महात्मा गान्धी ने ईश्वर के विषय में लिखा है- “वह ऐसी रहस्यमय शक्ति है जो सर्वव्यापी है। उसे अनुभव करता हूँ, पर आँखों से नहीं देखता। यह कहना ठीक नहीं कि जो इन्द्रियों से नहीं दीखता उसका अस्तित्व नहीं।
हर विचारशील को अनुभव होता है कि सृष्टि व्यवस्था में कोई व्यवस्थित शासन चल रहा है। उसमें राई रत्ती अन्तर न पड़ने की बात मात्र संयोग कहकर हँसी में नहीं उड़ाई जा सकती।
जड़-पदार्थों में भी जीवन है। उसके अस्तित्व अपने अन्तःकरण में देखा जाता है जो सत्कर्म के लिए प्रोत्साहन देता और दुष्कर्म के लिए रोकथाम करता है।
संसार की हर चीज बदल रही है साथ ही नये रूप में विनिर्मित भी हो रही है। ऐसा व्यापक और व्यवस्थित क्रम बिना किसी नियमन के हो नहीं सकता।
जब अन्तःकरण की श्रद्धा उमड़ती है तब हम उसके अधिकाधिक निकट बढ़ते जाते हैं और उसके सौंदर्य तथा अनुग्रह सब ओर बिखरा देखते हैं। किन्तु जब अविश्वास से मानस विकृत होता है तो फिर अपनी आत्मा की तरह परमात्मा के अस्तित्व से भी इनकार करते हैं।