिरंग क्रिया-कलापों के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं।

अग्नि, विद्युत, रसायन आदि के रूप में इस महातत्व का उपयोग करने का अवसर हमें अनायास ही प्राप्त भी होता रहता है और कौशलपूर्वक उसी को उपार्जित एवं धारण भी किया जाता है। मानस क्षेत्र में यही कल्पना, धारणा, आकांक्षा, प्रेरणा आदि के रूप में काम करती है। शरीर इसी का अनुशासन मानता है और निर्देशों का कार्यान्वयन करता है।

साँसारिक कामों में अग्नि की प्रत्यक्ष ऊर्जा आभा ही काम आती है जबकि अध्यात्म प्रयोजनों में उसके साथ जैव चेतना का भी समावेश करना पड़ता है। जो चेतना को प्रभावित करे उसे यज्ञाग्नि कहते हैं। इसमें प्राण ऊर्जा जोड़नी पड़ती है। इसके दो आधार हैं। एक मन्त्र के आधार पर उत्पन्न किया गया ध्वनि -प्रवाह। दूसरा यज्ञ संचालकों की शारीरिक एवं मानसिक साधनाक्रम पवित्रता। यज्ञ संचालकों में ब्रह्मा, अध्वर्यु, उद्गाता, होता आदि व्यवस्थापक होते हैं। होता यजमान रूप में इन्हीं में से एक है। इस समूचे समुदाय को ब्रह्मचर्य, उपवास, स्नान, शुद्ध वस्त्र धारण, जप-ध्यान आदि के द्वारा अपने आपको यज्ञाग्नि की समीपता का अधिकारी बनना पड़ता है। एक और पक्ष यह है कि अग्नि कहाँ से लाई गई। जिस प्रकार देव प्रयोजनों के लिए होता या पुरोहित को व्यक्तिशः पवित्र रहना पड़ता है, उसी प्रकार मन्त्रोच्चारण भी सही होना चाहिए। अन्यथा अशुद्ध उच्चारण से मन्त्र की वह शक्ति उभर नहीं पाती जो अभीष्ट प्रयोजनों के लिए आवश्यक है।

यज्ञाग्नि को तीन प्रयोजनों हेतु प्रयुक्त किया जाता है (1) शारीरिक रोग निवारण एवं समर्थता सम्वर्धन के लिए (2) मानसिक बुद्धिबल बढ़ाने तथा भावनाओं में उत्कृष्टता लाने के लिए (3) अदृश्य वातावरण एवं वायुमण्डल का संशोधन करने के लिए। इन तीन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाली अग्नियों का प्रज्ज्वलन काष्ठ विशेष की समिधाओं से किया जाता है। इन तीन अग्नियों को क्रमशः अहिताग्नि, आव्हनीयाग्नि एवं दक्षिणाग्नि कहते हैं।

यज्ञाग्नि मौलिक उत्पादन की होनी चाहिए। उसमें अन्य व्यक्तियों या प्रयोजनों के संस्कार नहीं जुड़े होना चाहिए। अरणि मंथन का तरीका यह है कि पीपल के पके और सूखे काष्ठ में एक ओर गट्टा और दूसरे में शंकु निकलते हैं। दही मथने की तरह इसे दबाव देते हुए मथा जाता है। उस मंथन से चिनगारियाँ निकलती हैं। चिनगारियों को रुई में लेते हैं। वह जलने लगे तो कपूर के माध्यम से ज्वलनशील बनाकर उन्हें घी मिश्रित समिधाओं में फैला देते हैं। अग्नि जलने लगती है तो सर्वप्रथम उसमें सात आहुति घी की डालते हैं ताकि परिपूर्ण प्रज्ज्वलन में सुविधा हो। यज्ञ वेदी के चार कोनों पर चार जल पात्र रख देते हैं ताकि उत्पन्न होने वाली कार्बनडाइ आक्साइड का अंश उन जल पात्रों द्वारा सोख लिया जाय।

अग्नि प्रज्ज्वलन का अरणि मंथन वाला तरीका अब अभ्यास में न रहने और उपयुक्त काष्ठ का चयन न हो सकने पर अग्नि स्थापन के लिए चुम्बक लौह आदि का प्रयोग करना चाहिए। यह मैगनेट तरीका इन दिनों उपयुक्त है। माचिस में फास्फोरस जैसी अनुपयुक्त वस्तुओं का सम्मिश्रण रहता है। अग्नि प्रयोजनों में लगी हुई अग्नि काम में लाई जाय तो उसमें पूर्व संस्कार सम्मिलित हो जाते हैं। इन सब बातों का ध्यान रखते हुए यज्ञ प्रयोजनों के लिए पवित्र अग्नि ही काम में लानी चाहिए। आतिशी शीशे पर सूर्य किरणों को एकत्रित करने से भी वह मौलिक अग्नि उत्पन्न हो सकती है।

अग्निहोत्र अपने आप में एक विज्ञान है। उसमें रसायनों को वायुभूत बना देने के कारण व्यापकता बढ़ जाती है। ठोस पदार्थ, एल्केलाइड्स व टर्पीन्स इत्यादि जहाँ के तहाँ रहते हैं। द्रव रूप में वे अपने फैलाव के अनुसार काम करते हैं। किन्तु यदि जला कर वायुभूत बना दिया गया है तो उसके प्रभाव दूर-दूर तक पहुँचता है। अग्नि में लाल मिर्च, हींग आदि कोई भी तीक्ष्ण प्रकृति की वस्तु डाल दी जाय तो उसकी गन्ध जहाँ तक प्रभाव पहुँचाती है वहाँ तक बैठे हुए लोगों को छींकें या खाँसी आने लगती है। यज्ञाग्नि में ऐसी तीक्ष्ण वस्तुऐं तो नहीं होमी जाती, पर जिनकी भी आहुतियाँ दी जाती हैं, उन सबका व्यापक क्षेत्र में प्रभाव पड़ता है। इस दृष्टि से यह विधा शारीरिक और मानसिक रोग निराकरण के लिए उपयोगी है। यही वायु मण्डल में संव्याप्त विषाक्तता का भी निराकरण करती है। छोटा प्रयोग छोटे क्षेत्र में काम करता है और ढाल जैसा काम देता है। यह भौतिक क्षेत्र की उपलब्धि हुई। सूक्ष्म वातावरण में युद्धोन्माद जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ भर जाती हैं तो उनका परिशोधन भी यज्ञ के अध्यात्म पक्ष द्वारा ही हो सकता है। उसमें प्राण पर्जन्य की भी वर्षा होती है जिससे स्वस्थ वातावरण ही नहीं बने, आकाश से बरसने वाले बादलों में प्राण पर्जन्य का समुचित समावेश रहने से सर्वत्र पौष्टिकता की अभिवृद्धि हो। व्यक्तित्व को उभारने और प्रतिभा को निखारने के लिए भी अग्निहोत्र से असाधारण लाभ मिलता है।

आयुर्वेद शास्त्र में कितने ही रोगों में वनस्पतियों का धूम्र प्रयुक्त करने का विधान है। कारण यह है कि औषधि स्थूल और द्रव्य पदार्थों की अपेक्षा वायुभूत स्थिति में अधिक सूक्ष्म बन जाती है और मात्र नासिक, मुँह आदि खुले छिद्रों से ही नहीं, रोमकूपों द्वारा भी शरीर के अन्तराल में प्रवेश करती है और गहराई में घुसी हुई विकृतियों तक का निराकरण करती है। नासिक द्वारा खींची हुई वायु मस्तिष्क के उन क्षेत्रों तक भी जा पहुँचती है, जहाँ अन्य उपायों से उस संस्थान का स्पर्श नहीं किया जा सकता।

अग्नि होत्र के सम्बन्ध में वैज्ञानिक शोधों का सिलसिला अब विश्व भर में चल पड़ा है, क्योंकि वायुमण्डल के संशोधन और अवाँछनीय तत्वों के निराकरण में इसका असाधारण योगदान देखा गया है। गम्भीर पर्यवेक्षण से इसका और भी अधिक लाभ प्रस्तुत कर सकने वाला तरीका हाथ लग सकता है। अमेरिका स्थित अग्निहोत्र यूनिवर्सिटी। बसन्त परांजपे द्वारा संचालित) में इस सम्बन्ध में गहरे अन्वेषण किए गए हैं और उसके परिणामों से विज्ञान क्षेत्र को अवगत किया है। कई वर्षों पहले भारतीय संस्कृति से प्रभावित एक ब्रिटिश डाक्टर टायलिट ने मुनक्का, किसमिस तथा खजूर जैसे मीठे फलों के धुएं का फेफड़े व हृदय सम्बन्धी रोगों के निवारण में सफलतापूर्वक प्रयोग किया था। इसी प्रकार प. जर्मनी के प्रो. रिलवर्ट, प्रो. जेफेलीन, कर्नलकिंग आदि ने भी अपनी व्यक्तिगत प्रयोगशाला एवं परीक्षण प्रक्रिया में अग्निहोत्र के लाभकारी प्रतिफलों को सत्यापित कर दिखाया है।

अमेरिका के मेरीलैण्ड बाल्टीमोर में पिछले काफी दिनों से यह प्रयोग चल रहा है। वर्जीनिया में एक अग्नि मन्दिर की ही स्थापना की गयी है, जिसमें विशेष स्तर की अग्नियों पर कुछ खाद्य-पदार्थ पकाये और रोगियों को खिलाये जाते हैं, जैसे कि भारतीय यज्ञ परम्परा में चरु को संस्कारित कर पकाया व खिलाया जाता है। इतना ही नहीं, यज्ञाग्नि की बची हुई भस्म का सभी औषधियों की तरह प्रयोग किया जाता है और अवशोषित जल का भी विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है। इन प्रयोगों में न केवल अनेक औषधीय गुण वाली वनस्पतियाँ प्रयुक्त होती हैं वरन् अनेक स्तर की समिधाओं का भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार का प्रतिफल पाया गया है।

यज्ञ कार्य में घृत के उपयोग का प्रावधान है, पर वह न मिले तो गौ दुग्ध भी काम में लाया जा सकता है। तेलों तथा हानिकारक रसायनों से बने घृत की शक्ल वाले वेजीटेबल घी के प्रयोग की अपेक्षा से तो यही अच्छा है कि शुद्ध गौ दुग्ध का प्रयोग कर लिया जाय। समिधाओं में अनेक प्रयोजनों के लिए विभिन्न काष्ठों के उपयोग का प्रावधान बताया गया है, पर यदि वैसा उपलब्ध न हो तो आम, पीपल, चन्दन देवदारु आदि के काष्ठ भी प्रयुक्त हो सकते हैं।

ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान हरिद्वार की अग्निहोत्र प्रयोगशाला अपने ढंग की अनोखी है। उसमें बहुमूल्य वैज्ञानिक यन्त्रों का ऐसा ही समग्र संकलन किया गया है। वनस्पति उद्यान भी अपना निज का उगाया गया है। इन प्रयोगों से जो प्रतिफल सामने आये हैं, वे आशाजनक उत्साहपूर्वक हैं। आगे भी इनसे महत्वपूर्ण परिणाम निकलने की आशा है।

इस दिशा में यदि समुचित प्रयोग शृंखला चलती रहे तो रचनात्मक की अनेक उपलब्धियों के सूत्र हाथ लग सकते हैं।


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